मेंढक मंदिर उत्तर प्रदेश का एक उत्सुक्ता से भर देनेवाला मंदिर है जिसका नाम सुनने से मन अचंभित हो कर दिमाग सोचने में लग जाता है। यह मंदिर अपना विचित्र इतिहास के लिए जुड़ा हुआ है।
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रविवार, 4 फ़रवरी 2024
मेंढक शिव मंदिर, लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश

बुधवार, 31 जनवरी 2024
तिलभांडेश्वर मंदिर, काशी, उत्तर प्रदेश
तिलभांडेश्वर नाम मात्र से संकेत मिल जाता है मंदिर के खास होने का। महादेव की नगरी काशी के प्रमुख शिव मंदिरों में से एक है तिलभांडेश्वर मंदिर। विश्वनाथ मंदिर के दर्शन के बाद यह शिव मंदिर भोलेनाथ को ध्यान, साधना,जप के लिये काशी में सबसे उत्तम मंदिर है।
इस मंदिर के पीछे का इतिहास भी इसके नाम कि ही तरह अनोखा और अनसुना है।

सोमवार, 29 जनवरी 2024
कोपेश्वर महादेव मंदिर, खिद्रापुर, महाराष्ट्र
पौराणिक इतिहास:
पौराणिक कथा अनुसार दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती द्वारा प्राण त्यागने पश्चात् दक्ष को महादेव ने वीरभद्र द्वारा मृत्यु दंड दिया था। सति की मृत्यु पर महादेव कुपित हो गए। इसी कथा अनुसार भगवान शिव के कोप को शांत कर संसार को सर्वनाश से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने उन्हें इस स्थान और लेकर आये थे।
एक अन्य कथा में इस स्थान का पौराणिक महत्त्व भगवान विष्णु के लिंग रूप में अवतरित होने का उल्लेख है। भगवान शिव के इस शिवलिंग रूप के साथ साथ अगर कोई एक समय में सनकेश्वर, बंकनाथ कोपेश्वर के दर्शन कर लेगा तो उसके हर दुर्लभ मनोरथ और इक्छाएँ पूर्ण होंगी। इस वरदान का देव, दानव, गन्धर्व, ऋषि और मानव दुरुपयोग करने लगे थे। इसका उपाय श्री हरि के पास ही उपलब्ध था। इस मंदिर के गर्भ गृह में पहुँचने पर सबसे पहले ध्यान भगवान विष्णु के लिंग के ऊपर आता है। सबसे प्रथम श्री हरि जो दोपेश्वर के रूप में विराजित हैं। यह संसार का एक मात्र मंदिर है जहां भगवान हरि लिंग रूप में पौराणिक महत्व से विराजित है।

मंगलवार, 23 जनवरी 2024
ऋंगी-शांता मंदिर, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश
श्रृंगवेरपुर, प्रयाग नगरी के समीप प्रभू श्री राम से पुनीत धाम चित्रकूट के निकट बना है। यह धाम रामायण की अनसुनी कथा और इनसे जुड़े हुए कुछ अंजाने पात्र की भूमि रही है। रामायण के शुरू से लेके अंत तक इस पावन भूमि का अहम योगदान रहा है।
पौराणिक इतिहास:
श्रृंगवेरपुर का इतिहास अति रोचक कथाओं के घटनाक्रम से भरा हुआ है। इन कथाओं का वर्णन वाल्मीकि रामायण, कालिदास के रघुवंशम्, भवभती के उत्तर रामचरित, वेदव्यास के महाभारत और तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस में है। त्रेतायुग में ऋषि कश्यप के पुत्र विभंड ने घोर तपस्या की जिससे भयभीत हो देवराज इंद्र ने अप्सरा उर्वशी को तपस्या भंग करने के लिए भेजा। विभंड उर्वशी के से मोहित हो गए और इस मिलन से एक पुत्र का जन्म हुआ। यह पुत्र ऋंगी ऋषि कहलाये। ऋषि के मस्तक पर सींग जैसा उभार होने के कारण इनका नाम ऋंगी पड़ा। उन्होंने अपने कठोर तप से अनेक शक्तियां प्राप्त की। इन शक्तियों के उपयोग से राजा दशरथ और अंगदेश के राजा रोमपद को भीषण अकाल से मुक्त करवाया।
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ऋषि श्रृंगी - देवी शांता |
श्रृंगवेरपुर की भूमी पर राजा दशरथ का पुत्रेष्ठि यज्ञ का साक्षी है। इस यज्ञ को ऋंगी ऋषि ने संपन्न करवाया था। फल स्वरूप अयोध्या में राजा दशरथ की तीन पत्नियों, कौशल्या से श्री राम, कैकई से भरत और सुमित्रा से लक्ष्मण शत्रुघ्न हुए।
रामचरितमानस की एक चौपाई में ऋंगी द्वारा पूर्ण करवाये गए पुत्रेष्टि यज्ञ का वर्णन इस प्रकार है –
सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा।
पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।।
दशरथ पुत्री शांता:
प्रभू श्री राम के पिता राजा दशरथ की एक पुत्री भी थी जिनका नाम था शांता। किंतु देवी शांता का उल्लेख वाल्मीकि कृत आद्य महाकाव्य रामायण में नहीं मिलता है। केवल ऋषि ऋंगी का वर्णन है। दक्षिण भारत के कतिपय पौराणिक आख्यानों में शांता को राजा दशरथ और उनकी पहली पत्नी कौशल्या की पुत्री होने के स्पष्ट विवरण मिलता है। माता कौशल्या की एक बहन वर्षिणी अंगदेश के राजा रोमपद की पत्नी थी। किंतु राज दम्पति के कोई संतान न थी। शांता को राजा दशरथ से वचन लेकर राजा रोमपद और रानी वर्षिणी ने गोद ले लिया था। राजा दशरथ की सहमति से ही शांता का विवाह ऋंगी ऋषि के साथ हुआ था।
प्रभू श्री राम, पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण सहित राजसी जीवन त्याग इसी पावन धरती से वनवासी जीवन आरंभ किया था। रघुनंदन आर्य सुमंत्र द्वारा चलाये रथ पर बैठ, अयोध्या से गंगा के तट पर पहुंचे और केवट द्वारा नाव में बैठकर इस स्थान पर पहली रात्रि बिताई। भ्राता भरत श्री राम को मनाकर वापिस अयोध्या लें चलने के लिए प्रथम बार यहीं रुके थे और एक रात्रि बिताई थी।
रामचरितमानस में इसका वर्णन इन चौपाईयों में मिलता है –
सीता सचिव सहित दोऊ भाई।
सृंगबेरपुर पहुंच जाई।।
सिय सुमंत्र भ्राता सहित।
कंद मूल फल खाई।।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि।
पाय पलोट त भाई।।
श्रृंगवेरपुर धाम महत्त्व:
श्रृंगवेरपुर, प्रभू श्री राम के परम मित्रों, भक्तों में से एक निषादराज का गढ़ रहा है। निषादराज का महल भी यही बंजर अवस्था मे है।
इस पावन भूमि को इसके पौराणिक इतिहास के कारण संतान तीर्थ भी माना जाता है।
लंका से लौटते समय यहां निषादराज को श्री राम के लंका से पुष्पक विमान पर आने की सूचना भी मिली थी जिसे उन्होंने भरत तक पहुंचाया था।
देवी सीता और केवट ने यहीं निषादराज गुहा और गंगा जी से आभार प्रकट किया था।
श्रृंगवेरपुर मंदिर कैसे पहुँचे:
श्रृंगवेरपुर पहुँचने के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन प्रयागराज रेलवे स्टेशन है। प्रयागराज से श्रृंगवेरपुर की दूरी 32 किमी है। इसे प्रयागराज से लखनऊ हाईवे से आया जा सकता है। अयोध्या से भी श्रृंगवेरपुर 170 किमी की दूरी पर है। निकटतम हवाई अड्डा प्रयागराज का अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा है।
✒️स्वप्निल. अ
(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

रविवार, 21 जनवरी 2024
जगत शिरोमणि मंदिर, आमेर, राजस्थान
जगत शिरोमणि मंदिर राजस्थान के आमेर के प्रमुख धार्मिक और ईतिहासिक विरासतों में से एक है जिसका इतिहास जयपुर की सीमा के बाहर सर्वजन के ज्ञान में नहीं है।
मध्यकालीन इतिहास:
आमेर के राजा सेनापति मानसिंह और उनकी पत्नी द्वारा जगत शिरोमणि मंदिर का निर्माण करवाया गया था। इन दोनों का एक पुत्र हुआ जिसका नाम था जगत सिंह। जगत सिंह 18 वर्ष की आयु में एक युद्ध के लिए निकल पड़े। युद्धभूमि मे जाते समय कुछ हमलावरों ने उनकी हत्या कर दी। अल्प आयु में अपने इकलौते पुत्र को खोने के वियोग में रानी कनकवती ने उसकी स्मृति में एक भव्य इमारत बनाने को सोची। वासुदेव श्रीकृष्ण की उपासक रानी ने भगवान श्री कृष्ण को समर्पित यह मंदिर बनवाया। सन् 1599 से 1608 के बीच मंदिर बनकर तैयार हुआ।
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श्रीकृष्ण-मीराबाई |
जगत शिरोमणि मंदिर:
मंदिर का नामकरण रानी के पुत्र जगत और श्री कृष्ण के एक और नाम शिरोमणि से मिलाकर रखा गया है। आमेर के पुरातन मंदिरों में से एक जगत शिरोमणि मंदिर राजपुताना महामेरू वास्तुकला में बना है। इसमें मकराना से मंगवाए गए सफेद और मलाई रंग के संगमरमर का उपयोग किया गया है। मंदिर में एक बरोठा, मंडप, स्वर्ग मंडप और गर्भ गृह है। मंडप दो मंजिला जिसके दो भाग एक दूसरे को काट रहे है। आमेर की मुख्य सड़क से मंदिर का मुख्य द्वार सम्पर्क में है। तथा राज महल से मंदिर के पीछे बने द्वार तक भी एक दरवाजा जुड़ा है।
छत पर मंदिर के सामने भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ देव बने हुए हैं। गर्ब ग्रह के द्वार पर विष्णु जी के दशावतारों और निवास, क्षीरसागर का दृश्य मंदिर को को दिव्यता प्रदान करता है। बाहर खड़े विष्णु जी के द्वारपाल जय-विजय शिल्पित हैं। भगवान श्री कृष्ण उरुश्रृंगों और कर्णश्रृंगों से क्रमबद्ध सुशोभित है। मंदिर बनाने में उस समय के मूल्य अनुसार 9 लाख रुपये का खर्च आया था। जगत शिरोमणि मंदिर के द्वार पर ऊंचा भव्य तोरण बना हुआ है जिसपे देवी देवता और दो हाती आगन्तुकों का स्वागत करती मुद्रा में देखे जाते हैं।
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स्वर्ग मंडप |
"श्री कृष्ण के साथ अमूमन राधा रानी या रुक्मिणी/सत्यभामा बगल में दिखती हैं। किंतु इस मंदिर में उनकी परम भक्त मीराबाई साथ में विराजी हैं।"
मंदिर महत्व:
जगत शिरोमणि मंदिर के बारे में माना गया है कि गर्भ-गृह में श्री हरि का वही विग्रह प्रतिष्ठित है जिसकी मीराबाई 600 वर्ष पहले पूजा किया करती थी। आखरी समय मे मीराबाई द्वारका में इसी श्री कृष्ण के विग्रह के साथ देखी गयी थी। और मीराबाई की देह इसके पश्चात् नहीं मिली सो माना यही गया कि कृष्ण के प्रेम में वे देह सहित वैकुंठ प्रस्थान कर गयी या विग्रह में समा गई थी। मीराबाई के विग्रह होने के पीछे का कारण यह समझा गया की, क्योंकि राधा रानी या देवी रुक्मिणी का विग्रह श्री कृष्ण के बराबर रखी जाती है किंतु इस मंदिर में मीराबाई का विग्रह कृष्ण से सिमटे हुए ना हो के नीचे अलग रखी गयी है। किसी कृष्ण भक्त के साथ यह मूर्ति महाराणा प्रताप के राज्य में आ पहुंची। हल्दीघाटी के युद्ध मे मुग़ल सेना के हमलों में बचते बचाते इस मूर्ती को आमेर के सेनापति राजा मानसिंह को किसी के द्वारा प्राप्ति हुई और फिर उन्होंने मंदिर में प्राण प्रतिष्ठिता की।
जगत शिरोमणि मंदिर कहाँ है?
जगत शिरोमणि मंदिर जयपुर के आमेर में देवी सिंहपुरा में स्तिथ है। मंदिर की जयपुर रेलवे स्टेशन से दूरी 11 किमी और जयपुर अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे से 19 किमी है। पर्यटक स्थलों के लिये प्राइवेट कैब और टैक्सी की सेवा उपलब्ध रहती है। साथ ही सरकारी बसें भी आमेर के किलों तक सुविधा प्रदान करती हैं।
✒️स्वप्निल. अ
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गुरुवार, 18 जनवरी 2024
ममलेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग, खंडवा, मध्यप्रदेश
ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग को महादेव का चौथा ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है। किंतु इस मंदिर के प्राकट्य की कथा ओंकारेश्वर मंदिर के प्राकट्य के साथ कि है।
पौराणिक कथा:
शिव पुराण के अनुसार सत्युग में विंध्याचल पर्वत ने लंबे काल तक तप कर महादेव को प्रसन्न कर लिया था। महादेव तपस्या से खुश हो कर विंध्याचल को मनोवान्छित वर माँगने के लिए कहा। भगवान शंकर के साथ साथ अन्य ऋषि और मुनि पधारे थे। वरदान में वरदान में विंध्याचल ने भगवान से उस स्थान पर दो लिंग स्वरूप में जन् कल्याण हेतु रहने का वरदान मांगा। भगवान ने इस स्थान और ओंकारेश्वर और ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग रूप में विराजे। दोनों शिवलिंग में भगवान की एक ही रूप और दिव्यता बस्ती है। दोनों में से किसी भी एक के दर्शन कर लेने से एक प्रकार का पुण्य और आशीर्वाद प्राप्त होता है।
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ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग गर्भ-गृह |
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एक और कथा अनुसार राजा मांधाता ने कड़ी भगवान शिव की कड़ी तपस्या करके भगवान को यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजने का वर मांगा था। पुराणों में ममलेश्वर महादेव को अमलेश्वर या अमरेश्वर भी बोला गया है।
➡️ भोजपुर शिव मंदिर, रायसेन, मध्यप्रदेश
इतिहास:
ममलेश्वर ज्योतिर्लिग मांधाता पर्वत पर बसा है। मांधाता पर्वत नर्मदा नदी के मध्य में है। यहां पर नर्मदा दो धाराओं में बहती है। उत्तर और दकहिं किंतु दक्षिण की धारा को ही असली धारा माना गया है। मध्यप्रदेश और भारत के अन्य ज्योतिर्लिंग और धर्म नगरों के मंदिरों की तरह आज दिख रहे ममलेश्वर मंदिर को इंदौर की रानी अहिल्याबाई होलकर द्वारा बनवाया गया था।
वी अहिल्या बाई के समय से यहाँ शिव पार्थिव पूजन होता रहा है, २२ ब्राह्मण प्रतिदिन सवा लाख पार्थिव शिव लिंगों द्वारा ममलेश्वर महादेव का पूजन किया जाता था | इसका भुगतान ब्राह्मणों को दान पारिश्रमिक भुगतान होलकर राज्य द्वारा किया जाता था |वर्तमान में यह संख्या घटकर ११ और फिर ५ ब्राम्हणों तक सिमित हो गई है |
ममलेश्वर महादेव मंदिर:
ममलेश्वर मंदिर 500 मीटर की ऊंचाई पर सिथत है। मंदिर पूरे पांच मंजिला है और हर मंदिर में एक देवालय है। मंदिर ग्रेनाइट के बड़े बड़े पत्थरों से बना है। नागर और मराठा वास्तुकला में बनाया गया है। गर्भ-गृह में विराजित ममलेश्वर महादेव का शिवलिंग ओंकारेश्वर शिवलिंग की तरह हूबहू स्वयम्भू है। ज्योतिर्लिंग के दूसरी और नन्दी विराजे है। मंदिर की दीवारों पर शिव महिमा स्तोत्र सन् 1063 से अंकित है।
ममलेश्वर की महिमा ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के बराबर ही मानी गयी है। एक मान्यता और भी है, जिसके अनुसार ज्योर्तिलिंग ओंकारेश्वर में और पार्थिव लिंग ममलेश्वर में विराजित है। ओंकारेश्वर मंदिर और ममलेश्वर मंदिर के बीच 1000 मीटर की दूरी है। अधिकतर आगंतुक ओंकारेश्वर और फिर ममलेश्वर के दर्शन के करते हैं।
ममलेश्वर के प्रांगण में अन्य मंदिर भी है। शिव के ममलेश्वर रूप के अलावा वृद्धकालेश्वर, बाणेश्वर, मुक्तेश्वर, कर्दमेश्वर और तिलभांडेश्वर मंदिर में भी। दो से तीन मंदिररों के अलावा बाकी मंदिरों में दर्शन नहीं किये जा सकते हैं। इस ज्योतिलिंग में गायकवाड़ राजाओं के समय के ब्राह्मणों द्वारा पूजा, अनुष्ठान किये जा रहे है। पहले इनकी संख्या 22 थी और वर्तमान समय में5 ब्राह्मण सेवारत हैं।
ओंकारेश्वर की तरह ममलेश्वर में भी साल के बारह महीने भीड़ रहती है। मंदिर खुलने कक समय सुबह 6 बजे और बंद रात्रि 9 बजे का है।
ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग कैसे पहुँचे:
ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग पहुँचने के लिए ओंकारेश्वर के लिए खंडवा रेलवे स्टेशन की दूरी 70 किमी है। खंडवा देश के सारे शहरों से समर्पक में है।
ओंकारेश्वर से ओंकारेश्वर बस अड्डे तक कि दूरी 650 मीटर है।
हवाई मार्ग से इंदौर के देवी अहिल्याबाई हवाई अड्डा और भोपाल का राजा भोज अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा सबसे निकटतम हवाई अड्डा है।
ममलेश्वर में पूजा सामग्री और होटल रात 8 से 9 बजे के के बीवः बंद हो जाते है।
✒️स्वप्निल. अ
(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई)

रविवार, 14 जनवरी 2024
आघोरी बामाखेपा
"अघोर साधना में तीन प्रकार के साधक होते हैं। पहले पशु जो अपनी पशुओं वाली मूल इच्छाओं को पूरा करने के लिए साधना करते हैं, दूसरे वीर जो मूल इच्छाओं को त्याग ऊपर उठने के लिए साधना करते है और तीसरे वे दिव्य आत्माएं जो इन सारे सांसारिक इकच्छाओं से भी आगे ईश्वर में लीन होना चाहते हैं। अघोरी बामाखेपा उन्हीं दिव्य अवधूतों की प्रजाति में आते थे।"

बुधवार, 10 जनवरी 2024
हरसिद्धि माता मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश
अवन्तिकापुरी उज्जैन में स्तिथ माँ हरसिद्धि मंदिर में माँ पार्वती का रूप विराजित है। उज्जैन नगरवासी उज्जैन में महाकाल को अपने पिता और माँ हरिसद्धि को नगर की रखवाली और पोषण करनेवाली मानते है।

सोमवार, 8 जनवरी 2024
श्री कालभैरव मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश
पौराणिक इतिहास:
कालभैरव मंदिर की पौराणिक कथा ब्रह्माजी के हठ्ठ से जुड़ी है। सत्युग के समय सृष्टि निर्माण और चार वेदों की रचना पश्चात्, ब्रह्माजी वेदों से भी विशाल ग्रँथ की रचना करने का मन बनाया है। भगवान शिव को ज्ञान हुआ और वे इस ग्रँथ की रचना का फल भलीभांति जानते थे। इस ग्रँथ के बनने से कलयुग अपने निर्धारित समय से पहले आ जाता। सो भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र के मध्य भौओं से बटुक भैरव को उतपन्न कर भगवान ब्रह्मा के इस कर्म को रोकने का कार्यभार सौंपा। बटुक भैरव ब्रह्माजी के पास जा कर बार-बार निवेदन किये। किंतु ब्रह्माजी उनको बालक समझ कर अपमान करते हैं। तब बटुकनाथ भैरव मदिरा का सेवन कर बड़े हो जाते हैं, काल भैरव रूप में आ जाते हैं। अपने एक उंगली के नख से ब्रह्माजी के 5 वे मुख का छेदन कर देते हैं। ब्रह्माजी का वह सिर बटुक भैरव के उंगली में फंस कर कट जाता है। बटुकनाथ ब्रह्म हत्या के दोषी हो जाते हैं और इस दोष के निवारण के लिए महादेव के पास जाते हैं। महादेव उन्हें संपूर्ण भारत के भ्रमण के लिए जाते है। ब्रह्माजी के मस्तक बटुक भैरव के हाथ से छूटकर जिस स्थान पर गिरता है वह स्थान फिर ब्रह्मकपालिक तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। उस स्थान पर ब्रह्मकपालिक क्रिया संपन्न हो जाती है किंतु ब्रह्म हत्या के पाप का निवारण नहीं होता और तब बटुक नाथ महाकाल वन(उज्जैन नगरी) आते हैं। यहां संकटमोचन घाट पर बैठकर स्नान करते हैं और शिव की आराधना कर दोष का निवारण होता है।
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पिंडी रूप में कालभैरव |
इतिहास:
कालभैरव मंदिर पुरातात्त्विक और लिखित इतिहास के अनुसार 2500 ईसा पूर्व का है। राजा भद्रसेन, इस स्थान के पास से युद्ध के लिए गुजरते समय रुके और भगवान कालभैरव से युद्ध में विजय प्राप्ति की मन्नत मांगी और विजयी होने पर भैरव जी के मंदिर का निर्माण करवाया। आगे चलकर राजा विक्रमादित्य के वंश में राजा भोज ने यहाँ पुनरुथान करवाया था। पेशवा-मराठों के युग मे मंदिर में कई सारे निर्माण और बदलाव किए गए थे।
कालभैरव मंदिर और रहस्य:
उज्जैन में भैरवगढ़ की पहाड़ी पर कालभैरव जी का रहस्यमय मंदिर बसा है। मंदिर पृथ्वी से 6 फ़ीट की ऊंचाई पर बना है। गर्भ गृह मे विराजे कालभैरव के एक गुंबदनुमा छत के नीचे है। भगवान पिंडी रूप में सिंदूर और कुमकुम से रंगी बड़ी-बड़ी आंखों के साथ और जीभ बाहर किये हुए हैं। भगवान पर मराठाओं द्वारा मुग़लों पर विजय प्राप्ति पश्चात लाल पगड़ी चढ़ाई गयी थी। तब से यह परंपरा आज भी कायम है।
यहीं से क्षिप्रा नदी मंदिर को छूते हुए गुजरती है। यह मंदिर मराठा और परमार वंश की नागर शैली का मिश्रित रूप में बनाया गया है। मंदिर में पाताल भैरव और गुरु दत्तात्रेय का मंदिर भी है। इसकी वास्तुकला परमार नागर और मराठा शैली में बनी है। मराठों के शासन काल के चरम पर पहुँचने पर मंदिर के दाएं ओर एक दीप स्तम का निर्माण मंदिर मे करवाया गया था। इसे संध्या होते ही प्रज्वल्लित किया जाता है। इच्छाओं की पूर्ती के लिए इस दीप स्तम्भ में भक्त सरसो के तेल का दिया जलाते हैं।
अवन्तिकापुरी के इस कालभैरव मंदिर को अत्यंत गुप्त मंदिरों में से एक माना गया है। ऐसा इसीलिए क्योंकि यह उन चंद मंदिरों म् से हैं जहां वाम मार्ग के नियमगत पूजा होती है। प्राचीन समय मे यहाँ विशुद्ध परंपरागत तरिके से तांत्रिक अनुष्ठानों में पंच मक्कारों (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा और मैथुन) में उपयोग किये जानेवली सामग्री होती थी। इसमें शव साधना जैसी भयभीत कर देनेवाली क्रियाएं भी की जाती थी। कुछ दशक पहले आम जनता के दर्शन के लिए 5 अनुष्ठानों में से केवल मदिरा का सतत भोग लगाया जा रहा है।
यहां आनेवाला हर श्रद्धालूँ कालभैरव को मदिरा का भोग चढ़ाता है। अचंभित कर देने वाली बात है की (उग्रता के प्रतीक) भैरवजी सारी शराब पी जाते है। इस पर अमरीकी, की स्पेस एजेंसी, नासा द्वारा भी फ़िजूल का शोध किया गया था जिसके कोई ठोस कारण उन्हें नहीं मिल पाए। सनातन धर्म के हर विषय को वैज्ञानिकता की कसौटी पर खड़ा रखकर तौलना पश्चिम का रवैय्या सदैव से मात्र सनातन को इस देश और इसकी संस्कृती को समाप्त करने के उद्देश्य से ही रहा है।
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दीप स्तम्भ |
पुराने समय मे मंदिर में देसी मदिरा का भोग लगाया जाता था और अब विदेशी ब्रांडेड मदिरा का भोग लगाया जाता है। मदिरा के अलावा कालभैरव को लड्डू और चूरमे का सात्विक भोग भी चढ़ाया जाता है।
कालभैरव एक मात्र ऐसे देवता है जिनकी हर महीने की अष्टमी को प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। इनका मंदिर जिस शहर गांव में होता है वे उस नगर के कोतवाल कहलाये जाते हैं।
कालभैरव मंदिर के अलावा यहां पाताल भैरवी का भी मंदिर है। यह गुफा एक तरफा है और इसका महत्त्व तंत्र से जुड़ा है।
हर वर्ष मध्यप्रदेश सरकार वार्षिक पूजा अनुष्ठान भी करवाती है।
ज्ञातव्य: कालभैरव मंदिर कुल मिलाकर एक तांत्रिक सिद्धपीठ है। महाकाल की नगरी में महाकाल के दर्शन के साथ-साथ कालभैरव के दर्शन त्वरित फल देने वाले होते है। यहां मदिरा की बोतल का मूल्य
बाजार में मिलनेवाली बोतल से दुगने मूल्य पर मिलता है।✒️स्वप्निल. अ
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शुक्रवार, 5 जनवरी 2024
पावागढ़ महाकाली मंदिर, चंपानेर, गुजरात
गुजरात राज्य के चंपानेर जिले में माँ काली एक दिव्य शक्तिपीठ पावागढ़ स्तिथ है। पश्चिम भारत में पावागढ़ महाकाली मंदिर एक मात्र देवी मंदिर है जो सर्वाधिक ऊंचाई पर बसा माँ का दिव्य दरबार है।
पौराणिक इतिहास:
पावागढ़ मंदिर का पौराणिक इतिहास सतयुग के आरंभ के काल का है। इस धाम की उत्तपत्ति माता सती के देह से कट के गिरे अंगों में से निर्मित हुई थी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं कि यहाँ माता के शरीर का कौन सा अंश गिरा था। पुराणों में कहीं माँ के किसी एक पैर की 5 उंगलियाँ तो कहीं वक्ष स्थल कहा गया है। इस मंदिर के नाम करण के पीछे का सत्य स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं है। क्योंकि पावागढ़ का नाम तो माता के पांव से गिरी उंगलियों के कारण या तो गुजरात के इस भूभाग में पवन के अति वेग से चलने की वजह से पड़ा हो सकता है।
माँ सति के पुनीत अंगों से बनी इस भूमि पर माँ काली के विग्रह को ऋषि विश्वामित्र ने स्थापित किया था। विश्वमित्र के नाम पर चंपानेर क्षेत्र की नदी विश्वमित्री नाम से जानी जाती है। इस धाम में भगवान श्री राम का भी आगमन रावण के वध पश्चात हुआ था। रावण वध के ब्राह्मण हत्या के दोष के निवारण हेतु प्रभू ने यहीं प्राश्चित किया था। भगवान के दोनों पुत्र लव-कुश के भी याँ आने की बात यहाँ के निवासी मानते हैं।
मध्यकालीन इतिहास:
पावागढ़ के उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार काली मंदिर का इतिहास 1000 वर्षों का माना गया है। उस समय मंदिर में माँ के दर्शन बहुत दुर्लभ हुआ करते थे। घने जंगलों के मध्य पहाड़ी पर बने मंदिर पर अधिकांश सौराष्ट्र वासी नहीं चल पाते थे।
मुग़ल काल के भारत में सत्ता लेने के बाद सन् 1484 में क्रूर इस्लामी हमलावर महमूद बेगड़ा ने पावागढ़ पहाड़ीपर सेना के साथ चढ़ाई कर मंदिर क्षतिग्रस्त कर दिया और पीर सदन शाह की दरगाह बनवा दी।
पावागढ़ मंदिर:
पावागढ़ मंदिर को प्राचीन समय में शत्रुंजय मंदिर कहा जाता था। माँ महाकाली के इस भव्य और अद्धभुत मंदिर कुल 1525 फ़ीट(550मीटर) की ऊंचाई पर है। इसकी चढ़ाई में 2500 से ज़्यादा सीढियां चढ़नी पढ़ती है। सन् 2017 से 2022 के बीच मंदिर से पीर सदन शाह की दरगाह हटाकर पहाड़ी के अन्य स्थान पर करवाया गया है। माँ काली दक्षिण मुख किये हुई हैं। माँ की पूजन विधि तंत्र परम्परा के नियमों के अंतर्गत होती है। जैसे के अन्य शक्तिपीठों और देवी मंदिरों में देखने को मिलता है, पावागढ़ मंदिर में माता काली के साथ माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती विराजी हैं।
मंदिर पूरे 500 वर्षों के बाद माँ के विग्रह के ऊपर शिखर बनवाई गई है और ध्वजारोहण भी किया गया है। यह प्रशंसनीय कार्य माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य सरकार के भरपूर प्रयास से संभव हो पाया है। एक और कारण, पावागढ़ गुजरात के प्रमुख तीर्थो में से एक है। वर्ष 2017 से पहाड़ी के शिखर से दरगाह हटाने का कार्य 2022 मे निष्पादित हुआ जिसके बाद दरगाह पहाड़ी के अन्य कोने में स्थानांतरित करवा दि गयी।
माँ काली के दुर्लभ से सुलभ दर्शन की यात्रा का इतिहास पावागढ़ मंदिर ने रचा है।
पहाड़ पर चढ़ाई करते समय आगंतुक मध्य में दुधिया और तलइया तालाब देख सकते हैं। रोपवे से ऊपर-नीचे जाते समय नज़ारा और भी विहंगम दिखाई देता है। सीढ़ियों की शुरुआत से लेके रोपवे के अंत स्टेशन तक यहाँ भक्तों के उपयोग की हर खाद्य और दूसरी वस्तुएं यहाँ बनी दुकानों में उपलब्ध रहती है।
नवरात्र में माता काली यह प्राचीन मंदिर भक्तों को पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और बाकी राज्यो से खींच लाता है। दूर से पावागढ़ की पहाड़ी पर मंदिर मानों माँ का मुकुट जैसा प्रतीत होता है।
पावागढ़ माँ काली गरबा:
गुजरात पावागढ़ की महाकाली को समर्पित एक प्रेम और भक्ति से परिपूर्ण गरबा लिखा गया है जिसे गुजरात मे हर वर्ष नवरात्रों और अन्य उत्सवों में गाया और मनाया जाता है। गरबे की पंक्तियां यह रही-
पावली लई ने हूँ तो पावागढ़ गयी थी,
पावली लई ने हूँ तो पावागढ़ गयी थी,
पावागढ़ वाली मने दर्शन दे, दर्शन दे।
नई तो मारी पावली पाछी दे,
नई तो मारी पावली पाछी दे।
अर्थ: भक्त माँ से नटखट और प्रेममय भाव से कह रहा है "पावागढ़ वाली माँ के लिए मैं 5 पैसे लेके गई थी, पावागढ़ वाली मुझे दर्शन दो, नहीं तो मेरे 5 पैसे वापिस दो।
पावागढ़ मंदिर समयसारिणी:
पावागढ़ मंदिर खुलने का समय सुबह 5 बजे और बंद होने का समय संध्या 7 बजे का है। माँ काली की आरती का समय सुबह 5 बजे और संध्या 6:30 बजे का है।
पावागढ़ मंदिर कैसे पहुँचे:
पावागढ़ पहुँचने के लिए रास्ता दो भागों में बंटा है।
पावागढ़ के सबसे निकट पहले वडोदरा और दूसरा अहमदाबाद शहर है। दोनों की दूरी 46 और 150 किमी है।
चंपानेर से अहमदाबाद और वडोदरा सड़क मार्ग से अच्छे से समर्पक में है तथा रेल और हवाई मार्ग से देश के अन्य कोनों से भी जुड़े हुए हैं। चंपानेर के बस स्टैंड से बस दिन के हर समय चलती है।
चंपानेर पहुंचकर ऑटो या टैक्सी में पहले 5 किमी अंदर का सफर कर मंदिर के पहाड़ के नीचे पहुंचना होता है। और पश्चात रोपवे(उड़नखटोला) से कुछ ही मिनट में मंदिर के नीचे पहुंचा जा सकता है।
यहां से 250 सीढियां और चढ़कर मा काली के दर्शन किये जाते हैं।
✒️स्वप्निल.अ

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