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गुरुवार, 23 नवंबर 2023

बूढ़ानीलकंठ मंदिर, काठमांडू, नेपाल

पौराणिक मान्यता:

किंवदंती अनुसार जब सत्युग में समुद्र मंथन हुआ तब सारे ब्रम्हांड में समुद्र मंथन से निकला विष जीव-जंतुओं का विनाश करने लगा। तब महादेव ने आपने कंठ में सारे विष को निगल लिया। इसके के पश्चात, कंठ में जलन हुई तो महादेव नेपाल के इस स्थान की ओर आ कर त्रिशूल से प्रहार किया और जल धारा प्रकट की। यह जल धारा से एक कुंड का निर्माण हुआ जिसे आज गोसाईं कुंड के नाम से जाना जाता हैं।


निद्रा में भगवान विष्णु

इतिहास:


भगवान विष्णु की यह प्रतिमा कथा अनुसार एक किसान को खेत मे काम करते वक़्त मिली थी और दूसरी किंवदंती के अनुसार इसे 7वी शताब्दी में कहीं बनवाया गया था और राजा विष्णुगुप्त ने इस प्रतिमा को स्थापित करवाया था। श्री हरि की मूर्ति के नीचे भगवान महादेव अप्रत्यक्ष रूप से विराजित है जो साल में एक बार दर्शन देते हैं।





मंदिर मूर्ति:


मूर्ति की लंबाई 5 मीटर और सरोवर की 13 मीटर है। इस झील का नाम गोसाई कुंड कहते हैं। मूर्ति को एक विशाल काले बेसाल्ट पत्थर पर कलात्मक सुंदरता के साथ उकेरा गया है। गोसाई कुंड समुद्र तल से 436 मीटर ऊंचाई पर स्थित है।  इस सरोवर में भगवान नारायण शेषनाग की कुंडली मे सोई मुद्रा में है। यह सरोवर ब्रह्मांडीय समुद्र का प्रतिनिधित्व भी करता है। भगवान विष्णु के 4 चिन्ह: शंख, गदा, कमल और चक्र चार दिव्य गुणों को दर्शाते हैं। शंख 4 तत्व को, चक्र मन को, कमल का फूल चलते ब्रह्मांड को और गदा ज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान का शरीर चांदी के बाजूबंद से सजाया हुआ है। 


मंदिर में सुंदर नक्काशियों की भरमार है। नेपाल के अन्य मंदिरों की तरह बूढानीलकंठ मंदिर में भी भगवान श्री हरि के वाहन गरुड़ देव जी, मंदिर के द्वारपाल बनके विराजे हैं। भगवान विष्णु की मूर्ति के पैर शेषनाग की कुंडली के पार है। 




यह रहस्यम मंदिर नेपाली राज परिवार के लिए श्रापित माना गया है। कहते हैं की राज परिवार का कोई भी सदस्य अगर यहां भगवान के दर्शन कर ले या चूक से भी आ जाये तोह उसकी मृत्यु हो जाएगी। 


विष्णु या बुद्ध:


 नेपाल के इस प्राचीन मंदिर में न केवल हिंदू किंतु नेपाल के बौद्ध भी बड़ी गहरी आस्था रखते है। नेपाली बौद्ध भगवान विष्णु की इस मूर्ति को बुद्ध की मूर्ति मान पूजते है तथा इस मंदिर को एक बौद्ध मंदिर। बौद्ध धर्म सनातन के अंतर्गत होने की वजह से नेपाली हिंदू और बौद्धों में आजतक इस पर कभी-कोई विवाद या वैमनस्य पैदा नहीं हुआ है। 






त्यौहार एवं महोत्सव:


नेपाल के विशेष विष्णु तीर्थों में से एक होने की वजह से नेपाल, भारत और बाकी देशों से अनेक आगंतुक और श्रद्धालू, बूढानीलकंठ मंदिर हर वर्ष देव शयनी और प्रबोधिनी एकादशी पर भारी संख्या में आते हैं।  इस महीने में भगवान विष्णु अपने 4 महीने की निद्रा से जागते है और इसीलिए इस समय बड़े मेले का आयोजन मंदिर में करवाया जाता है।


लोगों का मानना है कि जुलाई से अगस्त में होनेवाले श्रावण उत्सव के दौरान भगवान शिव का चेहरा दिखाई देता है। 


मंदिर समय सारिणी:


मंदिर सवेरे 5 बजे से संध्या 7 बजे तक आगंतुकों के लिए खुला रहता है।

 

✒️स्वप्निल. अ


बुधवार, 22 नवंबर 2023

लक्ष्मी नरसिंह स्वामी मंदिर, वारंगल, तेलंगाना

स्थानीय किंवदंती:

मल्लुर, वारंगल का यह क्षेत्र अपनी लाल मिर्च की पैदावार के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र से जुड़ी हुई प्रचलित किंवदंती है। एक गरीब किसान था जिसके पास धन बिल्कुल नहीं था सिवाय मिर्च के एक पौधे के। किसान ने उस पौधे से कुछ मिर्च उगाई और भगवान नरसिंह स्वामी की इस मूर्ति को अर्पित कर दी। तब से इस क्षेत्र की मिर्च उत्कृष्ट किस्म की और सबसे अधिक उगाई जाती है। 




भगवान नरसिंह देव

इतिहास:


नरसिंह स्वामी मंदिर का पहला प्रमाण देखा हुआ प्रमाण 6वी सदी का है जबकि मंदिर तकरीबन 5000 वर्ष पुराना है। अगस्त्य ऋषि ने इस पर्वत को हेमाचल् नाम दिया था। इसी स्थान पर भगवान राम ने खर और दूषण समेत 14000 राक्षसों का वध भी किया था। तथा यह क्षेत्र दशानन रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा को उपहार स्वरूप भेंट दिया था।


 नरसिंह देव की मूर्ति के प्राकट्य की कथा कुछ रहस्यों से घिरी हुई है। हेमाचल की पहाड़ियों में भगवान की मूर्ति एक तेज प्रकाश के फैलने के बाद खोजी गयी थी। यह मंदिर मल्लुर के सागर गांव में स्थित और यहां के निवासी बताते हैं कि यहां पहले अनायस कभी भी आग लग जाया करती थी। फिर पंडितों ने बताया कि भगवान नरसिंह उग्र रूप लिए हुए और उनके तेज के कारण आग लग जाती थी। इसका निवारण भगवन को यःज्ञ- अनुष्ठान से प्रसन्न कर शांत किया गया और आग लगने की घटना पर विराम लगा।




लक्ष्मी नरसिंह स्वामी मंदिर


लक्ष्मी नृसिंह स्वामी मंदिर समुद्र से 1500 फ़ीट ऊपर हेमाचल की पहाड़ी पर घने पुत्तकोंडा जंगलों के बीच स्थित है। प्रभु दर्शन करने के लिए 150 सीढियां चढ़नी पड़ती है। नरसिंह मंदिर के रास्ते मे बजरँगबली को समर्पित मंदिर भी आता है। इस मंदिर ने बजरंगी शिखानजने के रूप में विराजे है। शिखानजने इस मल्लुर क्षेत्र के क्षेत्रपाल(राजा) कहलाये जाते हैं।




 

विष्णु अवतार नरसिंह की मूर्ति ज्वालामुखी पर्वत में स्वयम्भू प्रकट हुई थी। नरसिंह स्वामी कक विग्रह 9.2 फ़ीट का है। इस हैरत के देने वाली मूर्ति के अलावा संसार में ऐसी कोई देव प्रतिमा नहीं जो किसी मानव शरीर जैसी नरम हो। यहां के पुजारी बताते है कि इस मूर्ति में अगर कोई अपनी उंगली दबाता है तो उस गड्ढे के निशान उंगली उठाने पर साफ दिखाई देते है। मूर्ति के शरीर पर मानव जैसे बाल भी देखे जाते हैं। पूरे पर्वत की जांच-पड़ताल करने पर भी एक भी दूसरा कोई ऐसा पत्थर ना मिला जी भगवान की मूर्ति जितना मुलायम हो। यह ताज्जुब कर देने वाली बात आज भी शोधकर्ताओं के लिए बड़ा विषय बना हुआ है। 


भगवान की नाभी से पवित्र जल निकलता है। पुजारी नाभि की हल्दी का लेप से लगाये रहते हैं। भक्त इसे पवित्र तीर्थम मान अपने साथ ले जाते हैं। इसमें अनेक बीमारियाँ और पाप ठीक करने की चमत्कारिक शक्ति मानी जाती है। जब रानी रुद्रमादेवी एक भयानक रोग से ठीक नहीं हो पा रही थी तब एक वैद्य के सुझाव पे भगवान नरसिंह के दिव्य तीर्थम जल का सेवन कर ठीक हो गयी। इस जल को कोनेरू कहा जाता है। इसकी सुगंध चंदन जैसी होती है सो इसे "चंदना ध्वरम" कहा जाता है। विदेश से आनेवाले भक्त भी इसे अपने साथ बोतल में बंद कर ले जाते हैं। इस जल की धारा का अंत कहाँ होता है इसका आज तक ज्ञान किसी को ना हुआ।






मंदिर शाम 5 बजे के बाद बंद कर दिया जाता है क्योंकि भगवान नरसिंह स्वयं इस क्षेत्र में सिंह रूप में घूमते है। सिंह की दहाड़ यहां मंदिर अगल-बगल वन क्षेत्र में सुनी जाने का दावा किया गया है। 


राज्य सरकार ने इस विस्मय कर देनेवाले धाम को अभी तक ज़्यादातर बाहर की जनता को अनभिज्ञ कर रखा है। मंदिर आज भी तेलंगाना राज्य सरकार के कब्जे में है। मंदिर को जड़ी-बूटियों की जैव विविधता क्षेत्र की श्रेणी में रखा गया है। 


हर 12 वर्ष होनेवाले गोदावरी पुष्कर मेले का आयोजन किया जाता हैं। सन् 2003 के मेले में मंदिर का पुनरूत्थान किया गया था। 


 त्यौहार और उत्सव:


मंदिर में वैकुंठ एकादशी, श्री ब्रह्मोत्सवम और नरसिंह जयंती विशेषतः मनाई जाती है। लाखों की संख्या में इन तिथियों पर भक्त मंदिर नरसिंह भगवान की झलक पाने पहुँचते हैं। 

 

मंदिर गर्भ-गृह


मंदिर दर्शन समय सारिणी:


रविवार से शनिवार सुबह 8 से ही बजे तक शाम 3 से 5 बजे तक।

  

पूजा और सेवा का समय:


सुप्रभातम -  सुबह 4 से 4:30 बजे तक

बिंदर तीर्थम - सुबह 4:30 कम से 5 बजे तक 

बाल भोगम - सुबह 5 से 5:30 बजे तक 

निजभिषेकम- सुबह 5:30 से 6:30 बजे तक

अर्चन- सुबह 6:30 से 7:15 बजे तक

दर्शन- सुबह 7:15 से 11:30 बजे तक


मल्लुर अन्य मंदिर:


मल्लुर में लक्ष्मी नरसिंह मंदिर के अलावा मलाग्नि मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर, समक्का सरलम्मा मंदिर और श्री रामलिंगेस्वर मंदिर भी दर्शनीय है।


लक्ष्मी नरसिंह मंदिर कैसे पहुँचे:


मंदिर से सबसे निकट हवाई अड्डा हैदराबद का शमशाबाद हवाई अड्डा है। 


सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन मानुगुरु रेलवे स्टेशन है।


सड़क मार्ग से एडुलपुरम रोड पर वारंगल के लिए बहुत सारी बसे और प्राइवेट गाड़ियां उपलब्ध रहती है ।






✒️स्वप्निल. अ

(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


बुधवार, 11 अक्टूबर 2023

चांगु नारायण मंदिर, भक्तापुर, नेपाल

 किंवदंती: 


 नेपाल के प्राचीन रहस्यमय मंदिरों में से एक चांगु नारायण मंदिर भक्तापुर जिले के डोलागिरी या चांगु पर्वत पर स्थित है। चांगु पर्वत पूर्व दिशा में नेपाल की राजधानी काठमांडू से 12 किमी दूर है। यह क्षेत्र चमपक वृक्षों से भरा हुआ है जिसमें चांगू गाँव आता है| पर्वत के बगल से मनोहर नदी गुज़रती है जिससे मंदिर और उससे लगी घाटी का दृश्य विहंगम नज़र आता है। 


चांगु मंदिर में सारे देवी-देवताओं की 100 से अधिक मूर्तियाँ, चित्र और नक्काशियों के दर्शन किये जा सकते हैं। नेपाल के प्राचीन मंदिरों की सूची में चांगु मंदिर सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में है और इसका कारण यहां सारे आराध्य देवों की गढ़ी हुई मूर्तियाँ का होना। चांगु मंदिर में भगवान गरुड़ विष्णु(मुख्य देवता) को नेपाल के बौद्ध हरिहर वाहन के नाम से पूजते हैं।

 

चांगु नारायण मंदिर


प्राचीन किंवदंती:


इस कथा का लिखित प्रमाण किसी ग्रँथ में स्पष्ट नहीं मिलता है। यह मान्यताएं सदियों से चली आ रही हैं। एक समय मे एक ग्वाले ने सुदर्शन नामक ब्राह्मण से एक अति दुधारू गौ लायी थी। ग्वाला गौ लेकर रोज़ चंपक वृक्षों के नीचे चांगु गांव में चरवाने ले जाया करता था। हर रोज़ गौ माता जिस पेड़ की छाया के तले चरा करती थी उस पेड़ के नीचे दूध पीने एक लड़का आ जाया करता था उस गौ का दूध पीने। अचानक एक दिन जब ग्वाला गाय को वापिस घर ले आया और दूध निकलना शुरू किया तो दूध कुछ ही मात्रा में निकला। उदास हो कर वह वापिस ब्राह्मण सुदर्शन के पास पहुँच कर व्यथा सुनाई। भरपूर मात्रा में दूध ना निकलते हुए सुदर्शन ने स्वयं देखा। 


अगले दिन दोनों ने चंपक वन में गाय को चरते समय नज़रे लगा के देखा। एक वृक्ष के पीछे छुप शांति से गाय को देखते रहे। तभी एक काले रंग का लड़का वहां आया और गाय का दूध पीना शुरू कर दिया। सुदर्शन और ग्वाले को आभास हुआ उस लड़के में अवश्य कोई असुर होगा और उसकी आत्मा चंपक वृक्ष में बसती होगी। ब्राह्मण सुदर्शन ने चंपक वृक्ष काटने की सोची और जैसे ही पहला वार कुल्हाड़ी से किया तो वृक्ष से रक्त की धारा बहने लगी। उस दृश्य से भयभीत हो कर दोनों को लगा उनसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है और दोनों रोने लगे। उन्हें रोता देख उस वृक्ष से भगवान विष्णु प्रकट हुए और सारा रहस्य सुनाया। 


भगवन बोले कि इस घटना में उनका कोई दोष नहीं था। काफी समय पहले स्वयं उनसे एक महापाप अनजाने में हुआ था। उनके हाथों सुदर्शन के पिता की हत्या अनजाने में हो गयी थी। इस कृत्य का उन्हें श्राप लगा। उन्हें सारी पृथ्वी का गरुड़ पर भृमण कर इस स्थान पर अंत मे आना पड़ा। यह क्षेत्र चांगु के नाम से जाना जाता है। भगवन ने अंत मे बताया  कि उस वृक्ष पर प्रहार कर के उनका शापोद्धार कर दिया गया है।


यह सब सुन ग्वाला और सुदर्शन प्रसन्न हो भगवन को नमन करने लगे और चांगु के वन में विष्णु जी की आराधना के लिए मंदिर बनाया। इस मंदिर में आज भी सुदर्शन ब्राह्मण के वंशज मंदिर के पुजारी ही पूजा करते पाए जा सकते हैं। ग्वाले के वंशज भी यहां रहते है जिन्हें चांगु घुटीयार कहा जाता हैं। 


मंदिर:


सन् 325 में लिच्चवी वंश रियासत के राजा हरि दत्त वर्मा द्वारा बनवाया गया था। इसके पश्चात मंदिर में अनेक निर्माण कर हुए और नेपाल की धरती भूकंपों से डोलती रही। उनक्स सदियों में मंदिर कभी भी बड़े पैमाने पे क्षतिग्रस्त नहीं हुआ। फिर मंदिर एक भयंकर आग की चपेट में आकर पूरी तरह ध्वस्त हो गया और 1702 में इसका पुनः निर्माण करवाया गया। 


माता छिन्नमस्ता मंदिर


 चांगु नारायण मंदिर नेपाल के सबसे प्राचीनतम कला और वास्तुकला का उदाहरण है। मंदिर पगोड़ा और शिखर वास्तुकला का अद्धभुत मेल कर के बनाया गया है। ऊंचे पत्थर पर बने चबूतरे पर मंदिर की दो मंजिला इमारत खड़ी है। मंदिर के चारों दरवाजे पौराणिक पशुओं की मूर्तियों से घिरे हुए हैं। 


नेपाल के ही एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर, गोकर्ण महादेव मंदिर की तरह ही चांगु मंदिर का निर्माण हुआ है। भगवान नारायण के 10 अवतार मंदिर के दर्शन किये जाते है। दशावतार मूर्तियाँ मंदिर की छत सम्भाले हुए हैं। मंदिर का पश्चिम गेट(और यही मुख्य द्वार भी है) से आने पर एक विशाल स्तम्भ बना है जिस पर प्रभु नारायण के 4 चिन्ह: गदा, चक्र, कमल और शंख गढ़े हुए हैं। मुख्य प्रवेश द्वार पर भव्य नाग देवता मंदिर के समक्ष आने पर शोभा बढ़ाते हैं। 


मंदिर के गर्भ-ग्रह में गरुड़ नारायण की मूर्ति है, किंतु इनके दर्शन केवल मंदिर के पुजारी ही कर सकते हैं 


चांगु मंदिर नेपाल देश की अमूल्य प्राचीन धरोहरों में से एक होने के कारण विश्व धरोहरों में से शामिल किया गया है। 


मंदिर में नाग पंचमी और हरि बोधनी मुख्य रूप से मनाए जाते हैं। 


प्रमुख आकर्षण:


रुद्राक्ष वृक्ष: प्रभु शंकर के आंसू जिसे रुद्राक्ष कहा जाता है, रुद्राक्ष वृक्ष, मंदिर में आनेवाले भोले बाबा के श्रद्धलुओं को विशेषतः लुभाता है।  


मंदिर के पूर्वी द्वार से आंगन में प्रवेश करते ही कुछ अचंभित कर देने वाले स्मारक बने हैं।


  1. राजा मानदेव द्वारा सन् 464 AD में बनवाया गया ऐतिहासिक विष्णु विक्रांत स्तम्भ। 


  1. भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ की प्रतिमा।


  1. चंदा नारायण/ गरुड़ नारायण स्मारक गरुड़ पर विराजे भगवान विष्णु है (यह मूर्ति नेपाल की राष्ट्रीय मुद्रा पर भी अंकित है)। 


  1. नौंवी सदी में बनवाई गयी पथपीठ पर बैठी भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी और गरुड़ की मूर्ति  जिसे श्रीधर विष्णु कहा जाता है।


  1. सोलहवीं सदी में बनवाई गई ललितासन मुद्रा में "वैकुंठ विष्णु" की मूर्ति मन प्रफुल्लित कर देने वाली है। इस मूर्ति में गरुड़ के छः हाथ है और माता लक्ष्मी भगवान विष्णु की गोद में बैठी हुई हैं। 


  1. कुरूक्षेत्र के महाभारत युद्ध मे भगवान श्री कृष्ण के विश्वरूपम की मूर्ति। 


  1. दशम्  महाविद्याओं में से एक माता छिन्नमस्ता की मूर्ति।  


  1. सातवीं सदी में बना भगवान नरसिंह का स्मारक। 

 

  1. महादेव का दो मंजिला छोटा मंदिर किलेश्वर शिव नाम से बुलाया जाता है। माना जाता है कि महादेव ने यहां दर्शन दिए थे और इस क्षेत्र की रक्षा करते हैं। 


  1. भगवान विष्णु के पांचवे अवतार वामन और राजा बली के संवाद में बनाया स्मारक। 







गरुड़ पर विष्णु

राजा मानदेव स्तम्भ


 
विष्णु विक्रांत

गरुड़ देव





नरसिंह देव 

2015 का भूकंप:


सन् 2015 में आये भयानक  भूकंप ने चांगू मंदिर की प्राचीन भव्यता को नष्ट कर दिया। जीर्णोद्धार होने के बावजूद मंदिर अपनी पुरानी अद्वित्ययता नहीं ला पाया। मुख्य मंदिर को छोड़, मंदिर संग्राहालय और बाकि हिस्सा नष्ट हो गया। श्री कृष्ण मंदिर भी भारी तरह से शतिग्रस्त हो गया था।


खतरे और चुनौतियों:


मनोहर नदी के तट के निकट अधिक पत्थर और रेत के अधिक खनन की वजह से मंदिर और आसपास के क्षेत्र पर खतरा बढ़ गया है। चंपक वन में अत्यधिक चराई की वजह से भू स्खलन की घटनाएं होती रहती हैं। यह सब रोकने में स्थानीय प्रशासन नाकामयाब रहा है।


जानकारी केंद्र:


चांगु गांव के अंदर प्रवेश पर चांगु मंदिर और गांव घूमने के लिए जानकारी केंद्र में जाके टिकट की पर्ची खरीदनी पड़ती है। यहां पीने के पानी के नल की सुविधा उपलब्ध है। एक दिन मैं केवल 150 विदेशी नागरिक ही चांगु गांव आ सकते हैं। 


  कैसे पहुँचे:


चांगु नारायण मंदिर आने के लिए प्रमुख रूप से दर्शनार्थी भारत और विदेश से आते है। 


चांगु मंदिर की काठमांडू से दूरी 20 किमी है। इसे 1 घण्टे के भीतर पूरा किया जा सकता है। काठमांडू से भक्तापुर जिले के लिए प्राइवेट कैब न्यूनतम शुल्क पर चलती है। 


✒️Swapnil. A


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

बुधवार, 30 अगस्त 2023

अथि वरदराज पेरुमल मंदिर, काँचीपुरम

 


अत्थि वरदराज पेरुमल मंदिर प्रवेश

पौराणिक कथा:


पहली कथा:

पुराणों के अनुसार सत्युग में एक समय ब्रह्माजी इस नगर में यज्ञ करने पधारे किंतु माँ सरस्वती के उनसे रुष्ट हो जाने के कारण उन्हें अपने संग नहीं लाये। यज्ञ करने के लिए ब्रह्याजी अपनी अन्य पत्नी माँ गायत्री के साथ यज्ञ करने लगे तो माँ सरस्वती क्रोधित हो यज्ञ को बाधित-नष्ट करने की ठानी। सरस्वती वेगवती नदी के रूप में प्रकट हो तीव्र वेग से बहने लगी। ब्रह्माजी ने विष्णु जी की प्रार्थना कर उपाय पूछा तो भगवान विष्णु कांचीपुरम में शयन मुद्रा में यज्ञ और वेगवती नदी के बीच विराज गए। भगवान ब्रह्मा के यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने वर दिया और कांचीपुरम में स्थापित होकर वरदराज के रूप में पूजे जाने लगे। (तमिल 'वरद'=वरम)


दूसरी कथा: 


एक दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार एक बार जब भृंगी ऋषि के दो पुत्र गौतम ऋषि के गुरुकुल में पढ़ रहे थे तब अनजाने में उन्होंने पूजा अनुष्ठान के लिए जो जल लाया उसमें छिपकली गिर गई थी। गौतम ऋषि ये देख क्रोधित हो उठे और दोनों भाइयों को छिपकली बन जाने का श्राप दिया। क्षमा मांगने पर ऋषि ने शांत हो कर इसका उपाय कांचीपुरम नगरी में केवल भगवान विष्णु कर सकते है। भगवान ने उन दोनों भाइयों का यहां उद्धार कर शाप मुक्त किया। ऐसी पुरानी मान्यता है, जो कोई भी इस मंदिर में सच्चे मन से यहां दीवार पर उत्कीर्णन कर बनाई गई चांदी और सोने की छिपकलियों को छू कर प्रार्थना करता है उसकी सारी बीमारियों दूर हो जाती हैं। 


वरदान देने के कारण भगवान विष्णु को वरदराज यानी वर देने वाले राजा के रूप में यहां पूजा जाता है। 


इतिहास:


कांचीपुरम एक प्राचीन नगरी है। दक्षिण भारत के इस मनोहारी नगरी में लगभग 1000 मंदिरों का भूल-भुलैय्या हैं, इसीलिए इसे दक्षिण का बनारस भी कहा जाता है। इन मंदिरों में सन्यासी-कवि जिन्हें अलवर कहते है, भजन किया करते थे। वरदराज पेरुमल मंदिर सबसे पुराना उल्लेख तीसरी शताब्दी(AD) का मिलता है किंतु आज जो मंदिर का ढांचा हम देख रहे हैं इसका निर्माण चोला राजाओं द्वारा 9वी सदी में बनकर पूरा हुआ। सन् 1053 में मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।  यहां तमिल भाषा मे 350 श्लोक उकेरे गए है जिसमें       

चोल, पांड्य, कंदवराय, चेरा, काकतीय, सांबुवराय, होयसल और विजयनगर साम्राज्यों की छाप साफ देखी जाती हैं। इन राजवंशों ने समय-समय पर मंदिर की वास्तुकला में अपना योगदान प्रदान किया था।


विशिष्टाद्वैत वैष्णव मत के परम्पूज्य संत रामानुज ने इस मंदिर में अपने जीवन के कुछ वर्ष व्यतीत किये थे। वरदराज पेरुमल मंदिर वैष्णवों के पवित्रतम धामों में से एक है और वैष्णव साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता हैं।


सन् 1688 में मुग़लों के दक्षिण की तरफ आक्रमण की वजह से मंदिर में भगवान की प्रमुख तस्वीर को उदयारपालयम , तिरुचिरापल्ली में भिजवा दिया गया था। जनरल टोडरमल के अंदर काम करनेवाले कुछ लोगों की सहायता से से भगवान की उस तस्वीर को वापिस लाया गया था। अंग्रेजी उपनिवेश की शुरुआत में भारत के पहले गवर्नर रोबर्ट क्लाइव ने यहां मनाए जानेवाले गरुड़ सेवा उत्सव पर एक बहु मूल्य हार (क्लाइव महारकांडी) मंदिर में भेंट की थी। विशेष उत्सवों पर आज भी उस हार से भगवान को सजाया जाता है।

 


मंदिर:


अत्ति वरदराज पेरुमल मंदिर 23 एकड़ में बनवाया गया है। लगभग 1800 वर्ष पुराने इस मंदिर की भव्यता इसकी जटिल वास्तुकला के लिए जानी जाती है। कांचीपुरम के अन्य मंदिरों की तरह ही विश्वकर्मा स्थापथियों के कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण है। 


भगवान पेरुमल स्वामी की मूर्ति के दर्शन को जानेवाले रास्ते में 24 सीढ़ियां आती है। वह 24 सीढ़ियां गायत्री मंत्र में 24 अक्षरों को चिन्हित करते है। मंदिर के भीतर के गर्भ गृह को ही अत्तिगेरी मंदिर बोला जाता हूं क्योंकि यही मंदिर के प्रमुख देवता है। मंदिर भगवान नरसिंह एक बनाई गई पहाड़ी पर विराजे हैं।


यहां आने वाले भक्त अक्सर मंदिर के 100 स्तम्भों के रहस्य को नजरअंदाज कर देते हैं। यह स्तम्भ अपनी जगह पर रहते हुए घूमते हैं और इनसे ध्वनि सुनाई देती है। मंदिर में रामायण और महाभारत की कहानियाँ को सुंदरता के साथ शिल्पकारों ने उकेरा है। मंदिर के हॉल के बाहर के चारों कोनों पे लटकती लोहे की मोटी सनकलें दर्शनार्थियों का ध्यानाकर्षण करती हैं।




40 वर्ष दर्शन अंतराल:


अथि वरदराज मंदिर से जड़ा विस्मय कर देने वाला एक सबसे अनूठा सत्य है; यहां भगवान विष्णु की 10 फ़ीट लंबी अंजीर(अत्ति/Fig) की लकड़ी से बनी मूर्ती हर 40 वर्ष में दर्शन के लिए "अंनत तीर्थम सरोवर" के अंदर से बाहर निकाली जाती है। इसे मंदिर के वसंता मण्डपम भाग में दक्षिण-पश्चिम दिशा में अड़तालीस दिन यह इस मूर्ति की पूजा की जाती है। मूर्ति 24 दिन खड़ी और 24 दिन शयन मुद्रा में विराजित रहती है। इसके पश्चात भगवन को पुनः "अनंत तीर्थम" सरोवर के एक गुप्त कक्ष में जलमग्न कर दिया जाता है। रहस्यमय बात ये है कि 4 दशक अंदर रहने के बाद भी आज तक मूर्ति का मूल स्वरूप में रत्ती भर बदलाव नहीं आया और ना ही मूर्ति की लकड़ी सड़ी है। 


इन 48 दिनों के बाद चालीस वर्षों तक वरदराज की पत्थर के विग्रह की पूजा की जाती है। इतिहास को देखें तो पता चलता है यह परंपरा को शरुआत मुगलों के दक्षिण में आक्रमण को देखते हुए शुरू को गयी थी। उसके पहले केवल अंजीर की मूर्ति को पूजा में किया जाती थी। आक्रमण के समय नुलसान से बचाने के लिए मूर्ति को अंनत सरोवर में छुपा दिया गया और फिर काफी दशकों तक लुप्त मान ली गयी। एक दिन 1709 में मूर्ति अंनत सरोवर की सफाई करते समय खाली करने पर अचानक प्रकट हुई और फिर इस परंपरा का पालन किया जाना शरू हुआ।


आखरी बार 1 जुलाई से 17 अगस्त 2019 में वरदराज ने दर्शन दिए थे और अब पुनः दर्शन 2059 में देंगे। 









छिपकली मंदिर:


भगवान वरदराज पेरुमल के गर्भ गृह के प्रवेश के लिए जाने वाले रास्ते के पहले, बाहर मंदिर की छत पर दो छिपकलियां, सोने और चांदी में गढ़ी हुई है। साथ ही सूर्य और चंद्रमा भी गढ़े हुए हैं। इन्हें छू कर भक्त भगवान के दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं। 




भारत में सनातन के मंदिरों में छिपकली की मूर्तियों के दर्शन करवाने वाला केवल यही एक मात्र मंदिर नहीं है। कर्नाटक में बल्लिगवी नाम से एक और मंदिर अपनी छिपकली की मूर्ति के लिए कर्नाटक वासियों में प्रसिद्ध है। 


छिपकलियों का हिंदू सनातन मंदिरों और पुराणों से कड़ियाँ आज की दुनिया से सम्बंध में यूट्यूब पर पाठक प्रवीन् मोहन जो एक हिन्दू मंदिर अध्ययन करता है, इनके वीडियो से इस रहस्य के बारे में गहराई से जानकारी ले सकते है। 


मेर अपना अध्ययन प्रवीन मोहन के मत से काफी मिलता है। यह छिपकलियां बास्तव में प्राचीन भारत में मनुष्यों के साथ आधे सरीसृप-आधे मनुष्य रूप में रहा करती थी। हम श्रीमद्भागवत, रामायण और कितने सारे पुराणों में नागों के बारे में सुनते और पढ़ते हैं, वास्तव में यह नाग आकार और शरीर बदलने में बहुत सक्षम थे। यह मनुष्यों को उनके व्यवहार के अनुकूल लाभ और हानी पहुँचा सकते थे। 


थिरुक्काची नंबीगल:


मंदिर से जुड़े एक महान विष्णु भक्त थिरुक्काची नंबीगल (दूसरा नाम कांची पूर्णार) हुए थे। उनकी विष्णु भक्ति से वैष्णव सम्प्रदाय के  रामानुज भी प्रभावित थे। नंबी ने एक संस्कृत कविता देवराजाष्टकम् का सृजन किया था। इनकी भक्ति और काव्य से रामानुज को वरदराज से जुड़े छः प्रश्नों के उत्तर भी मिल गए थे। 


नंबी ने पूवीरूंधवल्ली में एक बगीचा बनाया था। प्रतिदिन वहीं से पुष्प लाते थे। प्रभु की सेवा के समय हाथों के पंखे से अलवत्ता कंगारियम किया करते थे। इस परंपरा का आज भी पालन किया जाता हैं। सेवा करते समय भगवान वरदराज नंबी से वार्तालाप किया करते थे। 


त्यौहार:


वरदराज मंदिर में भ्रमोत्सवम एक बड़ा और विशेष पर्व है जो हर वर्ष मई/जून महीने में हज़ारों भक्तों द्वारा मनाया जाता है। इस उत्सव में विशाल छत्रियाँ प्रयोग में लायी जाती है। त्यौहार का आनंद गरुड़ वाहनं और थेर थिरुविल्ला रथ यात्रा निकलने पर चौगुना हो जाता है।



कैसे पहुँचे:

तमिल नाडू की राजधानी चेन्नई, कांचीपुरम से 75 किमी दूर है। चेन्नई बस अड्डे से तमिल नाडु राज्य परिवहन की बसे कांचीपुरम के लिए सूर्योदय के पश्चात 7 बजे से उपलब्ध रहती है। 

सड़क के रास्ते 2.5 घण्टे का समय लगता है। प्राइवेट कैब और टैक्सी सेवा के लिए सेवाएं 24*7 रहती है । 


चेन्नई हवाई अड्डे से देश और विदेश के लिए उड़ाने दिन रात भर्ती हैं।


✒️Swapnil. A


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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