भगवान जगन्नाथ की पृरी मंदिर सदियों से रहस्यों से भरा हुआ है। जगन्नाथ मंदिर को साक्षात वैकुंठ धाम भी कहा जाता है क्योंकि मंदिर में एक बार भगवान् के दर्शन कर लेने से मृत्यु पश्चात् प्रभु चरणों की प्राप्ति होती है।
Translate
शुक्रवार, 31 मई 2024
यमशिला का रहस्य

शनिवार, 11 मई 2024
योगमाया मंदिर,मेहरौली,दिल्ली

रविवार, 5 मई 2024
माँ छिन्नमस्तिका मंदिर, रामगढ़, झारखंड
दस महाविद्याओं में पांचवी महाविद्या माँ छिन्नमस्ता का जागृत सिद्धपीठ झारखंड के रजरप्पा की मनोहारी सिकदरी घाटी में बसा है। रजरप्पा और रामगढ़ के निवासियों की कुल देवी माँ छिन्मस्तिका है। रामगढ़ गांव का यह क्षेत्र एक वनों से घिरा हुआ है। प्रकृति की गोद के मध्य बसे माता के मंदिर में मन तुरंत तन्मय हो जाता है।

बुधवार, 1 मई 2024
भोजपुर शिव मंदिर, रायसेन, मध्यप्रदेश
भोजपुर शिव मंदिर को प्राचीन भारत मे पूर्व का सोमनाथ भी बुलाया जाता था। प्राचीन भारत में यह मंदिर अपनी ऊंचाई और विशाल शिव लिंग के पूजन के लिये सर्व प्रसिद्ध था। वर्तमान समय मे भी मंदिर में पूजा अर्चना जीवित मंदिर परंपरा के अंतर्गत की जाती है। इस समय मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के अंदर संरक्षित है।

रविवार, 24 मार्च 2024
लाखमण्डल महादेव मंदिर, देहरादून,उत्तराखंड
लाखमण्डल महादेव मंदिर में भगवान शिव की महिमा चतुर युगों में विराजित शिवलिंगो के कारण प्रख्यात है। देवभूमि का एक और धाम जिसमे विराजित हैं चारों युगों के शिवलिंग। मंदिर और लाखमण्डल गांव की धरती के भीतर अनगिनत शिवलिंग मौजूद है।

मंगलवार, 12 मार्च 2024
पाताल भुवनेश्वर,पिथोरागढ़, उत्तराखंड
पौराणिक इतिहास:
पाताल भुवनेश्वर का इतिहास सतयुग से प्रारंभ होता है। स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 800 वें श्लोक में इस पवित्र गुफा के होने का विवरण मिलता है। भगवान शिव ने जब पुत्र गणेश का अनजाने में धड़ अलग कर दिया तो वह मानव धड़ इस गुफा में तब तक रखा गया था जब तक प्रभु ने श्री गणेश को गजेंद्र का धड़ न लगाया था। इसके साक्ष्य इस गुफा में एक गज के आकार की शिला के रूप में मिलते हैं।
पाताल भुवनेश्वर गुफा:
पाताल भुवनेश्वर गुफा समुद्र तल से 1350 फ़ीट ऊपर और 90 फ़ीट की गहराई में है। गुफा द्वार से 100 सीढियां उतरकर मंदिर के अंदर तक पहुंचा जाता है।कुल लंबाई 160 फीट है। भीतर प्रवेश करने से पहले बाहर एक शिवलिंग है जिसका भक्त दर्शन करना नहीं भूलते। गुफा के बाहर से लेकर अंदर नीचे तक लोहे की चेन बांध दी गयी है ताकि अंदर दर्शन करने जाने वाले आगन्तुक रास्ता भूल या नहीं जाएं। पूर्ण रूप से गुफा के विद्युतीकरण हो रखा है। गुफा चूना पत्थर की प्राकृतिक संरचना है जो करोड़ों वर्षों से धरती में होने वाले भूगर्भीय हलचल और रासायनिक बदलावों के बाद बनते हैं।
कलयुग में इस गुफा को आदि गुरु शंकराचार्य ने ढूंढा था। गुफाओं को धार्मिक महत्वता देने और जीर्णोद्धार करने में चन्द्र और कत्यूरी राजाओं का योगदान रहा है। इन दो राजाओं के समय से मंदिर में भंडारी पुजारियों को पूजा करने का अधिकार दिया गया था। पाताल भुवनेश्वर की गुफा में मुख्य रूप से केवल भगवान शिव के लिंग की पूजा होती ही। इस शिवलिंग को आदि गुरु शंकराचार्य द्वार स्थापित है। इस शिवलिंग की पूजा हर सवेरे मंदिर के पुजारी 6 बजे विधिवत करते हैं।
भगवान शिव की जटाओं का रूप बड़ी लंबी शिलाओं में देखने मिलता है।मंदिर गुफा के प्रवेश द्वार से ही सर्प जैसी आकृति दिखाई देने लगती है। जैसे किसी सर्प की रीढ़ की हड्डी और शरीर की चमड़ी हो।
फिलहाल मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। इसके रखरखाव का कार्य जारी है।
गुफा मंदिर साल भर में बारिश के महीनों में बंद रहता है। सबसे उत्तम समय यहाँ दर्शन के लिये ग्रीष्म ऋतु है।

शनिवार, 17 फ़रवरी 2024
मोढेरा सूर्य मंदिर, मेहसाणा, गुजरात
पौराणिक इतिहास:
गुजरात के मेहसाणा जिले के मोढेरा के सूर्य मंदिर का इतिहास त्रेतायुग में लंका दिग्विजय पश्चात् के समय का माना जाता है। प्रभू श्री राम अपने गुरु वशिष्ट ऋषि के आदेश पर इस स्थान पर आए थे; रावण वध से हुए ब्राह्मण हत्या के पाप प्रायश्चित किया था। इसका वर्णन स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण में मिलता है। उस समय इसे 'धर्मारण्य' नाम से जाना जाता था। इसी स्थान पर श्री राम ने यज्ञ भी करवाया था।
इतिहास:
मोढेरा सूर्य मंदिर का निर्माण राजा भीम देव प्रथम ने सन् 1026-1027 CE के मध्य करवाया था। वे चालुक्य वंश के थे और इनके कुल देवता सूर्य देव थे जिस कारण वे सूर्य वंशी भी कहलाते थे। उस काल में गुजरात के इस भाग ने इस्लामी आक्रांताओं के अनेकों हमले झेले और अनगिनत मंदिरों का विनाश होते देखा। महमूद गज़नी सोमनाथ मंदिर में रक्तपात,लूट और विध्वंस करते हुए मोढेरा पहुँचा। मोढेरा मंदिर को बचाने के लगभग असफल प्रयास में तकरीबन 20,000 योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया। इतिहासकार ए.के.मजूमदार के अनुसार मोढेरा सूर्य मंदिर का निर्माण मोढेरा पर हुए हमले के बचने के उत्साह में बनवाया गया था। पश्चिमी दीवार के एक पत्थर पर लापरवाही से लिखे देवनागरी में सन् 1083 इसवी की तारीख लिखी है जो मंदिर बनने के असल वर्ष को 1026-27CE दर्शाता है। इसे पुख्ता प्रमाण नहीं माना जाता है क्योंकि इसके अलावा और कोई तारीख का वर्णन मंदिर के किसी दूसरे स्थान पर नहीं है। उस तारीख को मंदिर के निर्माण की जगह मंदिर के ध्वस्त की तारीख माना गया है। बाहर बने सरोवर का निर्माण पहले किया जा चुका था और इसके अंदर छोटे-छोटे मंदिर राजा भीम देव के सत्ता में लौटने के बाद बनाये गए थे। बारहवीं सदी के तीसरे भाग में राजा कर्ण द्वारा नृत्य मंडप जोड़ा गया था।
इस्लामी विध्वंस:
बारहवीं सदी में मंदिर आक्रांता अल्लाउदीन खिलजी ने हमला किया था। इस हमले में मंदिर में अधिक विध्वंस हुआ। खिलजी ने मंदिर के गर्भ से सूर्य देव की सोने की मूर्ति जो हीरे से जड़ित थी अपने साथ ले गया। बाकी मूर्तियाँ भी तोड़ी गयी और मंदिर की दीवारों पर बने देवी देवताओं के सुंदर शिल्प खंडित हो गये।
मोढेरा सूर्य मंदिर:
मोढेरा सूर्य मंदिर उस समय मध्य भारत की प्रचलित गुर्जर-मारू शैली में बनाया गया था। मंदिर को बनाने में ग्रेनाइट के पत्थर का उपयोग है किंतु चूने का उपयोग इंठों को चिपकाने के लिए नहीं किया गया है।इस मंदिर का विमान आड़ा बनाया गया था और शिखर मेरु पर्वत जैसा जो काफी सदियों पहले गिर चुका था। मंदिर का आधार उलटे रखे कमल के आकार पर बना है। मंदिर के तीन भाग है, गर्भ-गृह, सभामंडप, और कुंड। गर्भ-गृह गूढ़ मंडप का भाग है।
गर्भगृह की लंबाई अंदर से 51 फ़ीट 9 इंच और चौड़ाई 25 फीट 8 इंच है। यह तीनों, मंदिर संकुल का अक्षीय गठबंधन है। सभामंडप गूढ़मंडप के समककक्ष नहीं है बल्कि अलग बना है। इन दोनों को छत लंबे समय पहले गिर गयी थी, अब केवल नीचे का भाग बचा है। मंदिर के बाहर की तरफ की दीवारों पर कई देवी-देवताओं के शिल्प खंडित है। हिंदू परंपरा अनुसार एक खंडित मंदिर में पूजा कभी नहीं होती है।गूढ़मंडप की बाहरी दीवार पर तीन खिड़कियां बनी है। बगल में सूर्य देव की मूर्ति रथ में अश्वों द्वारा खींचते हुए बनी है। और तो और सूर्य की अलग-अलग मुद्राओं में मूर्तियाँ बनी है जो सूर्य की प्रति महीने रहने वाली स्तिथि को दर्शाती है।
सभामंडप में 52 स्तम्भ है जो एक वर्ष में बावन हफ़्तों का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। साल के 365 दिनों के प्रतिनिधित्त्व के लिए 365 हाथी बने हैं। स्तम्भों को देखने पर मंदिर नीचे की ओर से अष्टकोणाकर और ऊपर से देखने पर गोल दिखाई देता है। मंदिर के अंदर और बाहर मूर्तियों को बारीकी से तराशा गया है। इन मूर्तियों में समस्त हिंदु देवी-देवताओं को उनके वाहन के साथ बनाया गया है। जैसे अग्नि देव को भेड़ के साथ दिखाया गया है। आंठ दिशाओं के दिगपालों की मूर्तियों को उनकी दिशाओं के अनुसार स्थान पर शिल्पित किया गया है। भगवान सूर्य की एक मूर्ति गर्भगृह की बाहर की दीवार पर दोनों पत्नीयों, छाया और संध्या के साथ दिखाया है। सभामंडप के अंदर ध्यानाकर्षण करते है, रामायण, महाभारत के प्रसंगों को सटीकता उकेरा गया है।
मंदिर न केवल अभियांत्रिक पक्ष से उत्कृष्टता की निशानी है बल्कि धर्म और अध्यात्म के संगम को रोचकता से समझाने के लिये भी निर्मित है।इस समय मंदिर का रख रखाव भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा किया जा रहा है। मंदिर राष्ट्रीय स्मारकों की सूची में शामिल है और यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर की सूची में दिसम्बर 2022 में शामिल किया गया था।
सूर्य मंदिर विज्ञान और रहस्य:
मोढेरा के सूर्य मंदिर की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस मंदिर के गर्भगृह पर साल के दो दिन - 21 मार्च और 21 जून को सूर्य की किरणे सीधी गिरती है। साल का सबसे लंबा दिन 21 जून(Summer Solstice) है जिसे अंग्रेज़ी में समर सोलस्टिस कहते है। और 21 मार्च(Equinox) के दिन, दिन और रात्री समान अवधि की होती है। सूर्य देव का यह मंदिर कोई साधारण मंदिर नहीं अपितु वैदिक खगोलशास्त्र की वेदशाला होने का अनुमान है। कर्क रेखा पृथ्वी पर 23.6° अक्षांश पर गुजरती है और मंदिर बीबी ठीक इसी दायरे में बनाया गया है। इन दो दिनों पर कोई व्यक्ति दिन के उजाले में खड़ा रहे तो उसकी या किसी भी वस्तु की परछाई धरातल पर नहीं दिखती है।पर्यटक इस बात को आंखोंदेखी कर अनुभव कर सकते हैं।
हर वर्ष पृथ्वी का अक्षीय झुकाव बदलते रहता है। फिर भी इस झुकाव का एक सीमित दायरा है। मोढेरा का मंदिर कुछ वर्षों में इस दृश्य की अनुभूति करता रहता है। अनुसंधानकर्ताओं ने इस पर समग्र शोध किया है किंतु मंदिर का हजार वर्ष पहले बिना किसी आधुनिक तकनीक के कैसे निर्माण हुआ यह कल्पना से परेह है।
गर्भगृह के नीचे कुछ अनुसंधानकर्ताओं द्वारा पता करने पर एक विशाल गढ़े के होने की जानकारी मिली थी जिसे अब बंद करके रखा गया है। उनके अनुसार इस गड्ढे में सूर्य देव की सोने की हीरों से जड़ित मूर्ति हुआ करती थी। यह मूर्ति हवा में किसी विद्युतीय उपकरण द्वारा मैग्नेटिक लेविटेशन प्रणाली से तैर सकती थी। सूर्यदेव की इस मूर्ति का क्या हाल हुआ इसकी कोई जानकारी नहीं है। हालांकि सोने की मूर्ति आदि बात केवल मिथ्या मनोरंजन के लिए गढ़ी गयी हो यह भी माना जा सकता है - वैसे ऐसी बात भारत के प्राचीन मंदिरों के संदर्भ में अगर कहि जा रही हो तो उसमें लेशमात्र सत्य तो होगा ही।
कर्क रेखा को मंदिर के मध्य से गुजरता दर्शाने के लिये मंदिर की बाहरी दीवार पर दो लकीरें खींची दिखाई देती हैं।
राम कुंड:
मंदिर के प्रमुख आकर्षणों में से एक इस कुंड को श्री राम कुंड, सूर्य कुंड और 'सीता नी चोड़ी' भी कहा जाता है। कीर्ती तोरण से होते हुए कुंड की तरफ रास्ता है। इसे चारों तरफ से पत्थरों से बनाया गया है।पश्चिम दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार है। कुंड आयताकार आकर का बनाया गया है। उत्तर से दक्षिण की ओर 176 फ़ीट और पूर्व से पश्चिम की ओर 120 फ़ीट क्षेत्र में है। कुंड के जल तक पहुँचने के लिये चारों ओर से छत बनी है जिसके नीचे से सीढियां है। इसमें 28 सीढियां हैं जो महीने के 28 दिनों का प्रतीक हैं। ब्रह्मांड में 27 नक्षत्रों को दिखाने के लिये राम कुंड में 27 छोटे-बड़े मंदिर भी बने है जिनमे वैष्णव देवों के विग्रह विराजीतहैं। कुंड के निर्माण के बाद इसमें सातों महाद्वीपों का जल एकत्रित कर मिलाया गया था।
मोढेरा नृत्य महोत्सव:
गुर्जरत पर्यटन विभाग द्वारा हर वर्ष मकर संक्रांति पर सूर्य देव के उत्तरायण होने पर मोढेरा सूर्य मंदिर के बाहर भव्य नृत्य कार्यक्रम किया प्रस्तुत किया जाता है। इसमें देश-विदेश के लोग भाग लेते हैं और देखने पहुँचते हैं।
मोढेरा सूर्य मंदिर कैसे पहुँचे:
मोढेरा सूर्य मंदिर से मेहसाणा रेलवे स्टेशन की दूरी तकरीबन 30 किमी है। यह दूरी 40 मिनट में प्राइवेट कैब या सरकारी बस द्वारा पूरी की जा सकती है।
मेहसाणा से सबसे नजदीक गुजरात का अहमदाबाद शहर है। यह दूरी 76 किमी है और 2 घण्टे में चार पहिया द्वारा पूरी की जा सकती है।
✒️स्वप्निल. अ
(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

रविवार, 4 फ़रवरी 2024
मेंढक शिव मंदिर, लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मेंढक मंदिर उत्तर प्रदेश का एक उत्सुक्ता से भर देनेवाला मंदिर है जिसका नाम सुनने से मन अचंभित हो कर दिमाग सोचने में लग जाता है। यह मंदिर अपना विचित्र इतिहास के लिए जुड़ा हुआ है।

बुधवार, 31 जनवरी 2024
तिलभांडेश्वर मंदिर, काशी, उत्तर प्रदेश
तिलभांडेश्वर नाम मात्र से संकेत मिल जाता है मंदिर के खास होने का। महादेव की नगरी काशी के प्रमुख शिव मंदिरों में से एक है तिलभांडेश्वर मंदिर। विश्वनाथ मंदिर के दर्शन के बाद यह शिव मंदिर भोलेनाथ को ध्यान, साधना,जप के लिये काशी में सबसे उत्तम मंदिर है।
इस मंदिर के पीछे का इतिहास भी इसके नाम कि ही तरह अनोखा और अनसुना है।

बुधवार, 10 जनवरी 2024
हरसिद्धि माता मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश
अवन्तिकापुरी उज्जैन में स्तिथ माँ हरसिद्धि मंदिर में माँ पार्वती का रूप विराजित है। उज्जैन नगरवासी उज्जैन में महाकाल को अपने पिता और माँ हरिसद्धि को नगर की रखवाली और पोषण करनेवाली मानते है।

सोमवार, 8 जनवरी 2024
श्री कालभैरव मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश
पौराणिक इतिहास:
कालभैरव मंदिर की पौराणिक कथा ब्रह्माजी के हठ्ठ से जुड़ी है। सत्युग के समय सृष्टि निर्माण और चार वेदों की रचना पश्चात्, ब्रह्माजी वेदों से भी विशाल ग्रँथ की रचना करने का मन बनाया है। भगवान शिव को ज्ञान हुआ और वे इस ग्रँथ की रचना का फल भलीभांति जानते थे। इस ग्रँथ के बनने से कलयुग अपने निर्धारित समय से पहले आ जाता। सो भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र के मध्य भौओं से बटुक भैरव को उतपन्न कर भगवान ब्रह्मा के इस कर्म को रोकने का कार्यभार सौंपा। बटुक भैरव ब्रह्माजी के पास जा कर बार-बार निवेदन किये। किंतु ब्रह्माजी उनको बालक समझ कर अपमान करते हैं। तब बटुकनाथ भैरव मदिरा का सेवन कर बड़े हो जाते हैं, काल भैरव रूप में आ जाते हैं। अपने एक उंगली के नख से ब्रह्माजी के 5 वे मुख का छेदन कर देते हैं। ब्रह्माजी का वह सिर बटुक भैरव के उंगली में फंस कर कट जाता है। बटुकनाथ ब्रह्म हत्या के दोषी हो जाते हैं और इस दोष के निवारण के लिए महादेव के पास जाते हैं। महादेव उन्हें संपूर्ण भारत के भ्रमण के लिए जाते है। ब्रह्माजी के मस्तक बटुक भैरव के हाथ से छूटकर जिस स्थान पर गिरता है वह स्थान फिर ब्रह्मकपालिक तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। उस स्थान पर ब्रह्मकपालिक क्रिया संपन्न हो जाती है किंतु ब्रह्म हत्या के पाप का निवारण नहीं होता और तब बटुक नाथ महाकाल वन(उज्जैन नगरी) आते हैं। यहां संकटमोचन घाट पर बैठकर स्नान करते हैं और शिव की आराधना कर दोष का निवारण होता है।
![]() |
पिंडी रूप में कालभैरव |
इतिहास:
कालभैरव मंदिर पुरातात्त्विक और लिखित इतिहास के अनुसार 2500 ईसा पूर्व का है। राजा भद्रसेन, इस स्थान के पास से युद्ध के लिए गुजरते समय रुके और भगवान कालभैरव से युद्ध में विजय प्राप्ति की मन्नत मांगी और विजयी होने पर भैरव जी के मंदिर का निर्माण करवाया। आगे चलकर राजा विक्रमादित्य के वंश में राजा भोज ने यहाँ पुनरुथान करवाया था। पेशवा-मराठों के युग मे मंदिर में कई सारे निर्माण और बदलाव किए गए थे।
कालभैरव मंदिर और रहस्य:
उज्जैन में भैरवगढ़ की पहाड़ी पर कालभैरव जी का रहस्यमय मंदिर बसा है। मंदिर पृथ्वी से 6 फ़ीट की ऊंचाई पर बना है। गर्भ गृह मे विराजे कालभैरव के एक गुंबदनुमा छत के नीचे है। भगवान पिंडी रूप में सिंदूर और कुमकुम से रंगी बड़ी-बड़ी आंखों के साथ और जीभ बाहर किये हुए हैं। भगवान पर मराठाओं द्वारा मुग़लों पर विजय प्राप्ति पश्चात लाल पगड़ी चढ़ाई गयी थी। तब से यह परंपरा आज भी कायम है।
यहीं से क्षिप्रा नदी मंदिर को छूते हुए गुजरती है। यह मंदिर मराठा और परमार वंश की नागर शैली का मिश्रित रूप में बनाया गया है। मंदिर में पाताल भैरव और गुरु दत्तात्रेय का मंदिर भी है। इसकी वास्तुकला परमार नागर और मराठा शैली में बनी है। मराठों के शासन काल के चरम पर पहुँचने पर मंदिर के दाएं ओर एक दीप स्तम का निर्माण मंदिर मे करवाया गया था। इसे संध्या होते ही प्रज्वल्लित किया जाता है। इच्छाओं की पूर्ती के लिए इस दीप स्तम्भ में भक्त सरसो के तेल का दिया जलाते हैं।
अवन्तिकापुरी के इस कालभैरव मंदिर को अत्यंत गुप्त मंदिरों में से एक माना गया है। ऐसा इसीलिए क्योंकि यह उन चंद मंदिरों म् से हैं जहां वाम मार्ग के नियमगत पूजा होती है। प्राचीन समय मे यहाँ विशुद्ध परंपरागत तरिके से तांत्रिक अनुष्ठानों में पंच मक्कारों (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा और मैथुन) में उपयोग किये जानेवली सामग्री होती थी। इसमें शव साधना जैसी भयभीत कर देनेवाली क्रियाएं भी की जाती थी। कुछ दशक पहले आम जनता के दर्शन के लिए 5 अनुष्ठानों में से केवल मदिरा का सतत भोग लगाया जा रहा है।
यहां आनेवाला हर श्रद्धालूँ कालभैरव को मदिरा का भोग चढ़ाता है। अचंभित कर देने वाली बात है की (उग्रता के प्रतीक) भैरवजी सारी शराब पी जाते है। इस पर अमरीकी, की स्पेस एजेंसी, नासा द्वारा भी फ़िजूल का शोध किया गया था जिसके कोई ठोस कारण उन्हें नहीं मिल पाए। सनातन धर्म के हर विषय को वैज्ञानिकता की कसौटी पर खड़ा रखकर तौलना पश्चिम का रवैय्या सदैव से मात्र सनातन को इस देश और इसकी संस्कृती को समाप्त करने के उद्देश्य से ही रहा है।
![]() |
दीप स्तम्भ |
पुराने समय मे मंदिर में देसी मदिरा का भोग लगाया जाता था और अब विदेशी ब्रांडेड मदिरा का भोग लगाया जाता है। मदिरा के अलावा कालभैरव को लड्डू और चूरमे का सात्विक भोग भी चढ़ाया जाता है।
कालभैरव एक मात्र ऐसे देवता है जिनकी हर महीने की अष्टमी को प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। इनका मंदिर जिस शहर गांव में होता है वे उस नगर के कोतवाल कहलाये जाते हैं।
कालभैरव मंदिर के अलावा यहां पाताल भैरवी का भी मंदिर है। यह गुफा एक तरफा है और इसका महत्त्व तंत्र से जुड़ा है।
हर वर्ष मध्यप्रदेश सरकार वार्षिक पूजा अनुष्ठान भी करवाती है।
ज्ञातव्य: कालभैरव मंदिर कुल मिलाकर एक तांत्रिक सिद्धपीठ है। महाकाल की नगरी में महाकाल के दर्शन के साथ-साथ कालभैरव के दर्शन त्वरित फल देने वाले होते है। यहां मदिरा की बोतल का मूल्य
बाजार में मिलनेवाली बोतल से दुगने मूल्य पर मिलता है।✒️स्वप्निल. अ
(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

शनिवार, 30 दिसंबर 2023
गढ़कालिका मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश
माँ गढ़कालिका मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धपीठ है। इस अलौकिक मंदिर के अनसुलझे रहस्यों के बारे में आम जनता को अधिक जानकारी नहीं हैं।
पौराणिक इतिहास:
उज्जैन की प्रचलित मान्यता अनुसार सत्ययुग में माता सति द्वारा प्रजापति दक्ष के यज्ञ में माता सति के प्राण त्यागने के पश्चात जब भगवान हरि द्वारा उनकी देह के टुकड़े करने पर माँ का एक ओष्ठ यहां के भैरव पर्वत पर गिरा था। हरसिद्धि माता मंदिर अवन्तिकापुरी का एक और शक्ति और सिद्धपीठ है जो उसी भैरव पर्वत है। इसी क्षेत्र में माता गढ़कालिका का धाम भी जाना जाने लगा। लिंग पुराण की कथा अनुसार जब प्रभू श्री रामचंद्र जब लंका पर दिग्विजय कर वापिस अयोध्या लौट रहे थे तब रास्ते मे रुद्र सागर तट के निकट रुके थे। उस रात्री माता कालिका भूख से व्याकुल नर भक्षण करने निकल पड़ी, तब उन्हें राम भक्त हनुमान दिखे और उन्हें पकड़ने माँ झपटी तो हनुमान जी ने भीम काय रूप धारण कर लिया और माता वहाँ से चली गयी। जाने के पश्चात जो अंश गालित हो कर गिर गया उस अंश से पिंडी प्रकट हुई। ज्ञातव्य हो, इस स्थान को गढ़ नाम से जाना जाता था इसी से मंदिर का नाम गढ़कालिका कहा जाने लगा।
![]() |
माँ गढ़कालिका |
इतिहास:
मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्ष द्वारा 606 ईसवी में करवाया गया था और मध्यकाल में राजा हर्षवर्धन ने भी अन्य कई कार्य करवाकर मंदिर की शोभा बढ़ाई। ग्वालियर के सिंधियाओं ने मंदिर का पुनःनिर्माण कार्य करवाया गया था।
महामूर्ख कवि कालिदास:
उज्जैन नगरी को कालिदास की नगरी भी कहा जाता है। अपने जीवनकाल में कालिदास महानतम कवि के पहले महामूर्ख माने गए थे। उदाहरण के तौर पर एक बार वे एक वृक्ष की डाल पर बैठ वही डाल काटते देखे गए थे। इससे उनकी पत्नी विद्योत्तमा इस बात से चिंतित थी। फिर कालिदास माँ गढ़कालिका की आराधना में मग्न हो गए। फल स्वरूप माँ गढ़कालिका ने उन्हें इसी मंदिर स्थलीय पर दर्शन दे कर अभिभूत किया। माँ के वरदान के कारण वे "शामला दण्डक" महाकाली स्तोत्र और अन्य 6 संस्कृत महाकाव्यों की रचना कर पाए। यह स्तोत्र कालिदास की सबसे उत्तम और कालजयी रचनाओं में से एक है। उज्जैन या किसी भी स्थान पर कवि कालिदास के नाम पर किये जाने वाले कार्यक्रमों में माँ गढ़कालिका का आवाह्न अवश्य किया जाता है। माँ कालिका की कृपा से कालिदास परम् मूर्ख से महान कवि बन गए।
गढ़कालिका मंदिर:
माँ गढ़कालिका के जीवंत से दिखनेवाले चेहरे पर सिंदूर गढ़ा है। सिर से मस्तक तक चांदी का मुकुट माँ की प्रतिमा में चार चांद लगाता है। मूर्ति की अनूठी बात है माँ के चांदी के दांत जो किसी और शक्तिपीठों में देखने को नहीं मिलते। माँ कालिका के दाएं ओर माँ लक्ष्मी और बाएं ओर माँ सरस्वती विराजी हैं। माँ को पुष्पों की माला और पुष्पों के स्थान पर तंत्र पूजन के नियमित नींबू से बनी माला चढ़ाई जाती है। तथा नींबू का प्रसाद भक्त लेके जाते हैं। इन नींबुओं को घर में रखने पर माँ उस घर की रक्षा करती हैं।
![]() |
माँ गढ़कालिका शक्तिपीठ |
वैसे साल के 12 मास इस मंदिर में तांत्रिकों का जमावड़ा बना रहता है किंतु नवरात्र और गुप्त नवरात्र में तांत्रिक इस मंदिर में विशेष साधना करने आते हैं। मंदिर के समक्ष एक प्राचीन दीप स्तम्भ भी खड़ा है जिसे नवरात्र में प्रज्वलित किया जाता है।
माँ गढ़कालिका मंदिर का सम्पूर्ण क्षेत्र अलग-अलग देवो के मंदिरों से अक्षरसः घेराव किये हुए हैं। मंदिर एक किमी दूर भैरव मंदिर है वहीं बगल में भगवान नारायण का चतुर्मुख मंदिर, गणेश मंदिर, हनुमान मंदिर और गोरे भैरव का मंदिर है।
इस देवी मंदिर के पास 52 स्नान कुंड है। इन कुंडों म् एक कुंड के नीचे एक शिवलिंग विराजमान है। इस कुंड की प्रसिद्धि इसके सिद्धि प्रदान करने के लिए मान्यता है। साधक हो या तांत्रिक, जिसे भी अपनी सिद्धि को सिद्ध करना हो तो उसे इस कुंड में जाना आवश्यक होता है। मंदिर के निकट क्षिप्रा नदी के घाट पर माता सती की मूर्तियां है और उज्जैन में हुई सारी सतियों की स्मृति में खड़ा किया हुआ स्मारक भी बना है
मंदिर आरती:
देश के अन्य तीर्थो या प्रसिद्ध मंदिरों की तुलना में गढ़कालिका मंदिर में आरती का समय बिल्कुल भिन्न है। यहां माँ की आरती सुबह 10 बजे और संध्या सूर्यास्त के समय होती है। कवक हफ्ते में शुक्रवार के दिन में दोपहर 12 बजे का समय आरती के लिए होता है।
आरती में उपयोग किये जाने वाले छोटे और बड़े वाद्य यंत्र होते हैं जो बड़े उत्साह और हर्ष के साथ बजाए जाते हैं।
✒️स्वप्निल. अ
(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

बुधवार, 27 दिसंबर 2023
टपकेश्वर महादेव, देहरादून, उत्तराखंड
पौराणिक कथा:
टपकेश्वर महादेव में स्वयम्भू शिव लिंग रूप में विराजमान हुआ था। इसकी कथा कुछ भी स्पष्ट अनुमान नहीं है। केवल इतनी जानकारी मिलती है कि सबसे पहले देवता और फिर ऋषि मुनियों ने बारी-बारी लंबे अंतराल पर यहाँ आकर तपस्या की और भोले को प्रसन्न किया। द्वापरयुग के आगमन पर गुरु द्रोण ने महादेव की कठोर साधना की और महादेव ने दर्शन दे कर गुरु द्रोण को धनुर्धर बनने का वरदान दिया। इसी के साथ ही भगवन जगत कल्याण के उद्देश्य से इस स्थान पर पिंडी रूप में विराजित हो गए। तब से इस गुफा को द्रोण गुफा कहा जाता है।
कई वर्षों की अवधि बीत जाने पर भी जब द्रोणाचार्य को संतान प्राप्त न हुई तो एक आकाशवाणी में उन्हें पुत्र प्राप्ति का आशिर्वाद भगवान ने दिया। यह शिशु बाकी शिशुओं की तरह रोया नहीं बल्कि अश्व की भांति निन-निहाया सो नामकरण अश्वत्थामा रखा गया।
अश्वत्थामा ने बालपन में दूध नहीं चखा पर एक दिन किसी ऋषि के घर से दूध का सेवन कर वापिस आने के पश्चात अपनी माता से दूध पीने का हट करने लगे तो माता ने कहा जा शिव से ले ले। हटी अश्वत्थामा ने भी माँ की गुस्से भरी बात को गम्भीरता पूर्वक लिया। अपने पिता की आराधना स्थली पर आकर तपस्या की। भोले शंकर ने दर्शन देकर अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने और इस स्थान पर दूध की प्राकृतिक उत्तपत्ति का वरदान दिया।
टपकेश्वर मंदिर:
मंदिर प्रवेश के पहले फूल पूजा सामग्री की दुकानों के पास ही एक प्राचीन दुर्गा मंदिर है जिसके दर्शन् किये बगैर आगंतुक महादेव मंदिर में नहीं जाते। मंदिर के गेट के बाद भगवान कालभैरव का मंदिर आता है। मंदिर भवन के बाहर भगवान हनुमान की विशाल मूर्ति खड़ी मुद्रा में विराजित है। टपकेश्वर महादेव शिवलिंग इस गुफा के अंदर विराजित है।
मंदिर की गुफा में शिवलिंग पर प्राकृतिक रूप से गुफा के पत्थरों से पानी टपकता रहता है जैसे स्वयं इंद्र आदि देवता प्रभू का जलाभिषेक करते हों।
टपकेश्वर महादेव के पौराणिक महत्त्व के कारण इसे दूधेश्वर, देवेश्वर और तपेश्वर भी कहा गया है।
गढ़ी कैंट क्षेत्र में मौसमी छोटी तोमसू/देवधारा नदी की अविरल धारा बहती है। मॉनसून आने पर यह नदी उफान पर होती है। यह नदी मसूरी से प्रकट होती है। और देहरादून के प्रेम नगर में लुप्त हो जाती है।
टपकेश्वर महादेव मंदिर के भीतर कुल मिलाकर कालभैरव, राधेकृष्ण, माँ दुर्गा और वैष्णोदेवी मंदिर के विग्रह प्रतिष्ठित हैं। वहीं मंदिर के बाहर पवनपुत्र हनुमान की विशाल खड़ी प्रितमा तोमसू नदी को ऊपर से देखते हुए सुसज्जित है।
त्यौहार:
श्रावण के महीने में मंदिर पूजा उत्सव का आयोजन मंदिर के सहयोग दलों द्वारा आयोजित कीट जाता है। मंदिर के देवी देवताओं को हरिद्वार ल् जाकर स्नान कराया जाता है और वापिस मंदिर लेकर शोभायात्रा देहरादून में निकाली जाती है।
महाशिवरात्रि पर महाप्रसाद किया जाता है। इस मबदिर में मनाई जानेवाली महाशिवरात्रि की सबसे अद्धभुत बात यह है कि यहाँ भांग के पकौड़े और जूस का प्रसाद वितरित किया जाता है।
होली पँचमी पर "हमारी पहचान" नामक एक ड्रामा ग्रुप द्वारा मंदिर परिसर में नाटक का आयोजन किया जाता है।
![]() |
तोमसू नदी |
![]() |
बजरँगबली मूर्ति |
टपकेश्वर मंदिर कैसे पहुँचे:
टपकेश्वर मंदिर तक पहुंचने के लिए रास्ता बहुत आसान है। मंदिर गढ़ी इलाके के टपकेश्वर कॉलोनी के निकट है।
ट्रेन से टपकेश्वर महादेव पहुँचने के लिए देहरादून तक कई एक्सप्रेस ट्रेनें उपलब्ध है। बाय रोड पहुंचने के लिए प्राइवेट वॉल्वो बस सेवा और प्राइवेट टैक्सी भी उपलब्ध रहती है। देहरादून का जॉलीग्रांट हवाई अड्डा मंदिर से 27 किमी की दूरी पर है।
✒️स्वप्निल. अ
(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

गिरजाबंध हनुमान मंदिर, बिलासपुर, छतीसगढ़
यूं तो भगवान श्रीराम भक्त हनुमान के देश में कई और विदेशों में कुछ मंदिर है, किंतु भारत के गांवों दराजों में ऐसे मंदिर है जिनकी खबर किसी को...

-
बाबा कीनाराम के चमत्कार "जो न दे राम वो दे बाबा कीनाराम" सनातन धर्म मे तंत्र के महानतम अवधूतों में से एक थे " अवधूत बाब...
-
भगवान जगन्नाथ की पृरी मंदिर सदियों से रहस्यों से भरा हुआ है। जगन्नाथ मंदिर को साक्षात वैकुंठ धाम भी कहा जाता है क्योंकि मंदिर में एक बार भ...
-
दस महाविद्याओं में पांचवी महाविद्या माँ छिन्नमस्ता का जागृत सिद्धपीठ झारखंड के रजरप्पा की मनोहारी सिकदरी घाटी में बसा है। रजरप्पा और रामग...