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शनिवार, 30 दिसंबर 2023

गढ़कालिका मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

माँ गढ़कालिका मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धपीठ है। इस अलौकिक मंदिर के अनसुलझे रहस्यों के बारे में आम जनता को अधिक जानकारी नहीं हैं। 


पौराणिक इतिहास:


उज्जैन की प्रचलित मान्यता अनुसार सत्ययुग में माता सति द्वारा प्रजापति दक्ष के यज्ञ में माता सति के प्राण त्यागने के पश्चात जब भगवान हरि द्वारा उनकी देह के टुकड़े करने पर माँ का एक ओष्ठ यहां के भैरव पर्वत पर गिरा था। हरसिद्धि माता मंदिर अवन्तिकापुरी का एक और शक्ति और सिद्धपीठ है जो उसी भैरव पर्वत है। इसी क्षेत्र में माता गढ़कालिका का धाम भी जाना जाने लगा। लिंग पुराण की कथा अनुसार जब प्रभू श्री रामचंद्र जब लंका पर दिग्विजय कर वापिस अयोध्या लौट रहे थे तब रास्ते मे रुद्र सागर तट के निकट रुके थे। उस रात्री माता कालिका भूख से व्याकुल नर भक्षण करने निकल पड़ी, तब उन्हें राम भक्त हनुमान दिखे और उन्हें पकड़ने माँ झपटी तो हनुमान जी ने भीम काय रूप धारण कर लिया और माता वहाँ से चली गयी। जाने के पश्चात जो अंश गालित हो कर गिर गया उस अंश से पिंडी प्रकट हुई।  ज्ञातव्य हो, इस स्थान को गढ़ नाम से जाना जाता था इसी से मंदिर का नाम गढ़कालिका कहा जाने लगा।


माँ गढ़कालिका

  

इतिहास:


मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्ष द्वारा 606 ईसवी में करवाया गया था और मध्यकाल में राजा हर्षवर्धन ने भी अन्य कई कार्य करवाकर मंदिर की शोभा बढ़ाई। ग्वालियर के सिंधियाओं ने मंदिर का पुनःनिर्माण कार्य करवाया गया था। 



महामूर्ख कवि कालिदास:


उज्जैन नगरी को कालिदास की नगरी भी कहा जाता है। अपने जीवनकाल में कालिदास महानतम कवि के पहले महामूर्ख माने गए थे। उदाहरण के तौर पर एक बार वे एक वृक्ष की डाल पर बैठ वही डाल काटते देखे गए थे। इससे उनकी पत्नी विद्योत्तमा इस बात से चिंतित थी। फिर कालिदास माँ गढ़कालिका की आराधना में मग्न हो गए। फल स्वरूप माँ गढ़कालिका ने उन्हें इसी मंदिर स्थलीय पर दर्शन दे कर अभिभूत किया। माँ के वरदान के कारण वे "शामला दण्डक" महाकाली स्तोत्र और अन्य 6 संस्कृत महाकाव्यों की रचना कर पाए। यह स्तोत्र कालिदास की सबसे उत्तम और कालजयी रचनाओं में से एक है। उज्जैन या किसी भी स्थान पर कवि कालिदास के नाम पर किये जाने वाले कार्यक्रमों में माँ गढ़कालिका का आवाह्न अवश्य किया जाता है। माँ कालिका की कृपा से कालिदास परम् मूर्ख से महान कवि बन गए। 


    


गढ़कालिका मंदिर:


माँ गढ़कालिका के जीवंत से दिखनेवाले चेहरे पर सिंदूर गढ़ा है। सिर से मस्तक तक चांदी का मुकुट माँ की प्रतिमा में चार चांद लगाता है। मूर्ति की अनूठी बात है माँ के चांदी के दांत जो किसी और शक्तिपीठों में देखने को नहीं मिलते। माँ कालिका के दाएं ओर माँ लक्ष्मी और बाएं ओर माँ सरस्वती विराजी हैं। माँ को पुष्पों की माला और पुष्पों के स्थान पर तंत्र पूजन के नियमित नींबू से बनी माला चढ़ाई जाती है। तथा नींबू का प्रसाद भक्त लेके जाते हैं। इन नींबुओं को घर में रखने पर माँ उस घर की रक्षा करती हैं।


माँ गढ़कालिका शक्तिपीठ


वैसे साल के 12 मास इस मंदिर में तांत्रिकों का जमावड़ा बना रहता है किंतु नवरात्र और गुप्त नवरात्र में तांत्रिक इस मंदिर में विशेष साधना करने आते हैं। मंदिर के समक्ष एक प्राचीन दीप स्तम्भ भी खड़ा है जिसे नवरात्र में प्रज्वलित किया जाता है।


माँ गढ़कालिका मंदिर का सम्पूर्ण क्षेत्र अलग-अलग देवो के मंदिरों से अक्षरसः घेराव किये हुए हैं। मंदिर एक किमी दूर भैरव मंदिर है वहीं बगल में भगवान नारायण का चतुर्मुख मंदिर, गणेश मंदिर, हनुमान मंदिर और गोरे भैरव का मंदिर है।


इस देवी मंदिर के पास 52 स्नान कुंड है। इन कुंडों म् एक कुंड के नीचे एक शिवलिंग विराजमान है। इस कुंड की प्रसिद्धि इसके सिद्धि प्रदान करने के लिए मान्यता है। साधक हो या तांत्रिक, जिसे भी अपनी सिद्धि को सिद्ध करना हो तो उसे इस कुंड में जाना आवश्यक होता है। मंदिर के निकट क्षिप्रा नदी के घाट पर माता सती की मूर्तियां है और उज्जैन में हुई सारी सतियों की स्मृति में खड़ा किया हुआ स्मारक भी बना है

  

     


मंदिर आरती:


देश के अन्य तीर्थो या प्रसिद्ध मंदिरों की तुलना में गढ़कालिका मंदिर में आरती का समय बिल्कुल भिन्न है। यहां माँ की आरती सुबह 10 बजे और संध्या सूर्यास्त के समय होती है। कवक हफ्ते में शुक्रवार के दिन में दोपहर 12 बजे का समय आरती के लिए होता है। 

आरती में उपयोग किये जाने वाले छोटे और बड़े वाद्य यंत्र होते हैं जो बड़े उत्साह और हर्ष के साथ बजाए जाते हैं।


 ✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



बुधवार, 27 दिसंबर 2023

टपकेश्वर महादेव, देहरादून, उत्तराखंड

पौराणिक कथा:

टपकेश्वर महादेव में स्वयम्भू शिव लिंग रूप में विराजमान हुआ था। इसकी कथा कुछ भी स्पष्ट अनुमान नहीं है। केवल इतनी जानकारी मिलती है कि सबसे पहले देवता और फिर ऋषि मुनियों ने बारी-बारी लंबे अंतराल पर यहाँ आकर तपस्या की और भोले को प्रसन्न किया। द्वापरयुग के आगमन पर गुरु द्रोण ने महादेव की कठोर साधना की और महादेव ने दर्शन दे कर गुरु द्रोण को धनुर्धर बनने का वरदान दिया। इसी के साथ ही भगवन जगत कल्याण के उद्देश्य से इस स्थान पर पिंडी रूप में विराजित हो गए। तब से इस गुफा को द्रोण गुफा कहा जाता है।


कई वर्षों की अवधि बीत जाने पर भी जब द्रोणाचार्य को संतान प्राप्त न हुई तो एक आकाशवाणी में उन्हें पुत्र प्राप्ति का आशिर्वाद भगवान ने दिया। यह शिशु बाकी शिशुओं की तरह रोया नहीं बल्कि अश्व की भांति  निन-निहाया सो नामकरण अश्वत्थामा रखा गया। 

अश्वत्थामा ने बालपन में दूध नहीं चखा पर एक दिन किसी ऋषि के घर से दूध का सेवन कर वापिस आने के पश्चात अपनी माता से दूध पीने का हट करने लगे तो माता ने कहा जा शिव से ले ले। हटी अश्वत्थामा ने भी माँ की गुस्से भरी बात को गम्भीरता पूर्वक लिया। अपने पिता की आराधना स्थली पर आकर तपस्या की। भोले शंकर ने दर्शन देकर अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने और इस स्थान पर दूध की प्राकृतिक उत्तपत्ति का वरदान दिया।


           
टपकेश्वर महादेव


टपकेश्वर मंदिर: 


मंदिर प्रवेश के पहले फूल पूजा सामग्री की दुकानों के पास ही एक प्राचीन दुर्गा मंदिर है जिसके दर्शन् किये बगैर आगंतुक महादेव मंदिर में नहीं जाते। मंदिर के गेट के बाद भगवान कालभैरव का मंदिर आता है। मंदिर भवन के बाहर भगवान हनुमान की विशाल मूर्ति खड़ी मुद्रा में विराजित है। टपकेश्वर महादेव शिवलिंग इस गुफा के अंदर विराजित है। 

  मंदिर की गुफा में शिवलिंग पर प्राकृतिक रूप से गुफा के पत्थरों से पानी टपकता रहता है जैसे स्वयं इंद्र आदि देवता प्रभू का जलाभिषेक करते हों। 


टपकेश्वर महादेव के पौराणिक महत्त्व के कारण इसे दूधेश्वर, देवेश्वर और तपेश्वर भी कहा गया है। 


गढ़ी कैंट क्षेत्र में मौसमी छोटी तोमसू/देवधारा नदी की अविरल धारा बहती है। मॉनसून आने पर यह नदी उफान पर होती है। यह नदी मसूरी से प्रकट होती है। और देहरादून के प्रेम नगर में लुप्त हो जाती है। 

                          

 

टपकेश्वर महादेव मंदिर के भीतर कुल मिलाकर कालभैरव, राधेकृष्ण, माँ दुर्गा और वैष्णोदेवी मंदिर के विग्रह प्रतिष्ठित हैं। वहीं मंदिर के बाहर पवनपुत्र हनुमान की विशाल खड़ी प्रितमा तोमसू नदी को ऊपर से देखते हुए सुसज्जित है।


त्यौहार:


श्रावण के महीने में मंदिर पूजा उत्सव का आयोजन मंदिर के सहयोग दलों द्वारा आयोजित कीट जाता है। मंदिर के देवी देवताओं को हरिद्वार ल् जाकर स्नान कराया जाता है और वापिस मंदिर लेकर शोभायात्रा देहरादून में निकाली जाती है। 




महाशिवरात्रि पर महाप्रसाद किया जाता है। इस मबदिर में मनाई जानेवाली महाशिवरात्रि की सबसे अद्धभुत बात यह है कि यहाँ भांग के पकौड़े और जूस का प्रसाद वितरित किया जाता है। 


होली पँचमी पर "हमारी पहचान" नामक एक ड्रामा ग्रुप द्वारा मंदिर परिसर में नाटक का आयोजन किया जाता है। 


तोमसू नदी

बजरँगबली मूर्ति


टपकेश्वर मंदिर कैसे पहुँचे:


 टपकेश्वर मंदिर तक पहुंचने के लिए रास्ता बहुत आसान है। मंदिर गढ़ी इलाके के टपकेश्वर कॉलोनी के निकट है।

ट्रेन से टपकेश्वर महादेव पहुँचने के लिए देहरादून तक कई एक्सप्रेस ट्रेनें उपलब्ध है। बाय रोड पहुंचने के लिए प्राइवेट वॉल्वो बस सेवा और प्राइवेट टैक्सी भी उपलब्ध रहती है।  देहरादून का जॉलीग्रांट हवाई अड्डा मंदिर से 27 किमी की दूरी पर है।



✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

जागेश्वर महादेव, अल्मोड़ा, उत्तराखंड

उत्तराखंड के सांस्कृतिक केंद्र और राजधानी कहे जाने वाले अल्मोड़ा में बसा भगवान शिव का वो तीर्थ जिसे कुछ पुराणों में 12 में से एक ज्योतिर्लिंग बताया गया है और अन्य ग्रँथ में शिव के शिशिन(लिंग) रूप में पूजा की उत्तपत्ति वाला स्थान। यह धाम है जागेश्वर महादेव जो देवदार के घने वृक्षों के मध्य बसा है। अनोखी बात इस धाम की यह बी है कि यहाँ देवादिदेव पूरे 125 लिंगों के समूह में विराजे हैं। इतने सारे मंदिरों को एकत्रित कर एक स्थान और देखने पर आगंतुक भूल जाते हैं किस मंदिर के प्रथम दर्शन करें। 

 यह धाम अनगिनत विशेषताओं सर परिपूर्ण है।

जो कोई भी जागेश्वर धाम के दर्शन कर वापिस जाता है, इस अलौकिक स्थली की भव्यता देखकर मौन व्याख्यान ही कर पाता है। 


पौराणिक इतिहास:


जागेश्वर महादेव का विवरण स्कंद पुराण, लिंग पुराण और शिव महापुराण में मिलता है। इसी स्थान पर महादेव ने सप्तऋषियों के साथ मिलके तपस्या की थी। महादेव जागृत रूप में विराजे थे सो यहीं से लिंग और जागृत इन दोनों रूपों की पूजा शुरू हुई थी। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि मंदिर में माँ पार्वती और महादेव दोनों विराजे है जो तीर्थों में इसे दुर्लभ स्थान बनाता है। अल्मोड़ा के जंगलों में पाए जाने वाले देवदार के वृक्षों को शिवशक्ति का अर्धनारीश्वर रूप माना गया है। रामायण काल मे लव-कुश ने यहां पर कई दिनों तक यज्ञ कर महादेव को प्रसन्न किया था। अपने पिता से अश्वमेध यज्ञ पश्चात जो युद्ध हुआ उसका प्रायश्चित करने लवकुश यहां आए थे। महाभारत काल मे पांडवो का आगमन इस पवित्र स्थली पर हुआ था। 


यहाँ के निवासी सदियों से अपने पूर्वजों की कहि सुनी मानते आए हैं। 


जागेश्वर मंदिर समूह

इतिहास:


जागेश्वर मंदिर समूह के बनने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। हालांकि मंदिर के अंदर की नक्काशियां कत्यूरी राजाओं ने बनवाई थी तथा भीतर चन्द्रवँश के राजाओं दीपचंद, निर्मलचंद और पवंनचंद की मूर्तियां भी बने है। राजा शालिवन ने अपने काल मे मंदिर में कुछ नवीनीकरण का कार्य भी करवाया।  पिछले दो से तीन हज़ार वर्ष के काल मे यहां अलग-अलग शासकों ने मंदिर में अपने काल की वास्तुकला की छाप छोड़ी है। 




जागेश्वर धाम मंदिर:


जागेश्वर मंदिर नागर शैली में बनाया गया है। मंदिर का निर्माण 10 वी से 13 वी सदी ईसवी के मध्य संपूर्ण हुआ था। भगवान भोले और अन्य देवता सतयुग और द्वापरयुग के समय से प्रतिष्ठित हैं। जागेश्वर मंदिर के बाहर द्वार पर शिव के गन, नंदी और भृंगी द्वारपाल रूपी मूर्तियाँ हैं। ज्योतिर्लिंग की छवि अभी तक उपलब्ध नहीं है। आदि गुरु शंकराचार्य इस स्थान पर केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की तरफ जाने के पूर्व आकर यहां पूजा और साधना की थी। इस अनूप धाम को उस समय आदि गुरु ने संपुटित कर दिया। यहाँ पर बाबा जागेश्वर जागृत रूप में त्वरित फल दे देते थे तथा इसका आभास होने पर गुरु ने यहां विराजे महादेव के लिंग की शक्तियों का अनुचित लाभ कोई अधर्मी, षठ मनुष्य ना ले सके तो इसे मंत्रो से ढंक दिया। 


जागेश्वर प्रवेश द्वार 


इस युक्ति के विपरित अगर कोई यहां आकर महादेव की कठिन साधना जैसे 2.5 - 4 लाख माला का जप करे तो उसे महादेव तुरंत फल देते हैं।


आदिगुरु ने कैदारनाथ ज्योतिर्लिंग आने के पहले यहाँ समय व्यतीत किया था। उस समय केदारनाथ की अति कठिन डगर को पार कर पाना बहुत कठिन था इसीलिए जागेश्वर धाम को ही ज्योतिर्लिग का स्थान प्राप्त था। 


पुराणों में वर्णित एक श्लोक में जागेश्वर धाम की महिमा इस प्रकार लिखी गयी है -


 " मा वैद्यनाथ मनुषा वजंतु,

काशीपुरी शंकर बल्लभावां।

मायानगयां मनुजा न् यान्तु, 

जागीश्वराख्यं तू हरं व्रजंतु"।


 अर्थ:मनुष्य वैद्यनाथ न जा सके शंकर प्रिय काशी, हरिद्वार भी ना जा सके किंतु जागेश्वर अवश्य जाकर महादेव के दर्शन करे।


किंवदंती अनुसार जागेश्वर धाम के मंदिरों के बारे में यह बताया जाता है की यहाँ सारे मंदिर केवल एक रात में बनाये गए थे। हर मंदिर की ऊंचाई एक दूसरे से भिन्न है। अधिकतर मंदिर एक रात में बन गए और कुछ मंदिर एक ऊंचाई पर बनकर रुक गए। 

जागेश्वर मंदिर(नागेश्वर दारुका), पुष्टि माता मंदिर, मृत्युंजय मंदिर, हनुमान मंदिर, बटुक भैरव मंदिर, नव ग्रह मंदिर, नौ दुर्गा मंदिर, सूर्य मंदिर, नीलकंठ मंदिर, कालिका देवी, कुबेर मंदिर, केदारनाथ मंदिर, लकुलिश मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर और कमल कुंड मंदिर। 


★ मृत्युंजय मंदिर देश का इकलौता मृत्युंजय मंदिर है। इस मंदिर में भगवान शिव महामृत्युंजय रूप में विराजे है। इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी। मंदिर स्थापना के पहले महामृत्युंजय मंदिर के स्थान पर लोग प्राणोत्सर्ग किया करते थे तो आदि गुरु ने मंदिर बनवाकर कील कर दिया। इस मंदिर के दर्शन करने पर अकाल मृत्यु का डर समाप्त हो जाता है। 


★ बटुक भैरव मंदिर के दर्शन अगर आगंतुक ना करे तो बटुकनाथ तरह-तरह से दंड देते है।


★ पुष्टि भगवती 51 भगवतियों में से एक है। इनके दर्शन से ही इस तीर्थ में आने का फल प्राप्त अथवा यात्रा संपूर्ण होती है। 


         


ज्योतिर्लिंग विवाद:


स्कंद और लिंग पुराण अनुसार जागेश्वर धाम को आंठवा ज्योतिर्लिंग भी कहा गया है इसीलिए अल्मोड़ा वासी जागेश्वर को असली नागेश्वर ज्योतिलिंग के रूप में पूजते हैं। पुराणों में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग को दारुक वन के समीप बताया गया है किंतु आदि काल में ना जाने किस भ्रांति के कारण दारुक वन द्वारका वन मान लिया गया और नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थान हिन्दू जन मानस में सदा के लिए द्वारका जो गुजरात मे स्थित है स्वीकार कर लिया गया। 


सारे देवों के गर्भ-गृह में कोई भी फ़िल्म फ़ोटो खींचने वाले या रिकॉर्ड करने वाले उपकरण ले जाना प्रतिबंधित है। 

जागेश्वर धाम कैसे पहुँचे:


 जागेश्वर धाम अल्मोड़ा से 36 किमी दूरी पर स्तिथ है। इस दूरी को सवा 1 घण्टे में पूरा किया जा सकता है।  ट्रेन से जागेश्वर पहुँचने के लिए काठगोदाम आना पड़ता है। काठगोदाम से प्राइवेट टैक्सी की सेवा उपलब्ध है। 


सबसे करीबी हवाई अड्डा देहरादून का जॉली ग्रांट हवाई अड्डा 328 किमी है। इस दूरी को 7.30 घण्टे के समय में पूरा किया जाता है। 


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


शनिवार, 16 दिसंबर 2023

तारापीठ शक्तिपीठ, बीरभूम, पश्चिम बंगाल

बंगाली हिंदुओं के प्रमुख हिन्दू देवी तीर्थों में कालीघाट, तारापीठ शक्तिपीठ और नबद्वीप विशेष स्थान रखते हैं। 


पौराणिक इतिहास:


तारापीठ शक्तिपीठ के स्थापना की कथा मुख्यतः सतयुग की ही मानी गयी है। जब माता सति दक्षयज्ञविनाशिनी हो कर आत्मदाह कर लिया,  दुख में डूबे भगवान शिव सारे संसार मे उनकी मृत देह लिए घूमने लगे, इस पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस देह के टुकड़े किये। उन टुकड़ों में माता सती के नेत्र की पुतली जिसे तारा कहा जाता है बीरभूम की इस भूमि पर आ गिरी। आज यही मंदिर तारापीठ धाम के नाम से विख्यात है। बीरभूमि का पूरा अर्थ है वन से घिरी हुई भूमि है।


शिव को स्तनपान कराती माँ तारा



तारापीठ मंदिर(ऊपर से लिया गया)

तारापीठ मंदिर इमारत


दूसरी कथा अनुसार जब भगवान भोलेशंकर नीलकंठ हो गए तो उनके गले मे जलती ज्वाला को  द्वितीय महाविद्या माँ तारा ने शांत किया। जिसके लिए प्रभू ने बाल रूप धर लिया। फिर माँ ने उन्हें स्तनपान करवा कर शीतलता प्रदान की। तीसरी कथा वशिष्ठ ऋषि से जुड़ी है। इसी स्थल पर वशिष्ठ ऋषि को माँ तारा ने दर्शन दे कर सिद्धियां वरदान स्वरूप दी थी।


उत्तर भारत की सभी नदियों में यहाँ बहने वाली द्वारका नदी एक मात्र नदी है जो दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है। 


अघोरी बामाखेपा:


अघोरी बामाखेपा बंगाल के बीरभूम जिले के आटला गाँव मे जन्मे एक अघोरी थे जिन्हें कई सारे चमत्कारों के लिए जाना जाता है। बामाखेपा माँ तारा के परम भक्त थे। एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे बामा को बचपन से ही ईश्वर के बारे में चिंतन करते रहने में बीतता था। फिर जब उन्हें तारापीठ का बुलावा आया तो उन्होंने यहां रहकर घोर साधना की। माँ तारा प्रसन्न होकर उन्हें अपने दुर्लभ दर्शन दे सिद्धियों से प्राप्त की। बामाखेपा बंगाल के ही संत रामकृष्ण परमहंस के समय के थे। जगजाहिर है, कैसे माँ काली परमहंस को स्वयं भोजन खिलाने आती थी और बामाखेपा को भी माँ तारा का स्नेह प्राप्त था। 



अघोरी बामाखेपा

अघोरी बामाखेपा के रहस्य


तारापीठ मंदिर:


रामपुरहाट उपप्रभाग में तारापीठ नगर का प्राचीन नाम चंडीपुर ग्राम था। माता तारा का मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धिपीठ दोनों होने के कारण इसकी प्रसिद्धि बढ़ती गयी और चंडीपुर(माँ दुर्गा का प्रचलित उग्र रूप) ग्राम तारा पीठ बन गया। 


माँ तारा मूर्ति



तारापीठ नगर की परिसीमा में यह मंदिर मध्यम आकार का है। मंदिर लाल इटों से बना है। इसकी नींव भी मोटी और ठोस है। मंदिर भवन एक गलियारे द्वारा जुड़ा हुआ है जो मंदिर शिखर से जा मिलता है। माँ तारा की मूर्ति गर्भ गृह में छज्जे के नीचे सटीक विराजमान है। अपने दो चरित्र के दर्शन माँ दो मूर्तियों में देती है। एक तीन फीट ऊंची मूर्ति उग्र भाव में ज़िव्हा बाहर, मुंड माला धारण किये भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई। दूसरी सौम्य मातृत्व रूप लिए हुए विषपान किये त्रिपुरारी को स्तन से दूध पिलाति हुई। माँ पर चढ़ा हुए लाल कुमकुम के तिलक का पंडित जी मंदिर आनेवाले श्रद्धालुओं पर लगाते हैं। पंडित गेंदा, गुड़हल और गुलाब इत्यादि फूलों से सजी हुई माँ की प्रतिमाओं से दृष्टि नहीं हटती। देवी तारा को न केवल मिष्ठान, फल और नारियल का भोग अर्पित किया जाता है अपितु साथ ही मदिरा का भोग भी चढ़ाया जाता है। 


तारा माँ, मुण्डमालिनी मंदिर

माँ तारा के साथ महादेव मंदिर और माँ तारा का मुण्डमालिनी मंदिर भी स्थापित है।


तारापीठ मंदिर रहस्य:


मंदिर में बकरों की बलि भी दी जाती है। माँ तारा बगैर बलि के प्रसन्न नहीं होती। बकरों की बलि देनेवाला पहले स्वयं स्नान कर बकरों को अच्छी तरफ स्नान कर कर स्वच्छ करके एक तीखी तलवार से माँ तारा का नाम उच्चारण कर काट देते हैं। इसमें से एक कटोरा रक्त मा को मंदिर में माँ के विग्रह समक्ष अर्पित किया जाता है। 


प्रभू श्री रामचंद्र ने यहां राजा दशरथ का पिंड दान किया था। इसी के चलते मंदिर में मान्यता अनुसार पितरों का पिंड दान भी होता है।


श्मशान भूमी:


माँ तारा दूसरी महाविद्या है। उग्र महाविद्याओं में होने के कारण माँ श्मशान में निवास करती है। बीरभूमि में तारापीठ मंदिर एक श्मशान भूमि के मध्य स्तिथ है। श्मशान भी शक्तिपीठ का हिस्सा है। प्रतिदिन तारा माँ की पूजा अनुष्ठान बिना किसी चिता के हविष्य से आरम्भ नहीं होती। तारापीठ श्मशान में अघोरी साधु तपस्या में देखने को मिलते हैं। कई अघोरी साधुओं के परिवार यहां पीढ़ियों से विचरण कर रहे हैं। अत्यंत पुराने घने पीपल, बरगद आदि के वृक्षों के बीच अघोरी साधुओं की कुटिया झोपड़ी जिनपे मानव और जंगली और पालतू जानवरों की खोपड़ी रखी हुई दिखती हैं। इन खोपडियों में प्राणोत्सर्ग किये हुए लोगो की और कुंवारी कन्याओं के अवशेष मिलते हैं जिन्हें तंत्र क्रियाओं में अधिक प्रयोग में लाया जाता है। आसपास में सांप, बिच्छू रेंगते हुए और गीदड़, कुत्ते और दूसरे पशु रोते-चिल्लाते हुए दिखेंगे। देवी की तंत्र साधना में लीन ये साधू कोई सिद्धि पाने या सांसारिक माया से सम्पूर्ण छुटकारा पाने के उद्देश्यों में लगे हुए होते हैं। 


        
तारापीठ श्मशान भूमि


यहां दो श्मशान है जिसमे से एक तांत्रिक श्मशान और दूसरा सर्वजन श्मशान है। तांत्रिक श्मशान में तांत्रिक क्रिया यहाँ बसे अघोरी और तांत्रिक साधु उपयोग में लाते हैं। वहीं सर्वजन श्मशान आम जनता के उपयोग में है। 


मित्र हिमांशु श्रीवास्तव द्वारा बनाई


जीवित कुंड: 


रोग दोष निवारण हेतु मंदिर में अंदर प्रवेश करने पर जीवित कुंड स्थित है। माँ के मंदिर के बाहर इस कुंड में स्नान करने पर बीमारियों का समाधान होता हैं।


प्रसाद और भोग


मंदिर में भक्तों के लिए शुल्क और ननिशुल्क प्रसाद की भी व्यवस्था मंदिर ट्रस्ट द्वारा की गई है। इस भोग में माँ को मछली प्रसाद रूप में जो चढ़ाई जाता है उसी के साथ स्वादिष्ठ दाल-भात, रसगुल्ला और सब्जी- पूरी के साथ परोसा जाता है।


श्मशान तारा


मंदिर दर्शन:


माँ तारा के दर्शन के लिए वी.ऑय.पी. और साधारण दर्शन दोनों उपलब्ध हैं। वी.आई.पी दर्शन दो तरह के हैं और शुल्क भी। इसका मंदिर ट्रस्ट के दफ्तर में पता लगाया जा सकता है। 

साधारण दर्शन करने के लिए एक लंबी लाइन लगानी पड़ती है। देवी माँ के बेहतर दर्शन के लिए रात 7 से 10 बजे के बीच का समय उत्तम होता है। 


जो भक्त मंदिर में कार्य सफल करवाने के लिए यज्ञ हवन करवाना चाहते है उसका प्रबंध भी मंदिर के पुजारियों द्वारा किया जाता है। 


तारापीठ मंदिर कैसे पहुँचे:


 तारापीठ शक्तिपीठ मंदिर, बीरभूम जिले से कोलकाता के हावड़ा रेलवे स्टेशन तक कि दूरी 290 किमी है तथा यह दूरी NH12 और NH19 से 6 घण्टो में सड़क या रेल सर पूरी की जा सकती है। 


कोलकाता हवाई अड्डे से मंदिर की दूरी 260 किमी दूर है और 6 घण्टो में पूरी की जा सकती है। कोलकाता के डम डम हवाई अड्डे से भारत के हर कोने से हवाई सेवा शुरू रहती है।

 
तारापीठ मार्ग की द्वार


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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योगमाया मंदिर,मेहरौली,दिल्ली

देश की राजधानी दिल्ली के दक्षिण में स्तिथ  माँ योगमाया का शक्तिपीठ मंदिर है। देवी योगमाया भगवान श्री कृष्ण की बड़ी बहन हैं। मेहरौली इलाके में...