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बुधवार, 1 मई 2024

भोजपुर शिव मंदिर, रायसेन, मध्यप्रदेश

 भोजपुर शिव मंदिर को प्राचीन भारत मे पूर्व का सोमनाथ भी बुलाया जाता था। प्राचीन भारत में यह मंदिर अपनी ऊंचाई और विशाल शिव लिंग के पूजन के लिये सर्व प्रसिद्ध था। वर्तमान समय मे भी मंदिर में पूजा अर्चना जीवित मंदिर परंपरा के अंतर्गत की जाती है। इस समय मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के अंदर संरक्षित है।

रविवार, 17 मार्च 2024

देवास टेकरी रक्तपीठ, देवास, मध्यप्रदेश

पौराणिक इतिहास:

माँ चामुंडा और माता तुलजा भवानी शक्तिपीठ की कथा माता सती की देह से बने 52 शक्तिपीठों से जुड़ी है। देवास की इस टेकरी पर माता के रक्त की वर्षा हुई थी। इसीलिये देवास के निवासी इसे रक्तपीठ भी कहते है। 


माँ चामुंडा

दूसरी कथा अनुसार माता चामुंडा और माँ तुलजा दोनों बहनों का निवास इस स्थान पर था। एक समय दोनों में किसी बात पर विवाद उतपन्न हुआ। छोटी माता तुलजा पर्वत को चीरते हुए ऊपर की ओर निकल पड़ी और माँ चामुंडा नीचे पाताल की तरफ निकल पड़ी। तभी भगवान भैरवनाथ और बजरंगबली ने चामुंडा माँ को स्थान छोड़के न जाने का निवेदन किया। इस निवेदन को माता ने स्वीकार कर टेकड़ी कभी न छोड़ने का आश्वासन दिया। 


  
माँ तुलजा भवानी


दोनों देवीयों का क्रोध शांत हुआ; तब बड़ी माता जो पाताल के अंदर आधी समा चुकी थी - रुक गयी। वहीं छोटी माता अपने स्थान से ऊपर की ओर जाने लगी।  इसी स्थिति में आज तक दोनों बहनें स्वयंभू रूप में विराजी हैं। माताएँ अपने जागृत रूप में विराजी हैं। माना जाता है कि जिन्हें संतान का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता वे इस मंदिर में माँ के दरबार में आकर सच्चे मन से अगर कामना करें तो माता उनकी गोद भर देती है। 



बुधवार, 10 जनवरी 2024

हरसिद्धि माता मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

अवन्तिकापुरी उज्जैन में स्तिथ माँ हरसिद्धि मंदिर में माँ पार्वती का रूप विराजित है। उज्जैन नगरवासी उज्जैन में महाकाल को अपने पिता और माँ हरिसद्धि को नगर की रखवाली और पोषण करनेवाली मानते है।


पौराणिक इतिहास:

माँ हरसिद्धि का मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धिपीठ दोनों है। उज्जैन के ही गढ़कालिका मंदिर की ही तरह यह दिव्य स्थली भी माता सति की मृत देह से बनी थी। माँ हरसिद्धि मंदिर का पौराणिक इतिहास अनुसार यहाँ माता सति की दाहिनी कोहनी गिरी थी। स्कंद पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार सतयुग में चंड और प्रचंड नामक असुरों ने संसार मे रक्तपात शुरू किया और कैलाश पर्वत पर आक्रमण करने की कोशिश की, तब माँ पार्वती ने दुर्गा का रूप लेकर उनका संघार किया। उस रूप को हरसिद्धि माँ के रूप में इस मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया। 


माँ हरसिद्धि

इतिहास:


उज्जैन नगरी से आर्यवर्त भारत के विशाल हिस्से पर राज करनेवाले राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी माँ हरसिद्धि हैं। इस शक्तिपीठ में विक्रमादित्य एक साधारण मनुष्य से परम् प्रतापी राजा के रूप में इतिहास में जाने गए और विश्वपटल पर अमिट छाप छोड़ी। माँ की ऐसी असीम कृपा के धनी थे राजा जी जिन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। विक्रमादित्य ने कुल 11 बार अपना शीश माँ के चरणों मे समर्पित किये थे। ग्यारवीं बार शीश अर्पण करने के साथ 

राजा विक्रमादित्य ने अपने कठोर तप से माँ हरसिद्धि को गुजरात के पोरबंदर के हरसिद्धि गांव से उज्जैन आने की प्रार्थना की और माँ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर इस स्थान को भी अपना ग्रह बनाया। पुजारी बताते हैं कि माँ सवेरे पोरबंदर के मंदिर में और संध्या को उज्जैन में निवास करती। इसी तालमेल से माँ को दोनों समय की आरतियां भी की जाती है।


                   



माँ हरसिद्धि मंदिर:


हरसिद्धि मंदिर की नागर और मराठा वास्तुकला में बनाया गया है। गर्भ गृह में माता हरसिद्धि मध्य में, माँ अन्नपूर्णा दाएं और माँ महाकाली, हरसिद्धि के नीचे विराजी हैं। बाएं ओर भूरे भैरव खड़ी मुद्रा में विराजित हैं। माता को मूर्ति सिंदूर में गढ़ी हुई दुर्बोध्य आभा लिए हुए है। 

        
देवी महामाया मंदिर गुफा


मंडप ग्रह में 51 देवियों के चित्र, नाम और मंत्र के बीज आक्षर समेत चिन्हित है। भारत वर्ष के चुनिंदा मंदिरों में से एक मंदिर है जिसकी छत पर देवी राज राजेश्वरी षोडशी का श्रीयंत्र बना हुआ है। इससे मंदिर में आनेवाले भक्तों की प्रार्थना को अधिक आत्मिक ऊर्जा मिलती है। अत्यंत शक्तिशाली और सिद्ध है श्री यंत्र की शक्ति जिसके प्रभाव से यहां आनेवाले भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।

मंदिर के बाहर श्री गणेश और महादेव का मंदिर भी है। सबसे पहले श्री गणेश मंदिर में आरती की जाती है।  साथ ही देवी महामाया का मंदिर एक छोटी गुफा के भीतर है। इस गुफा में 2000 से ज़्यादा समय से एक ज्योति जल रही है। मंदिर के बाहर दो दीप स्तम्भ है। शिव शक्ति स्वरूप इन स्तम्भों में संध्या आरती के समय 1001 दिए प्रज्वलित किये जाते हैं। श्रद्धालु मंदिर में ढोल, नगाड़े और मंजीरे के साथ कि जानेवाली आरती को लेकर व्याकुल दिखाई देते हैं।


         
दीप स्तम्भ

J
श्री गणेश
   
    
     


आरती समय:


हरसिद्धि मंदिर में सबसे प्रथम श्री गणेश, दूसरी कर्कोटेश्वर महादेव और तीसरी माँ हरसिद्धि की आरती की जाती है। आरती का समय संध्या 6 से 7:30 के बीच है। 



✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


सोमवार, 8 जनवरी 2024

श्री कालभैरव मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

पौराणिक इतिहास:

कालभैरव मंदिर की पौराणिक कथा ब्रह्माजी के हठ्ठ से जुड़ी है। सत्युग के समय सृष्टि निर्माण और चार वेदों की रचना पश्चात्, ब्रह्माजी वेदों से भी विशाल ग्रँथ की रचना करने का मन बनाया है। भगवान शिव को ज्ञान हुआ और वे इस ग्रँथ की रचना का फल भलीभांति जानते थे। इस ग्रँथ के बनने से कलयुग अपने निर्धारित समय से पहले आ जाता। सो भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र के मध्य भौओं से बटुक भैरव को उतपन्न कर भगवान ब्रह्मा के इस कर्म को रोकने का कार्यभार सौंपा। बटुक भैरव ब्रह्माजी के पास जा कर बार-बार निवेदन किये। किंतु ब्रह्माजी उनको बालक समझ कर अपमान करते हैं। तब बटुकनाथ भैरव मदिरा का सेवन कर बड़े हो जाते हैं, काल भैरव रूप में आ जाते हैं। अपने एक उंगली के नख से ब्रह्माजी के 5 वे मुख का छेदन कर देते हैं। ब्रह्माजी का वह सिर बटुक भैरव के उंगली में फंस कर कट जाता है। बटुकनाथ ब्रह्म हत्या के दोषी हो जाते हैं और इस दोष के निवारण के लिए महादेव के पास जाते हैं। महादेव उन्हें संपूर्ण भारत के भ्रमण के लिए जाते है। ब्रह्माजी के मस्तक बटुक भैरव के हाथ से छूटकर जिस स्थान पर गिरता है वह स्थान फिर ब्रह्मकपालिक तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। उस स्थान पर ब्रह्मकपालिक क्रिया संपन्न हो जाती है किंतु ब्रह्म हत्या के पाप का निवारण नहीं होता और तब बटुक नाथ महाकाल वन(उज्जैन नगरी) आते हैं। यहां संकटमोचन घाट पर बैठकर स्नान करते हैं और शिव की आराधना कर दोष का निवारण होता है।


बाबा कालभैरव
पिंडी रूप में कालभैरव

             

मंदिर प्रवेश द्वार


 इतिहास:


कालभैरव मंदिर पुरातात्त्विक और लिखित इतिहास के अनुसार 2500 ईसा पूर्व का है। राजा भद्रसेन, इस स्थान के पास से युद्ध के लिए गुजरते समय रुके और भगवान कालभैरव से युद्ध में विजय प्राप्ति की मन्नत मांगी और विजयी होने पर भैरव जी के मंदिर का निर्माण करवाया। आगे चलकर राजा विक्रमादित्य के वंश में राजा भोज ने यहाँ पुनरुथान करवाया था। पेशवा-मराठों के युग मे मंदिर में कई सारे निर्माण और बदलाव किए गए थे। 



                  

कालभैरव मंदिर और रहस्य:


उज्जैन में भैरवगढ़ की पहाड़ी पर कालभैरव जी का रहस्यमय मंदिर बसा है। मंदिर पृथ्वी से 6 फ़ीट की ऊंचाई पर बना है। गर्भ गृह मे विराजे कालभैरव के एक गुंबदनुमा छत के नीचे है। भगवान पिंडी रूप में सिंदूर और कुमकुम से रंगी बड़ी-बड़ी आंखों के साथ और जीभ बाहर किये हुए हैं। भगवान पर मराठाओं द्वारा मुग़लों पर विजय प्राप्ति पश्चात लाल पगड़ी चढ़ाई गयी थी। तब से यह परंपरा आज भी कायम है।


 यहीं से क्षिप्रा नदी मंदिर को छूते हुए गुजरती है। यह मंदिर मराठा और परमार वंश की नागर शैली का मिश्रित रूप में बनाया गया है। मंदिर में पाताल भैरव और गुरु दत्तात्रेय का मंदिर भी है। इसकी वास्तुकला परमार नागर और मराठा शैली में बनी है। मराठों के शासन काल के चरम पर पहुँचने पर मंदिर के दाएं ओर एक दीप स्तम का निर्माण मंदिर मे करवाया गया था। इसे संध्या होते ही प्रज्वल्लित किया जाता है। इच्छाओं की पूर्ती के लिए इस दीप स्तम्भ में भक्त सरसो के तेल का दिया जलाते हैं। 

 

अवन्तिकापुरी के इस कालभैरव मंदिर को अत्यंत गुप्त मंदिरों में से एक माना गया है। ऐसा इसीलिए क्योंकि यह उन चंद मंदिरों म् से हैं जहां वाम मार्ग के नियमगत पूजा होती है। प्राचीन समय मे यहाँ विशुद्ध परंपरागत तरिके से तांत्रिक अनुष्ठानों में पंच मक्कारों (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा और मैथुन) में उपयोग किये जानेवली सामग्री होती थी। इसमें शव साधना जैसी भयभीत कर देनेवाली क्रियाएं भी की जाती थी। कुछ दशक पहले आम जनता के दर्शन के लिए 5 अनुष्ठानों में से केवल मदिरा का सतत भोग लगाया जा रहा है।

       
             



यहां आनेवाला हर श्रद्धालूँ कालभैरव को मदिरा का भोग चढ़ाता है। अचंभित कर देने वाली बात है की (उग्रता के प्रतीक) भैरवजी सारी शराब पी जाते है। इस पर अमरीकी, की स्पेस एजेंसी, नासा द्वारा भी फ़िजूल का शोध किया गया था जिसके कोई ठोस कारण उन्हें नहीं मिल पाए। सनातन धर्म के हर विषय को वैज्ञानिकता की कसौटी पर खड़ा रखकर तौलना पश्चिम का रवैय्या सदैव से मात्र सनातन को इस देश और इसकी संस्कृती को समाप्त करने के उद्देश्य से ही रहा है।

              
           
दीप स्तम्भ


पुराने समय मे मंदिर में देसी मदिरा का भोग लगाया जाता था और अब विदेशी ब्रांडेड मदिरा का भोग लगाया जाता है। मदिरा के अलावा कालभैरव को लड्डू और चूरमे का सात्विक भोग भी चढ़ाया जाता है।

कालभैरव एक मात्र ऐसे देवता है जिनकी हर महीने की अष्टमी को प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। इनका मंदिर जिस शहर गांव में होता है वे उस नगर के कोतवाल कहलाये जाते हैं। 


कालभैरव मंदिर के अलावा यहां पाताल भैरवी का भी मंदिर है। यह गुफा एक तरफा है और इसका महत्त्व तंत्र से जुड़ा है।


हर वर्ष मध्यप्रदेश सरकार वार्षिक पूजा अनुष्ठान भी करवाती है।


ज्ञातव्य: कालभैरव मंदिर कुल मिलाकर एक तांत्रिक सिद्धपीठ है। महाकाल की नगरी में महाकाल के दर्शन के साथ-साथ कालभैरव के दर्शन त्वरित फल देने वाले होते है। यहां मदिरा की बोतल का मूल्य

बाजार में मिलनेवाली बोतल से दुगने मूल्य पर मिलता है।

✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



शनिवार, 30 दिसंबर 2023

गढ़कालिका मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

माँ गढ़कालिका मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धपीठ है। इस अलौकिक मंदिर के अनसुलझे रहस्यों के बारे में आम जनता को अधिक जानकारी नहीं हैं। 


पौराणिक इतिहास:


उज्जैन की प्रचलित मान्यता अनुसार सत्ययुग में माता सति द्वारा प्रजापति दक्ष के यज्ञ में माता सति के प्राण त्यागने के पश्चात जब भगवान हरि द्वारा उनकी देह के टुकड़े करने पर माँ का एक ओष्ठ यहां के भैरव पर्वत पर गिरा था। हरसिद्धि माता मंदिर अवन्तिकापुरी का एक और शक्ति और सिद्धपीठ है जो उसी भैरव पर्वत है। इसी क्षेत्र में माता गढ़कालिका का धाम भी जाना जाने लगा। लिंग पुराण की कथा अनुसार जब प्रभू श्री रामचंद्र जब लंका पर दिग्विजय कर वापिस अयोध्या लौट रहे थे तब रास्ते मे रुद्र सागर तट के निकट रुके थे। उस रात्री माता कालिका भूख से व्याकुल नर भक्षण करने निकल पड़ी, तब उन्हें राम भक्त हनुमान दिखे और उन्हें पकड़ने माँ झपटी तो हनुमान जी ने भीम काय रूप धारण कर लिया और माता वहाँ से चली गयी। जाने के पश्चात जो अंश गालित हो कर गिर गया उस अंश से पिंडी प्रकट हुई।  ज्ञातव्य हो, इस स्थान को गढ़ नाम से जाना जाता था इसी से मंदिर का नाम गढ़कालिका कहा जाने लगा।


माँ गढ़कालिका

  

इतिहास:


मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्ष द्वारा 606 ईसवी में करवाया गया था और मध्यकाल में राजा हर्षवर्धन ने भी अन्य कई कार्य करवाकर मंदिर की शोभा बढ़ाई। ग्वालियर के सिंधियाओं ने मंदिर का पुनःनिर्माण कार्य करवाया गया था। 



महामूर्ख कवि कालिदास:


उज्जैन नगरी को कालिदास की नगरी भी कहा जाता है। अपने जीवनकाल में कालिदास महानतम कवि के पहले महामूर्ख माने गए थे। उदाहरण के तौर पर एक बार वे एक वृक्ष की डाल पर बैठ वही डाल काटते देखे गए थे। इससे उनकी पत्नी विद्योत्तमा इस बात से चिंतित थी। फिर कालिदास माँ गढ़कालिका की आराधना में मग्न हो गए। फल स्वरूप माँ गढ़कालिका ने उन्हें इसी मंदिर स्थलीय पर दर्शन दे कर अभिभूत किया। माँ के वरदान के कारण वे "शामला दण्डक" महाकाली स्तोत्र और अन्य 6 संस्कृत महाकाव्यों की रचना कर पाए। यह स्तोत्र कालिदास की सबसे उत्तम और कालजयी रचनाओं में से एक है। उज्जैन या किसी भी स्थान पर कवि कालिदास के नाम पर किये जाने वाले कार्यक्रमों में माँ गढ़कालिका का आवाह्न अवश्य किया जाता है। माँ कालिका की कृपा से कालिदास परम् मूर्ख से महान कवि बन गए। 


    


गढ़कालिका मंदिर:


माँ गढ़कालिका के जीवंत से दिखनेवाले चेहरे पर सिंदूर गढ़ा है। सिर से मस्तक तक चांदी का मुकुट माँ की प्रतिमा में चार चांद लगाता है। मूर्ति की अनूठी बात है माँ के चांदी के दांत जो किसी और शक्तिपीठों में देखने को नहीं मिलते। माँ कालिका के दाएं ओर माँ लक्ष्मी और बाएं ओर माँ सरस्वती विराजी हैं। माँ को पुष्पों की माला और पुष्पों के स्थान पर तंत्र पूजन के नियमित नींबू से बनी माला चढ़ाई जाती है। तथा नींबू का प्रसाद भक्त लेके जाते हैं। इन नींबुओं को घर में रखने पर माँ उस घर की रक्षा करती हैं।


माँ गढ़कालिका शक्तिपीठ


वैसे साल के 12 मास इस मंदिर में तांत्रिकों का जमावड़ा बना रहता है किंतु नवरात्र और गुप्त नवरात्र में तांत्रिक इस मंदिर में विशेष साधना करने आते हैं। मंदिर के समक्ष एक प्राचीन दीप स्तम्भ भी खड़ा है जिसे नवरात्र में प्रज्वलित किया जाता है।


माँ गढ़कालिका मंदिर का सम्पूर्ण क्षेत्र अलग-अलग देवो के मंदिरों से अक्षरसः घेराव किये हुए हैं। मंदिर एक किमी दूर भैरव मंदिर है वहीं बगल में भगवान नारायण का चतुर्मुख मंदिर, गणेश मंदिर, हनुमान मंदिर और गोरे भैरव का मंदिर है।


इस देवी मंदिर के पास 52 स्नान कुंड है। इन कुंडों म् एक कुंड के नीचे एक शिवलिंग विराजमान है। इस कुंड की प्रसिद्धि इसके सिद्धि प्रदान करने के लिए मान्यता है। साधक हो या तांत्रिक, जिसे भी अपनी सिद्धि को सिद्ध करना हो तो उसे इस कुंड में जाना आवश्यक होता है। मंदिर के निकट क्षिप्रा नदी के घाट पर माता सती की मूर्तियां है और उज्जैन में हुई सारी सतियों की स्मृति में खड़ा किया हुआ स्मारक भी बना है

  

     


मंदिर आरती:


देश के अन्य तीर्थो या प्रसिद्ध मंदिरों की तुलना में गढ़कालिका मंदिर में आरती का समय बिल्कुल भिन्न है। यहां माँ की आरती सुबह 10 बजे और संध्या सूर्यास्त के समय होती है। कवक हफ्ते में शुक्रवार के दिन में दोपहर 12 बजे का समय आरती के लिए होता है। 

आरती में उपयोग किये जाने वाले छोटे और बड़े वाद्य यंत्र होते हैं जो बड़े उत्साह और हर्ष के साथ बजाए जाते हैं।


 ✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



शनिवार, 18 नवंबर 2023

ककनमठ मंदिर का रहस्य, मोरेना, मध्यप्रदेश

मध्यप्रदेश के मोरेना जिले में लह-लहाते बाजरे के खेतों के बीच बसा है मध्य भारत के चुनिंदा रहस्यमय मंदिरों में शायद सबसे अनूठा मंदिर। यह है ककनमठ मंदिर जो अपने अंदर कई अनसुलझी गुत्थियां बांधे बैठा है। 


बुधवार, 1 नवंबर 2023

निकुंभला देवी मंदिर, बैतूल, मध्यप्रदेश


माता निकुंभला कौन है?


सबसे पहले यह ध्यान में रहना ज़रूरी है कि माता निकुंभला शक्ति रूपों में कोई अलग रूप नहीं हैं और ना ही शाक्त परंपरा के बाहर माने जाने वाले रूपों में से एक है। देवी का हर अवतार शाक्त परंपरा के अंतर्गत ही देवी मार्कण्डेय पुराण और दुर्गासप्तसती में बताए गए रूपों में सूचित हैं।  माँ निकुंभला माता पार्वती के योग निद्रा रूप से निकला हुआ तीव्र अघोर रूप है। यह देवी रूप की पूजा केवल अघोरी या तंत्र के उच्चतम साधक ही करते है। सबसे उग्र और सबसे भयंकर स्वरूपों में माँ के इस रूप को केवल तंत्र और अघोर साधना से प्रसन्न किया जा सकता है।


सिंह रूपी माँ निकुंभला

माँ निकुंभला का प्रादुर्भाव:


शास्त्रों के अनुसार, माँ निकुंभला का अवतरण भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार के पश्चात की घटना है। नरसिंह अवतार लेने और असुर हिरण्यकश्यप का अंत करने के बाद भी नारायण का क्रोध शांत नहीं हो रहा था तब भगवान शिव ने शरभ अवतार धारण किया था।। शरभ अवतार आधा सिंह और और आधा पक्षी का रूप था। लंबे समय तक दोनों देवों में युद्ध चलता गया किंतु परिणाम कुछ नहीं निकला। शिव और नारायण की शक्ति एक दूसरे के बराबर थी। ब्रह्मांड के अस्तित्व पर सवाल आ गया था। 


तब समस्त देवी-देवताओं ने माँ पार्वती से प्रार्थना की। माँ भक्तों की प्रार्थना पर अपने योग निद्रा रूप से निकुंभला रूप प्रकट किया है। योग निद्रा रूप से माता ने प्रचंड गर्जना कर दोनों देवों को स्तब्ध कर दिया और इससे दोनों शांत हो अपने दैवीय रूप में लौट आए।


माँ पार्वती का निकुंभला रूप भगवान विष्णु के नरसिंह और भगवान शिव के शरभ अवतार की संयुक्त शक्ति है। इसीलिए माता यह करने में सफल हो पाई। इस नृसिंहनी रूप में माँ अच्छे और बुरे के संतुलन का प्रतिनिधित्व करती हैं। 


माता निकुंभला को कई सुंदर नामों से पुकारा जाता है। यह नाम प्रत्यंगिरा, अपराजिता, सिद्दलक्ष्मी, पूर्ण चंडी और अर्ध वर्ण भद्रकाली है। 


रावण की कुल देवी: 


माँ निकुंभला राक्षस राज रावण के परिवार की कुल देवी भी थी। रावण से अधिक उसका पुत्र मेघनाद माँ निकुंभला का भक्त और परम् उपासक था। माता के आशीर्वाद के कारण उसने इंद्र देव पर विजय पाकर इंद्रजीत कहलाया। मेघनाद के ऊपर माता की बड़ी कृपा दृष्टि थी क्योंकि वह यज्ञ, अनुष्ठान किया करता था। इसी घोर साधना के कारण उसने लक्ष्मण जी को पहले नागपाश से और फिर विषेले बाणों से मूर्छित कर दिया था। 


मेघनाद को परास्त तब तक नहीं किया जा सकता था जब तक उसके माता के लिए करवाये जा रहे यज्ञ को अवरोधित य्या भंग ना किया जाए। लंका में बने माँ निकुंभला देवी के मंदिर की जानकारी स्वयं रावण और उसके परिवार के अलावा और किसीको नहीं थी। इस बात की जानकारी विभीषण ने भगवान राम को दी और वानरों के समूह के साथ लंका के गुप्त मंदिर में जहां मेघनाद यज्ञ कर रहा था भंग कर दिया। परिणाम स्वरूप अगले दिन युद्ध में मेघनाद मारा गया।


"माँ निकुंभला देवी लंका की रक्षक देवी थी। 

रावण के वंशजों ने देवी की चरण पादुका लंका ले जाकर मंदिर बनवा दिये थे।"

 

मंदिर प्रवेश द्वार एवं परिसर


इतिहास:


 शास्त्रों के अनुसार त्रेतायुग के समय बैतूल को बेताल नगरी कहा जाता था। रामायण काल मे यह रावण पुत्र मेघनाद के अधीन होने के कारण बेताल नगरी पड़ा। इसे दण्डकारण्य का हिस्सा माना जाता था। इसी बेताल नगरी में रावण पुत्र मेघनाद ने तीन साधनाएं की थी। प्रथम माँ अपराजिता, दूसरी माँ प्रत्यानगिरा और तीसरी माँ निकुंभला की। बेतुल से छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट नाम से रहस्यमय धाम है। वहीं से एक गुप्त और गहरी सुरंग धरती के अंदर से होते हुए पाताल लोक तक जाती है।


 इसी मंदिर स्थली पर यज्ञ-तपस्या करने पर माता निकुंभला ने प्रसन्न हो कर मेघनाद को दर्शन देकर उसे एक दिव्य रथ प्रदान किया था जिस पर बैठकर वह आगे चल कर श्री राम वानर सेना के साथ युद्ध मे उतरा था। 






बैतूल और आस-पास बसे आदिवासी रावण और मेघनाद की पूजा भी करते हैं। हर वर्ष चैत्र महीने में होली पश्चात मेघनाद मेला भी आयोजित किया जाता है। 



मंदिर और रहस्य:


बैतूल जिले के मुख्यालय से 6 किलोमीटर दूर बैतूल बाजार में भवानीपुर में स्थित है माँ निकुंभला का देश के दो मंदिरों में से एक। 

मंदिर की देख-रेख बब्लू बाबा करते है। मंदिर और मंदिर परिसर में आस पास रात के समय रुकने की मनाही है। केवल तंत्र साधकों को रुकने की इजाज़त है। 


बैतूल के निवासियों के अनुसार माँ की असीम कृपा के कारण आज तक शहर में कभी कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आयी और ना ही दंगे आदि जैसी घटनाएं घटित हुई हैं। यह सब पिछले 150 वर्ष के बैतूल शहर के रिकॉर्ड में दर्ज है। 


देवी विग्रह


निकुंभला मंदिर कैसे पहुंचे:


बेतुल बाजार से बेतुल रेलवे स्टेशन किमी है। बैतूल रेल मार्ग से पहुंचने के लिए नागपुर और भोपाल रेलवे स्टेशन सबसे करीबी स्टेशन। दिल्ली-हैदराबद-चेन्नई रूट पर अनेकों गाड़ियों चलती है। इन गाड़ियों से बैतूल पहुंचा जा सकरा है।


मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल का राजा भोज हवाईअड्डा और नागपुर का नागपुर हवाई अड्डा सबसे करीबी हवाई अड्डा है।


 


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

शनिवार, 30 सितंबर 2023

डॉ हनुमान मंदिर, भिंड, मध्यप्रदेश

दंदरौआ सरकार मंदिर मे विराजे हनुमंजी - हनुमान चालीसा की पंक्ति "नासे रोग हरे सब पीड़ा, जपत निरंतर हनुमत बीरा" इसको पूर्णतः साकार करती है।

गोपी रूप और नृत्य मुद्रा में भला बजरंग बली की हमने शायद ही कल्पना की होगी। भिंड जिले के माहेगावं तहसील के दंदरौआ गांव में मनमोहक छवि लिए दर्शन देने बैठे है अंजनी पुत्र जिन्हें यहाँ डॉ हनुमान या दंदरौआ सरकार के नाम से भी बुलाया जाता है। 

 इतिहास:


दंदरौआ सरकार जी का मंदिर 500 वर्ष प्राचीन् माना गया है। रोड़ा रियासत के चंदेल राजवंश में राजा अमृत सिंह बजरँगबली के बड़े भक्त थे। लंबी साधना, सेवा के बाद राजाजी को आंजनेय ने स्वप्न में दर्शन देकर अपनी उपस्थिति विग्रह रूप में बताई। मूर्ति, नगर के पास एक तालाब के अंदर प्रकट हुई थी। उसी स्वप्न में प्रभु कहा मेरा यहां गुजारा नहीं होगा सो मुझे यहां से दंदरौआ ले के जाएं। राजा ने तुरंत आदेश पूरा किया। 


गोपी वेषधारी आंजनेय



स्वामी रामदास जी महाराज:


प्रातः स्मरणीय संत श्री रामदास जी महाराज मंदिर के महंत और प्रमुख पुजारी हैं। रामदास जी का जन्म भिंड जिले के ही मंडरौली ग्राम में एक सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका बचपन का नाम राम नरेश था और रामदास बनाने का कार्य इनके गुरु और मंदिर के महंत पूर्व ब्रह्मलीन 1008 संत श्री पुरुषोत्तम दास बाबाजी महाराज ने किया था।संत पुरुषोत्तम दास जी महाराज के गुरु थे ब्रह्मलीन गुरुबाबा श्री श्री 108 बाबा लछमन दास जी(उर्फ मिटे बाबा)।दंदरौआ धाम उनकी तपस्थली भी थी। 


राम नरेश को ज्योतिष का ज्ञान बालक राम नरेश ने जब कक्षा 8 वीं पास कर ली तब मंदिर के पुजारी जीवनलाल जी दृष्टि पड़ी और उन्होंने इन्हें ज्योतिष सिखाने का निश्चय किया। इस दौरान में स्वामीजी का अपने घर परिवार से सम्बंध कम होता गया। 


संत रामदास जी बालपन से शांत और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण उन्हें धीरे-धीरे मंदिर संभालने की जिम्मेदारी दी गयी। संत जी ने आश्रम में गौशाला भी खोली है जो वृंदावन की गौशालाओं से कम नहीं आंकी जा सकती हैं। सनातन धर्म को बुलंद करने के लिए महाराज जी ने संस्कृत विद्यालय भी बच्चों के लिए खोला है। 


पूज्य महंत स्वामी राम दासजी महाराज



दंदरौआ सरकार मंदिर:


मंदिर में हनुमान जी के विग्रह को गोपी वेश और डॉक्टर के सफेद वस्त्र पहनाया जाता है। बजरँगबली की मूर्ति चमत्कारी है। यहाँ विराजे बजरँगबली आने वाले श्रद्धालुओं की हर प्रकार की पीड़ा चाहे मानसिक या शारीरिक दोनों तरह से नष्ट करने के लिए जाने जाते है। बजरंगी डॉक्टर और मजिस्ट्रेट के बनके बिमारियों और किसी भी प्रकार के कोर्ट-कचहरी की मुश्किलों का निवारण करते है और यह अनेक भक्तों ने यहां आने के बाद अपने अनुभव साझा किए है। मंदिर में एक बार आंजनेय के डॉक्टर रूप में दिव्य दर्शन करने पर और सच्चे हृदय से प्रार्थना करने पर अवश्य पूरी होती है। इसमें कोई संदेह नहीं ऐसा दंदरौआ ग्राम के वासी बताते हैं। 


जिस किसी भी विपदा में मनुष्य फंसा हो यहां अगर कोई पाँच मंगलवार करले उसके सारे कार्य सिद्ध हो जाते है। ला इलाज बीमारियों के लिए श्रृधेय स्वामी रामदास जी महाराज भभूति और बजरँगबली को चढ़ाया गये जल के सेवन के लिए कहते है। इसके सेवन से आज तक सैंकड़ो मरीजों को हर तरह के कष्टकारी रोग से मुक्ति मिली है। 


मंदिर में हनुमान मंदिर के बाहर हनुमान जी को समर्पित एक गदा रखी गयी है। भक्त प्रभु को झूला झूला सके इसके लिए एक झूला मंदिर के भीतर बना हुआ। इसे भक्त हिलाते डुलाते है जैसे इसमें प्रभु को लेटा देख रहे हो और सेवा दे रहे हो। 


भला ऐसा हो सकता हो कि जहाँ बजरंगी का इतना विशेष मंदिर हो और वहां उनके और सबके स्वामी प्रभु श्री राम ना हो? बिल्कुल भी नहीं। इसलिए मंदिर प्रभु श्री राम, माता जानकी और लक्ष्मण का भी मंदिर बनवाया गया सरकारहैं। रामनवमी और श्री हनुमान प्राकट्य दिवस हर्षोल्लास के साथ और सारी रीतियों के साथ मनाया जाता है। 



दंदरौआ मंत्र:


सनातन वैदिक धर्म अनुसार देवी-देवताओं के नाम, शक्तियों और गाथाओं को एक विशेष प्रकार की प्रार्थना  में संघटन कर उसका पाठ किया जाता है तब उस देवता(या) उस दिव्य ऊर्जा उससे सम्बंधित पीड़ा पर पहुंच उस पर कार्य करती है। दंदरौआ धाम का चमत्कारी  मंत्र है ''ॐ श्री दं दंदरौआ हनुमंते नमः"। इस मंत्र में ॐ और बाकी शब्दों का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है:-

   "ॐ" में त्रिदेवों महादेव, विष्णु और ब्रह्म की शक्तियां समाहित हैं। प्रकृति के तीन गुण सत, तमस और रजस - तीनों के मनुष्य के स्वास्थ्य के आवश्यक संतुलन को दर्शाता है। उत्तम स्वास्थ्य के लिए मनुष्य शरीर में वात, पित्त और कफ भी आवश्यक है नहीं तो यह बीमारी बनने का कारण होता है। "श्री" - महालक्ष्मी को चिन्हित करता है जो पीड़ित मरीज को अच्छे स्वास्थ्य और वैभव का आशीर्वाद देती है। 'दं' -भगवान हनुमान के समक्ष दया का भाव उतपन्न करता है। 'द' - दान का जो धर्म और मोक्ष की कामना जगाता है। 'रौ' -कष्ट, दुख और रोगों के नाश को दर्शाता है। 'आ' - का अर्थ, आने वाले पीड़ित सुख और प्रसन्न हो वापिस जाते है। 



श्री हनुमान गदा

बुधवा मंगल हर वर्ष सितंबर महीने में मनाया जाता है जिसमें लाखों श्रद्धालु दर्शन करने दंदरौआ धाम आते हैं। 






 

दंदरौआ सरकार कैसे पहुँचे:


दंदरौआ ग्राम चिरोल और धमोर गांवों के बीच बसा है। यह क्षेत्र सड़क मार्ग से पूरी तरह से जुड़ा हुआ है। सबसे करीबी शहर ग्वालियर है। दंदरौआ पहुँचने के लिए डबरा-मौ मार्ग से ६५ -७० किमी का दूरी है। सरकारी और प्राइवेट बस और प्राइवेट कैब भी उपलब्ध रहती है। 


।। जय श्री राम ।। 


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 ✒️ स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



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