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रविवार, 14 जनवरी 2024

आघोरी बामाखेपा

"अघोर साधना में तीन प्रकार के साधक होते हैं। पहले पशु जो अपनी पशुओं वाली मूल इच्छाओं को पूरा करने के लिए साधना करते हैं, दूसरे वीर जो मूल इच्छाओं को त्याग ऊपर उठने के लिए साधना करते है और तीसरे वे दिव्य आत्माएं जो इन सारे सांसारिक इकच्छाओं से भी आगे ईश्वर में लीन होना चाहते हैं। अघोरी बामाखेपा उन्हीं दिव्य अवधूतों की प्रजाति में आते थे।"


बाल्यकाल:


बामाखेपा का जन्म 18 फरवरी, 1837 की तारीख को बीरभूम के आलता गांव में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बंगाली में 'खेपा'(या क्षेपा) का अर्थ पागल से नहीं होता। खेपा अर्थ सांसारिकता से परे रहने वाले मनुष्यों या सन्यासियों के लिए किया जाता है। बामाखेपा का असल नाम बामा चरन चट्टोपाध्याय था। पिता और माता धार्मिक भक्ति गीत गाया करते थे। इसके सिवा इनका और कोई दूसरा जीवन यापन का साधन नही था। गरीब होते हुए भी उस समय बामाखेपा के माता पिता सम्मानीय लोगों में से एक थे। नन्हें बामा की रोज एक विचित्र आदत थी, हर रात्रि के मध्य अपने पड़ोसियों के घर मे घुस कर पूजा घर से देवी-देवताओं के चित्र चुराकर पास नदी के किनारे रात भर पूजा किया करते थे। जैसे ही सुबह होती उनके माता-पिता उन्हें बहुत दांत फटकार लगाते किंतु बामा अपनी आदत न छोड़ते। बाल्यकाल से ही संसार की मोह माया से विरक्त थे बामा और यही भाव उनको बंगाल की शाक्त परंपरा में महानुभवों में उच्चतम स्थान पर बिठाता है।


अघोरी बामाखेपा

 निर्धनता के चलते बामा आटला गांव के छोटे विद्यालय के आगे शिक्षा नहीं ले पाए। धार्मिक प्रवृत्ति होने के बाद भी घरवाले शास्त्रों के अध्ययन के लिए संसाधन नही थे। छोटी आयु मे ही पिता के असमय निधन हो गया और घर की सारी जिम्मेदारी इनकी माँ के कंधों पर आ गयी। इनके घर पर एक विधवा बड़ी बहन भी थी। दिन प्रतिदिन परेशानियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थी। 

तभी बामा को उनकी माँ ने अपने रिश्तेदार के आग्रह पर गायों की देखभाल का कार्य करने के लिए भेज दिया। यह कम बहुत सरल होने के बावजूद भी बामा इसे करने में अक्षम रहे। उन्हें केवल माँ तारा का स्मरण ही रहता। एक बार उन्होनें गुड़हल का पुष्प देखा और उसमें माँ तारा की छवि दिखाई दी। माँ तारा का नाम सुनते ही बेसुध हो जाते थे। माता के नाम के प्रति किसी और में ना देखी, इतनी तीव्र एकाग्रता थी बामाखेपा में। जैसे घनश्याम के प्रेम में मीरा, श्री राम के लिए शबरी वैसे ही बामा अपनी देवी माँ तारा के प्रेम में डूबे हुए थे। देवी तारा इनकी बड़ी माँ थी और सगी छोटी माँ ये सम्भोधन दिया था बामा ने।



तारा साधना और सिद्धि:


माँ तारा की साधना का वह दिन आया जब भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी और मंगलवार की रात्रि का उत्तम महूरत था। बामा जलती हुई चिता के समक्ष साधना करने लगे। देखते ही देखते चारों ओर नीला प्रकाश पसर गया। ब्रम्हांड का समूचा तेज लिए माँ तारा से बामा का पहली बार साक्षात्कार हुआ। कमर में बाघ की खाल, दस भुजाओं में विभिन्न हथियार, कमल, खड्ग, पैरों में पायल और आलता रंगे और गले में मुंडमाला धारण किये, माँ ने प्रसन्न मुद्रा में बामा को गले लगाया। तीन दिन और तीन रात तक बामा साधना की अवस्था मे श्मशान में पड़े रहे और जब होश आया तब पूरे गांव में माँ-माँ चिल्लाते हुए यहां-वहां दौड़ने लगे। उनकी माता को स्पष्ट समझ आ गया कि बामा पूरी तरह से पागल हो गया है। परेशान हो कर बामा को तत्काल घर के अंदर बंद कर दिया। दरवाजा खुलने पर वे घर से भागकर बामा प्रसिद्ध गुरु कैलाशपति बाबा और उनके सहयोगी तांत्रिक मोक्षानंद महाराज के पास पहुँचे, जो सिद्ध पुरुष और गुरु थे। उन्हें बामा में सच्चे और निश्चल शिष्य की योग्यता दिखाई दी सो तुरंत अपना शिष्य बना लिया। पूरे शास्त्रीय विधान के साथ बामा ने गम्भीर होकर माँ तारा की साधना दोनों के मार्गदर्शन में शुरू की। कुछ ही समय बीता था तो उनकी माँ को कैलाशपति के सानिध्य में होने की सूचना प्राप्त हुई। माँ के बार-बार मनाने पर भी बामा घर वापिस जाने के लिए नहीं माने। 


 साधना की एक रात्रि तंत्र साधना में उपयोग की जानेवाली पंच मक्कार भोग सामग्री(मदिरा, मांस, मछली, मैथुन और मुद्रा) रखी गयी थी तब बामा ने बिना गुरु की आज्ञा लिए (अभिमंत्रित) मदिरा ग्रहण कर ली। अन्य शिष्यों नद्वारा खेद प्रकट किया किंतु गुरु कैलाशपति ने इशारों में तांत्रिक मोक्षानंद को बताया की माँ तारा ने बामा के शरीर में प्रवेश कर मदिरा का भोग स्वीकार किया है। उसी क्षण - बामा चरण चट्टोपाध्याय से अघोरी बामाखेपा बन गए। गुरु कैलाशपति ने तत्काल तारापीठ श्मशान छोड़ने का निर्णय लिया क्योंकि सनातन तंत्र परंपरा अनुसार एक सिद्धस्थली पर दो सिद्धपुरुष निवास निवास कर सकते। उस अर्ध रात्री पश्चात् कैलाशपति बीरभूम में फिर कभी नहीं दिखे। 

                
   
बामाखेपा समाधी, तारापीठ 


छोटी माँ बामा के लिए चिंतित थी। कोशिश करके एक परिचित ने पुत्र बामा को तारापीठ मंदिर में पुष्प संग्रह की नौकरी मिल गयी। किंतु यह कार्य भी वे नहीं कर पाए। कार्य करते हुए भी वे माँ तारा के ख्यालों में खोए रहते थे। वे कोई कार्य करने के लिए जन्मे नहीं थे सिवाय माँ की साधना और सेवा। दिन भर गांजा पीते और श्मशान में नग्न रहते। किसी के नग्न रहने पर प्रश्न करने पर यही कहते, "जब मेरे पिता महादेव नग्न है और माता तारा भी नग्न है तो में भी उनके जैसे बनने का प्रयास कर रहा हूँ। मुझे समाज से दूर श्मशान में दिगम्बर बनकर रहना ही अच्छा लगता है। 

    
              
समाधी गर्भ-गृह




गुरु कैलाशपति ने बामा को तारापीठ का आध्यात्मिक प्रमुख बना दिया। इसमें मंदिर के पण्डों को सर्वाधिक आश्चर्य और ईर्ष्या हुई। एक आधे पागल को मंदिर का प्रमुख पुजारी बनाया जाना उन्हें रास न् आया। अब हर क्षण वे बामा को मंदिर के बाहर करने का रास्ता खोजते रहते। ऊपर से बामा की पूजन विधि शास्त्र अनुसार नहीं थी। कभी दिन भर पूजा चलते रहती तो कभी दो-तीन दिन पूजा नहीं होती। कभी फूल माला देवी को चढ़ाते तो कभी खुद पहन लेते। फिर एक दिन पण्डों ने देवी को भोग के लिये बने प्रसाद को बामा को पहले खाते हुए पकड़ लिया - मौके का अनुचित प्रयोग करते हए सभी पण्ड़ों ने बामा को बुरी तरह पीटा और श्मशान में ले जाकर पटक दिया। बामा माँ से नाराज़ होकर मन मे शिकायत कर रहे थे, "मेरा इसमें क्या दोष?...में तुम्हें भोजन का भोग लगे इससे पहले मैं  स्वाद लेकर देखना चाहता था की भोजन् स्वादिष्ट बना है भी या नहीं?... अगर स्वादिष्ट नहीं है तो रसोइयों से कहकर पुनःह भोजन बनाने के लिए कहता हूँ। माँ और बामा का रिश्ता एक बच्चे का अपनी माँ के जैसा था। जैसे एक बच्चा और माँ अपनी। बामा, माँ तारा की भक्ति इस माँ-बेटे के प्रेम के भाव के जरिये करते थे। माँ रूठ जाती तो वे माँ को मनाते और वे रूठ जाते तो माँ उनके पास आती। 

              


उसी समय नटोर की रानी भवानी जो उस क्षेत्र को संभालती थी, उनके स्वप्न में माँ तारा ने दर्शन देकर अपने पुत्र के साथ हुए क्रूर व्यवहार पर क्रोध व्यक्त करते हुए तारापीठ और बीरभूम वासियों को इसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने के लिए कहा। रानी ने तुरंत अपने लोग बामा की खोज में भेजे। बहुत ढूढ़ने पर बामा आखिरकार एक गुफा में बैठे हुए मिले और मंदिर वापिस नहीं आने पे अड़ गए। बामा ने मंदिर में वापिस प्रवेश रानी भवानी के आग्रह पर और सारे पण्ड़ों को चेतावनी दी। बामा को मंदिर से कोई भी नहीं निकोय जब वे स्वयं लेने पहुँची। पण्ड़ों को खरी-खोटी सुनाने केर चेतावनी देने और रानी की शर्तों पर पण्ड़ों को आखिर बात माननी पड़ी। भले ही बामा की पूजा पद्धति उनसे कितनी ही अलग थी किंतु उनके पास और कोई रास्ता नहीं था।



बामाखेपा के चमत्कार:


 बामाखेपा के मन मे कभी कोई वासना या अशुद्धता का विचार नही आता था। वे हर स्त्री में माँ तारा को देखते थे। एक बार एक स्त्री ने उनको मोहित करने की चेष्टता की।  निकट आकर स्पर्श कर उनके पुरुष अंग को ढूंढने लगी पर काफी ढूंढने पर भी वह मिल ना सका। अचानक बामा रोने लगे और बोला माँ तारा फिर उस स्त्री के वक्ष स्थल की ओर देखा। देखा ही था कि उसके वक्ष से रक्त की धारा बहने लगी और वह वहीं बेहोश हो गयी। अततः बामा की शुचिता भंग करने में उसका प्रयास विफल रहा। 


तारापीठ में नन्दा हांडी नाम की शूद्र महिला विचलित कर देने वाले कोढ़ से पीड़ित थी। पूर्ण श्रद्धा रखकर वह बामा की नित्य सेवा भोजन लाकर किंया करती थी। बामा ठहरे थे एक उच्च जाती के ब्राह्मण और इस बात की परवाह करे बिना उसकी सेवा को स्वीकार करते थे। उसकी कोढ़ की पीड़ा का अंत करने के लिए बामा ने उसे कुछ मिट्टी अपनी  त्वचा पर रगड़ने के लिए दी। कुछ समय में वह बूढ़ी महिला कोढ़ मुक्त हो कर खुशहाल जीवन बिताने लगी। 


बामा की माँ की मृत्य के पश्चात् दो विस्मित कर देने वाली घटनाएं हुई। बामा का गांव मंदिर से द्वारका नदी के उस पर था। वे अपनी माँ का दाह संस्कार मंदिर वाली श्मशान भूमि पर करने की ठानी तब जोरदार बारिश होने लगी और नदी अपने उफान पर आ गयी। नाव पार कराकर लाने वाला खिवैय्या भी उस गांव में एक ही था। बामा के अनुरोध करने पर खिवैय्ये ने बामा से कहा कि उसके पास केवल एक नाव है और इसी से वह जीवन यापन करता है। सो इतने भारी तूफान में वह नाव नहीं चला सकता। बामा एक रहस्यमयी मुस्कान देते हुए किसी दुर्लभ घटना होने का संकेत दिया जो वह नाववाला न समझ पाया। बामा ने अपनी माँ का शव उठाया और उफ़नती हुई नदी पर शव लेकर पाव लगाया। छोटी माँ के श्राद्ध में सारे गांव वाले फ़टी आंखों से नज़ारा देखते रह गए। श्राद्ध का निमंत्रण तारापीठ के निकट 20 गांवों के प्रत्येक परिवार को भेजा गया था। गांव वालों ने बामा की हंसी उड़ाते हुए सोचा कि एक पागल जो स्वयं अपना पेट नहीं भर सकता, वह इतने सारे गांववालों को क्या खिलायेगा? भोर के घण्टे बाद तारापीठ में बैल गाड़ियों में भरभर कर अनाज, सब्जी और फल जाने कहाँ से पहुँचने लगे। गांववाले स्तभ्ध हो कर देखने लगे। मृत्यु भोज शुरू हुआ और हर किसीने भर पेट भोजन ग्रहण किया। उसी दिन तारापीठ मूसलाधार वर्षा के होने के संकेत हुए तोह बामा ने एक बांस की कांठ लेके जिस फैलाव में मृत्यू भोज हो रहा था गोलाकार घेराव बनाया। माँ तारा से प्रार्थना कर उस क्षेत्र में बारिश न गिरे प्रार्थना की और बस यही हुआ। भोजन कार्यक्रम से संपन्न होने पर माँ तारा से पुनः प्रार्थना कर वर्षा रुकवाने के लिए कहा और सारे गांववाले अपने स्थान वापिस जा पाए। 


बामाखेपा के अद्वितीय चमत्कारों की ख्याति जगह-जगह फैलती गयी। हर प्रकार के लोग उन तक आने लगे। चाहे दीनहीन हो या सेठ; कोई केवल उनके और माता के दर्शन के लिए आता या कोई अपने कष्टों से मुक्त होने। पास के गांवों से किसान अपनी फसल को नुकसान से बचाने और दुगनी फसल को करने के लिए उन्हें गांजा चढ़ाके के जाते। नागेन पांडा नामक पंडित तारापीठ एक अत्यंत बीमार रोगी को बामा के पास लेके पहुंचा। उसे उम्मीद थी कि वह रोगी ठीक हो जाने पर उसे धनवान कर देगा। पर इसके उलट बामा ने उस रोगी के कान में फट् बोला। फट् बोलते ही वह यमपुरी पहुँच गया। नागेन पांडा क्रोधित हो कर बामा पर उस व्यक्ति की हत्या का आरोप जड़ दिया। बामा ने कहा मैंने कुछ नहीं किया, यह माँ तारा ने मुझसे करवाया। माँ जो करती है अच्छा ही करती है। पांडा शांत हो कर चला गया। 


बामा को अपना भोजन श्मशान के पास विचरण करनेवाले कुत्तों से साथ भोजन साझा करना अच्छा लगता तहस। फिर एक बार कुछ युवक बामा को अपनी नित्य नियम देखते हुए बामा पर हंस पड़े, और दुगनी अनहोनी हुई - कुत्ते भयानक रूप के भैरवों में परिवर्तित हो गए और वे युवक चमगादड़ों में - स्थिति को देखते हुए बामा ने युवकों को पूर्व रूप में कर दिया। 


उन्नीसवीं सदी के कालखंड में बामाखेपा की अविश्वस्नीय आध्यात्मिक शक्ति के बारे में सुनकर सब दिशाओं से दुखी-बीमार आने लगे। ऐसे ही एक तपेदिक के रोग से ग्रसित मरणासन स्थित में लाये हुए व्यक्ति को बामा ने कठोर तरीके से ठीक किया। क्रोध स्वर में बामा ने उसकी गर्दन पकड़ कर कहा "अब और कितने पाप करना चाहते हो तुम?" वह व्यक्ति उठ खड़ा हुआ, भोजन और पानी मांगकर पूरी तरह कुशल अवस्था मे अपने घर पहुंच गया और पहले से अधिक समझदार और स्वस्थ हो गया। एक और किस्सा हर्निया रोग से तड़पते व्यक्ति की है जिसने आत्महत्या करनी की ठानी और तारापीठ आया। रात्री के समय उसने फांसी का फंदा लटकाया ही था कि उसे डरावनी आवाज़ सुनाई दी, यह आवाज बामा की थी जो माँ तारा की उस रात साधना कर रहे थे। वह व्यक्ति बामा के पास गया और अपनी सारी व्यथा सुनाई। ध्यानपूर्वक उसकी बात सुनकर अगले दिन बामा ने उसके पेट के निचले हिस्से में ज़ोर से लात मारी और वो बेशुद्ध हो गया। कुछ घण्टों बाद जब उसे होश आया तो इसके आश्चर्य की कोई सीमा न थी। वह हर्निया से मुक्त हो चुका था। 


अघोरेश्वर बामाखेपा के शिष्य हुए नीलकंठ चटर्जी जो आगे चलकर सिद्ध स्वामी निगमानन्द परमहंस कहलाये थे। तारापीठ के अलावा झारखंड के मालुटी में भी बामाखेपा की स्मृति में बामाखेपा मंदिर का निर्माण करवाया गया है।



ब्रम्हलीन:


तारापीठ बीरभूम के लोगो के अनुसार विश्व प्रख्यात होने के पूर्व स्वामी विवेकानंद तारापीठ आये थे और बामाखेपा से आशीर्वाद लिया था। तारापीठ के अवधूत ने स्वामीजी के बारे में भविष्यवाणी भी की थी कि यह युवक भविष्य में भारत में सनातन क्रांति लाएगा। जुलाई महीने की 18 तारीख को सन् 1911 में बामाखेपा अपनी माँ तारा में विलीन हो गए।

   
बाबा बामाखेपा


।। जय माँ तारा ।। 

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✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



इन्हें भी देखें:-


तारापीठ, बीरभूम

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