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मंगलवार, 8 अक्टूबर 2024

श्री शैल महालक्ष्मी भैरवी महापीठ, सिलहट, बांग्लादेश

  बांग्लादेश की राजधानी ढाका से 237 किमी दूर माँ शैल महालक्ष्मी भैरवी महापीठ स्तिथ है। यह शक्तिपीठ बांग्लादेश के महत्वपूर्ण हिन्दू मंदिर और तीर्थो में सर्वोत्तम माना गया है। इस महापीठ के बनने और स्थापना की कथा दुर्लभ है। 


"सनातन भूमि भारत से अलग होकर बने बांग्लादेश में हिंदू तीर्थों की कमी नहीं हैं। भारत में पश्चिम बंगाल की ही तरह बांग्लादेश में भी कुछ अति विशेष देवी मंदिर हैं। इस बात की जानकारी भारत वर्ष में भी कहीं मिलना नगण्य है।"


भारत से अलग होकर बने बांग्लादेश के सिलहट नगर का प्राचीन नाम श्रीहट्टा जाना जाता था। इसके पीछे का कारण कुछ विद्वानों द्वारा बताया गया है 'कंडता या हट्टा' जिसका अर्थ कंधा य्या गला(ग्रीवा) होता है। वहीं श्री'शैल' का अर्थ संस्कृत में पर्वत सो सिलहट नाम के अर्थ का मूल यह हो सकता है।


माँ शैल महालक्ष्मी मंदिर पौराणिक एवं आधुनिक इतिहास:-


भारतीय उपमहाद्वीप पर कुल 51 शक्तिपीठों में से चार आदि शक्तिपीठ हैं तो अठारह महापीठ हैं। 




माँ शैल महालक्ष्मी मंदिर वह स्थान हैं जहां माता सती की ग्रीवा(गर्दन) गिरी थी। यह जानकारी 250 वर्ष पूर्व किसी को नहीं थी। फिर उस समय के एक जमींदार देवी प्रसाद ने सड़क का निर्माण कार्य शुरू करवाया। मजदूरों को सड़क निर्माण के दौरान एक पत्थर पर चोट लगने से रक्त प्रवाह होने लगा। फिर एक रात माँ ने जमींदार को स्वप्न में दर्शन दिए। माँ ने भैरवी महालक्ष्मी रूप में देवीप्रसाद को शक्तिपीठ होने का अवगत करवाया तथा ग्रीवा रूपी पत्थर की विशेष पूजा करने का आदेश दिया। ततपश्चात मंदिर निर्माण भी शुरू किया गया। माँ के आदेश अनुसार मंदिर में चारों दीवारों को बनवाकर छत खुली छोड़ दी गई ताकी माँ धूप,बारिश और ठंड महसूस कर सके।  


श्री महालक्ष्मी भैरवी महापीठ में तीन बार नित्य पूजा की जाती है। चैत्र और शारदीय नवरात्रों में 

सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों पर भक्तों का विशेष तांता देखा जाता है। 




महापीठ के मुख्य गर्भ गृह में बलि नहीं दी जाती है। बलि चढ़ाने की व्यवस्था मंदिर के बाहर बनाई गई है। इसे 'निटटो पूजा' कहा जाता है। 


माँ के इस दुर्लभ शक्तिपीठ में स्वर्ण के आभूषण श्रृंगार माँ की ग्रीवा पर नहीं चढ़ाए जाते। शिला ग्रीवा पर रोज़ एक नई साड़ी पहनाई जाती है।


माता की पवित्र ग्रीवा


चैत्र और फाल्गुन नवरात्री की सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों पर मंदिर में भक्तों का तांता देखा जा सकता है। मंदिर सुबह 9 बजे दर्शन के लिए खोल दिया जाता है और रात्री 8 बजे बंद कर दिया जाता है।


माँ चामुंडा रक्तपीठ, देवास, मध्यप्रदेश


महादेव भैरव:


 महालक्ष्मी भैरवी महापीठ में भैरव महादेव भी स्थापित है। मंदिर के पुजारी और स्थानीय निवासियों अनुसार महादेव भैरव के पूर्वी कोने में होने की जानकारी संत ब्रह्मानंद गिरी महाराज और उनके शिष्य को स्वप्न में पता चली थी। 


महादेव भैरव महालक्ष्मी पीठ से पश्चिम की ओर एक पहाड़ी पर विराजित हैं। ब्रह्मानंद गिरी महाराज जी के एक शिष्य आचार्य शंकर 13वी सदी के एक महान संत थे। वे दशनामी सम्प्रदाय के संत थे। महादेव भैरव के स्वप्न मे बताई जगह को खोज निकालने के पूर्व उन्होंने समाधी ले ली। उन्हीं के साथ उनके गुरु ब्रह्मानंद गिरी जी एक और महान शिष्य और बाद में संत हुए - जिनका नाम बिरजानाथ न्यायबगीश था। 


लिंग रूपी भैरव


संत बिरजानाथ के दो शिष्य थे। कैलाश चन्द्र भट्टाचार्य और कृष्ण कुमार भट्टाचार्य। सन् 1286 के माघ महीने की एक रात्री संत बिरजानाथ को विचित्र स्वप्न में उनके गुरु ब्रह्मानंद जी महाराज उसी टीले पे चढ़ते हुए दिखे।   उनके साथ उनके बिरजानाथ के शिष्य भी इस इस कार्य में लगे हुए ऐसा दृश्य वे देखते हैं। स्वप्न में गुरुदेव ब्रह्मानंद कहते हैं "यह वही स्थल है जहां प्रभु दर्शन देंगे"। खुदाई पर भगवान शिव का लिंग प्रकट हो जाता है। 


संत जी के दोनों शिष्यों को भी ईश्वर इकच्छा से वही स्वप्न उसी रात्री को आया। संत बिरजानाथ तुरंत अपने शिष्यों और अनुयायियों के साथ जाकर शिवलिंग खोज निकाले।



नोट: पाँच अगस्त 2024 में बांग्लादेश में राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के बाद मंदिरों पर हमले शुरू हो गए। इस समय श्री महालक्ष्मी भैरवी महापीठ मंदिर का क्या हाल है इस बात की कोई जानकारी नहीं मिल पाई है। जो दर्शक इस लेख को पढ़ रहे हो, अगर उन्हें कोई जानकारी है तो कृपया अवश्य कमेंट कर बताएं। 


- स्वप्निल. अ

शुक्रवार, 31 मई 2024

यमशिला का रहस्य

 भगवान जगन्नाथ की पृरी मंदिर सदियों से रहस्यों से भरा हुआ है। जगन्नाथ मंदिर को साक्षात वैकुंठ धाम भी कहा जाता है क्योंकि मंदिर में एक बार भगवान् के दर्शन कर लेने से मृत्यु पश्चात् प्रभु चरणों की प्राप्ति होती है। 

शनिवार, 11 मई 2024

योगमाया मंदिर,मेहरौली,दिल्ली

देश की राजधानी दिल्ली के दक्षिण में स्तिथ  माँ योगमाया का शक्तिपीठ मंदिर है। देवी योगमाया भगवान श्री कृष्ण की बड़ी बहन हैं। मेहरौली इलाके में सिद्धपीठ माँ योगमाया मंदिर का रिश्ता विंध्याचल की माँ विंध्यवासिनी मंदिर से भी एक रिश्ता है।


Maa Yogmaya

रविवार, 5 मई 2024

माँ छिन्नमस्तिका मंदिर, रामगढ़, झारखंड

 दस महाविद्याओं में पांचवी महाविद्या माँ छिन्नमस्ता का जागृत सिद्धपीठ झारखंड के रजरप्पा की मनोहारी सिकदरी घाटी में बसा है। रजरप्पा और रामगढ़ के निवासियों की कुल देवी माँ छिन्मस्तिका है। रामगढ़ गांव का यह क्षेत्र एक वनों से घिरा हुआ है। प्रकृति की गोद के मध्य बसे माता के मंदिर में मन तुरंत तन्मय हो जाता है। 


बुधवार, 1 मई 2024

भोजपुर शिव मंदिर, रायसेन, मध्यप्रदेश

 भोजपुर शिव मंदिर को प्राचीन भारत मे पूर्व का सोमनाथ भी बुलाया जाता था। प्राचीन भारत में यह मंदिर अपनी ऊंचाई और विशाल शिव लिंग के पूजन के लिये सर्व प्रसिद्ध था। वर्तमान समय मे भी मंदिर में पूजा अर्चना जीवित मंदिर परंपरा के अंतर्गत की जाती है। इस समय मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के अंदर संरक्षित है।

रविवार, 21 अप्रैल 2024

शिव पुत्री मनसा देवी मंदिर, हरिद्वार, उत्तराखंड

पौराणिक मान्यता:

माता मनसा को माँ पार्वती का ही रूप मन गया है। पुराणों और धार्मिक ग्रँथों के अनुसार माता मनसा के जन्म की कथा भिन्न-भिन्न है। अधिकतर कथाओं में माता मनसा को भगवान शिव की दूसरी पुत्री बताया गया है। उस कथा में उल्लेखहै कई महादेव का वीर्य सर्पों की माँ कद्रू को छूकर निकला था जिससे मनसा देवी का जन्म हुआ था। दूसरी कथा अनुसार माता मनसा की उत्तपत्ति कश्यप ऋषि के मस्तक से हुई थी। कद्रू कश्यप की पत्नी थी और मनसा देवी के गुरु भगवान महादेव थे। माता मनसा ने सैंकड़ो वर्ष तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया था। 


        


सतयुग में माता सती के शरीर का एक भाग बिलवा पहाड़ी पर गिरा था। यह केवल स्थानीय मान्यताओं में प्रचलित है। क्योंकि शास्त्र और पुराणों में ऐसा कोई विवरण स्पष्ट नहीं बताया गया है। एक अन्य कथा में बिलवा पहाड़ी को माता दुर्गा की महिषासुर मर्दन के बाद कि विश्राम स्थली माना गया है। 


बिलवा पहाड़ी


मनसा माता मंदिर:


 मनसा देवी मंदिर एक सिद्धपीठ है। यहां सारी मनोकामनाएं माता के आशीर्वाद और कृपा सो पूर्ण होती है। नागों के राजा वासुकी की बड़ी बहन माँ मनसा देवी है। यही नहीं माता सर्पों पर विराजमान है सो इस कारण सर्प दंश से बचने या सर्प द्वारा काटने पर माता की साधना की जाती है। 


माँ मनसा देवी


मनसा माता के विग्रह के चार मुख है। माता के नीचे माँ दुर्गा की सिंदूरी मूर्ति महिषासुर के वध की मुद्रा में विराजित है। गर्भ गृह चांदी और पीतल से बनाया गया है। बिलवा पहाड़ी पर माँ चामुंडा मंदिर भी है। इसी मंदिर में एक पेड़ पर मनोकामना पूर्ण करने के लिये भक्त धागा बांधते है। पूर्ण होने पर वापिस आकर इसे खोलते हैं। चैत्र और फाल्गुन नवरात्री में दूर-दूर से अनेक श्रद्धालु दर्शन करने पहुँचते है।



मनसा देवी मंदिर प्रातः 6 बजे संध्या 7:30 तक खुला रहता है। मंदिर तक पहुंचने के लिये सीढियां और सड़क मार्ग है। तथा केबल कार रोपवे की सुविधा भी उपलब्ध है। इन सब माध्यमो से मंदिर तक आधे घण्टे के भीतर पहुँचा जा सकता है। सड़क मार्ग 1 किमी है। सीढ़ियों की दूरी 800 मीटर है। मंदिर पहाड़ी पर कुछ पूजा सामग्री और अन्य आवश्यक वस्तुओं की दुकानें और एक कैंटीन भी है।


मनसा देवी मंदिर

रोपवे

मनसा देवी मंदिर कैसे पहुँचे:


हरिद्वार रेलवे स्टेशन से बिलवा पहाड़ी की दूरी चार किमी है। मंदिर से सबसे निकटतम हवाई अड्डा जॉली ग्रांट हवाई अड्डा है। देहरादून रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डे की दूरी कुल दो घण्टे की है।


✒️ स्वप्निल. अ

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

बाबा कीनाराम

 बाबा कीनाराम के चमत्कार 


"जो न दे राम वो दे बाबा कीनाराम"


 सनातन धर्म मे तंत्र के महानतम अवधूतों में से एक थे "अवधूत बाबा कीनाराम"। तंत्र के विषय मे बाबा कीनाराम का जीवन अनेकों अविश्वसनीय से या पौराणिक कथाओं जैसे लगने वाले कार्य लोकहित के के लिये किये थे। अघोरी शब्द सुनते ही जादू टोना, टोटका, श्मशान प्रेत आत्माएँ मानव खोपड़ी-कंकाल के दृश्य मन मस्तिष्क में घूमने लगते है। डर का साया और श्मशान में निवास करने वाले साधकों की छवि घूमने लगती है। मानव समाज में व्याप्त सांसारिकता और भौतिकवादी मानसिकता के कारण कुछ तांत्रिकों ने तंत्र और वाममार्ग साधना की एक अत्यंत वीभत्स और घृणित तस्वीर देश और दुनिया में स्थापित कर दी है। इसके विपरित तंत्र वह नहीं जो सामान्यतः माना जाता रहा है। अपने समय से भी आगे रहकर बाबा स्त्री सम्मान, व्यक्तिगत शुचिता और नशे से बचने की मुहिम जन-जन में जगाई थी। इन बातों से एक सच्चे धर्म परायण तांत्रिक की छवि बाबा ने बनाई थी। बाबा कीनाराम का अवतरण मानो तंत्र को नई दिशा देने के लिये हुआ था। 



शनिवार, 30 मार्च 2024

माँ त्रिपुर सुंदरी मंदिर, बांसवाड़ा, राजस्थान

 इतिहास:

 माना जाता है कि बांसवाडा के माँ त्रिपुर सुंदरी मंदिर की स्थली पर सत्युग में माता सती की एक उंगली का भाग यहाँ गिरा जिसके उपरांत यहाँ माता का मंदिर बनवाया गया था। इसे शक्तिपीठ के रूप में भी माना गया है। मंदिर का इतिहास राजा कनिष्क के काल के भी पहले का बताया गया है। किंतु सबसे प्रथम साक्ष्यों के अनुसार मंदिर का निर्माण राजा कनिष्क के काल में हुआ था। उस काल में अरावली पहाड़ियों के निकट तीन पुरियां - सीतापुरी, विष्णुपुरी और शिवपुरी हुआ करती थी। । पांचाल समाज के पाता भाई को माँ त्रिपुर सुंदरी ने एक भिक्षुणी के रूप में दर्शन दिए थे। तद पश्चात् पांचालों ने माता के मंदिर का जीर्णोद्धार का कार्य शुरू करवाया था। सन् 1157 में जीर्णोद्धार का कार्य प्रारंभ हुआ। मालवा, मारवाड़ और गुजरात के राजवंशों ने 11-12 सदी से मंदिर में आराधना शुरू की और अपनी कुलदेवी मानना आरंभ किया। 


माँ त्रिपुर सुंदरी

 

माँ त्रिपुर सुंदरी मंदिर:

 

देवी राज राजेश्वरी माँ त्रिपुर सुंदरी का दिव्य सुंदर मंदिर नागर वास्तु कला एक अप्रतिम भवन है। मुख्य गर्भ गृह के दरवाजे चांदी के बने हैं। अंदर माता का विग्रह काले रंग का है। माता की मूर्ति जागृत रूप में है। सवेरे कन्या रूप में, दिन में स्त्री रूप और संध्या से रात्री तक माता प्रौढ़ रूप में दर्शन देती हैं। मूर्ति में अठारह भुजाएँ तथा माता के चरणों मे श्रीयंत्र विराजमान हैं। मूर्ति के नव ग्रह नौ दुर्गा रूप को दर्शाते हैं। मंदिर प्रवेश करने पर तीन गुंबद दिखाई देते हैं। गुंबद के बाहर बनी छत्री में नन्दी जी विराजमान है। 


 

सौम्य रूपा माँ त्रिपुर सुंदरी दश महाविद्याओं में तीसरी महाविद्या हैं। माँ के इस रूप में माँ के तंत्र और नौ दुर्गा रूप विद्यमान हैं। इसीलिये इस मंदिर में माता महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती रूप में विराजी है। 


परिसर
स्तोत्र:गूगल


मंदिर एक शक्तिपीठ के साथ एक सिद्धपीठ भी माना गया हैं। यहाँ अनन्य साधु संतो ने माता की साधना की हैं। नवरात्री और गुप्त नवरात्री पर भक्त विशेष पूजा-अनुष्ठान करने आते हैं। माता का राजराजेश्वरी रूप भौतिक या आध्यात्मिक, इच्छा और प्रगती पूरा करने वाला है। 


नन्दी महाराज
स्तोत्र:गूगल

सुबह ब्रह्म महूर्त से माँ की वंदना शंकराचार्य पद्धति से प्रारंभ की जाती है। देवी सुरेश्वरि का नित्य श्री दुर्गासप्तशती पाठ, श्री ललित सहस्त्रनाम से आवह्न किया जाता है। 


पुराने मंदिर को बनाने का कार्य 1930 में मंदिर के शिखर निर्माण के साथ आरंभ हुआ था। सन् 1977 से 1991 के बीच मंदिर का पुनः जीर्णोद्बर कराया गया है। इन वर्षों के बीच में 109 कुंडीय महायज्ञ का आयोजन 1981 में कराया गया। 


मंदिर प्रवेश द्वार

आधुनिक मंदिर:


पुराने मंदिर की इमारत में आधुनिक निर्माण कार्य कराये गये। सन् 2006 से कुछ अद्धभुत बदलाव और जोड़ किये गए। इनमें स्वर्ण कीर्ति स्तम्भ और बाहरी परिसर बनवाया गया। पहली शिला का 23 जून 2011 और अंतिम शिला 24 अप्रैल 2016 में हवन से पूजन कर उदघाटित किया गया। पांचाल समाज द्वारा मंदिर का संचालन किया जाता हैं। समाज के 1233 यजमानों ने 1889 स्तम्भों को पूजन कर मंदिर को समर्पित किया था।


यात्रियों के विश्राम और भोजन करने हेतु एक भोजनालय और धर्मशाला भी बनी है। 


    

कीर्ति स्तम्भ
स्तोत्र:गूगल



     

          

माँ त्रिपुर सुंदरी मंदिर कैसे पहुँचे:


माँ त्रिपुर सुंदरी मंदिर राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में है। इसकी सीमा मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के नजदीक है। रतलाम से मंदिर की दूरी 65 किमी है। 


✒️स्वप्निल.अ

रविवार, 24 मार्च 2024

लाखमण्डल महादेव मंदिर, देहरादून,उत्तराखंड

 लाखमण्डल महादेव मंदिर में भगवान शिव की महिमा चतुर युगों में विराजित शिवलिंगो के कारण प्रख्यात है। देवभूमि का एक और धाम जिसमे विराजित हैं चारों युगों के शिवलिंग। मंदिर और लाखमण्डल गांव की धरती के भीतर अनगिनत शिवलिंग मौजूद है।

रविवार, 17 मार्च 2024

देवास टेकरी रक्तपीठ, देवास, मध्यप्रदेश

पौराणिक इतिहास:

माँ चामुंडा और माता तुलजा भवानी शक्तिपीठ की कथा माता सती की देह से बने 52 शक्तिपीठों से जुड़ी है। देवास की इस टेकरी पर माता के रक्त की वर्षा हुई थी। इसीलिये देवास के निवासी इसे रक्तपीठ भी कहते है। 


माँ चामुंडा

दूसरी कथा अनुसार माता चामुंडा और माँ तुलजा दोनों बहनों का निवास इस स्थान पर था। एक समय दोनों में किसी बात पर विवाद उतपन्न हुआ। छोटी माता तुलजा पर्वत को चीरते हुए ऊपर की ओर निकल पड़ी और माँ चामुंडा नीचे पाताल की तरफ निकल पड़ी। तभी भगवान भैरवनाथ और बजरंगबली ने चामुंडा माँ को स्थान छोड़के न जाने का निवेदन किया। इस निवेदन को माता ने स्वीकार कर टेकड़ी कभी न छोड़ने का आश्वासन दिया। 


  
माँ तुलजा भवानी


दोनों देवीयों का क्रोध शांत हुआ; तब बड़ी माता जो पाताल के अंदर आधी समा चुकी थी - रुक गयी। वहीं छोटी माता अपने स्थान से ऊपर की ओर जाने लगी।  इसी स्थिति में आज तक दोनों बहनें स्वयंभू रूप में विराजी हैं। माताएँ अपने जागृत रूप में विराजी हैं। माना जाता है कि जिन्हें संतान का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता वे इस मंदिर में माँ के दरबार में आकर सच्चे मन से अगर कामना करें तो माता उनकी गोद भर देती है। 



मंगलवार, 12 मार्च 2024

पाताल भुवनेश्वर,पिथोरागढ़, उत्तराखंड

पौराणिक इतिहास:

पाताल भुवनेश्वर का इतिहास सतयुग से प्रारंभ होता है। स्कंद पुराण के मानस खण्ड के 800 वें श्लोक में इस पवित्र गुफा के होने का विवरण मिलता है। भगवान शिव ने जब पुत्र गणेश का अनजाने में धड़ अलग कर दिया तो वह मानव धड़ इस गुफा में तब तक रखा गया था जब तक प्रभु ने श्री गणेश को गजेंद्र का धड़ न लगाया था। इसके साक्ष्य इस गुफा में एक गज के आकार की शिला के रूप में मिलते हैं। 



   



पाताल भुवनेश्वर गुफा:


पाताल भुवनेश्वर गुफा समुद्र तल से 1350 फ़ीट ऊपर और 90 फ़ीट की गहराई में है। गुफा द्वार से 100 सीढियां उतरकर मंदिर के अंदर तक पहुंचा जाता है।कुल लंबाई 160 फीट है। भीतर प्रवेश करने से पहले बाहर एक शिवलिंग है जिसका भक्त दर्शन करना नहीं भूलते। गुफा के बाहर से लेकर अंदर नीचे तक लोहे की चेन बांध दी गयी है ताकि अंदर दर्शन करने जाने वाले आगन्तुक रास्ता भूल या नहीं जाएं। पूर्ण रूप से गुफा के विद्युतीकरण हो रखा है। गुफा चूना पत्थर की प्राकृतिक संरचना है जो करोड़ों वर्षों से धरती में होने वाले भूगर्भीय हलचल और रासायनिक बदलावों के बाद बनते हैं। 


कलयुग में इस गुफा को आदि गुरु शंकराचार्य ने ढूंढा था। गुफाओं को धार्मिक महत्वता देने और जीर्णोद्धार करने में चन्द्र और कत्यूरी राजाओं का योगदान रहा है। इन दो राजाओं के समय से मंदिर में भंडारी पुजारियों को पूजा करने का अधिकार दिया गया था। पाताल भुवनेश्वर की गुफा में मुख्य रूप से केवल भगवान शिव के लिंग की पूजा होती ही। इस शिवलिंग को आदि गुरु शंकराचार्य द्वार स्थापित है। इस शिवलिंग की पूजा हर सवेरे मंदिर के पुजारी 6 बजे विधिवत करते हैं। 




भगवान शिव की जटाओं का रूप बड़ी लंबी शिलाओं में देखने मिलता है।मंदिर गुफा के प्रवेश द्वार से ही सर्प जैसी आकृति दिखाई देने लगती है। जैसे किसी सर्प की रीढ़ की हड्डी और शरीर की चमड़ी हो। 




फिलहाल मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। इसके रखरखाव का कार्य जारी है।

गुफा मंदिर साल भर में बारिश के महीनों में बंद रहता है। सबसे उत्तम समय यहाँ दर्शन के लिये ग्रीष्म ऋतु है।


शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

मोढेरा सूर्य मंदिर, मेहसाणा, गुजरात

पौराणिक इतिहास:

गुजरात के मेहसाणा जिले के मोढेरा के सूर्य मंदिर का इतिहास त्रेतायुग में लंका दिग्विजय पश्चात् के समय का माना जाता है। प्रभू श्री राम अपने गुरु वशिष्ट ऋषि के आदेश पर इस स्थान पर आए थे; रावण वध से हुए ब्राह्मण हत्या के पाप प्रायश्चित किया था। इसका वर्णन स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण में मिलता है। उस समय इसे 'धर्मारण्य' नाम से जाना जाता था। इसी स्थान पर श्री राम ने यज्ञ भी करवाया था। 


           

           

इतिहास:


मोढेरा सूर्य मंदिर का निर्माण राजा भीम देव प्रथम ने सन् 1026-1027 CE के मध्य करवाया था। वे चालुक्य वंश के थे और इनके कुल देवता सूर्य देव थे जिस कारण वे सूर्य वंशी भी कहलाते थे। उस काल में गुजरात के इस भाग ने इस्लामी आक्रांताओं के अनेकों हमले झेले और अनगिनत मंदिरों का विनाश होते देखा। महमूद गज़नी सोमनाथ मंदिर में रक्तपात,लूट और विध्वंस करते हुए मोढेरा पहुँचा। मोढेरा मंदिर को बचाने के लगभग असफल प्रयास में तकरीबन 20,000 योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया। इतिहासकार ए.के.मजूमदार के अनुसार मोढेरा सूर्य मंदिर का निर्माण मोढेरा पर हुए हमले के बचने के उत्साह में बनवाया गया था। पश्चिमी दीवार के एक पत्थर पर लापरवाही से लिखे देवनागरी में सन् 1083 इसवी की तारीख लिखी है जो मंदिर बनने के असल वर्ष को 1026-27CE दर्शाता है। इसे पुख्ता प्रमाण नहीं माना जाता है क्योंकि इसके अलावा और कोई तारीख का वर्णन मंदिर के किसी दूसरे स्थान पर नहीं है। उस तारीख को मंदिर के निर्माण की जगह मंदिर के ध्वस्त की तारीख माना गया है। बाहर बने सरोवर का निर्माण पहले किया जा चुका था और इसके अंदर छोटे-छोटे मंदिर राजा भीम देव के सत्ता में लौटने के बाद बनाये गए थे। बारहवीं सदी के तीसरे भाग में राजा कर्ण द्वारा नृत्य मंडप जोड़ा गया था।





इस्लामी विध्वंस


बारहवीं सदी में मंदिर आक्रांता अल्लाउदीन खिलजी ने हमला किया था। इस हमले में मंदिर में अधिक विध्वंस हुआ। खिलजी ने मंदिर के गर्भ से सूर्य देव की सोने की मूर्ति जो हीरे से जड़ित थी अपने साथ ले गया। बाकी मूर्तियाँ भी तोड़ी गयी और मंदिर की दीवारों पर बने देवी देवताओं के सुंदर शिल्प खंडित हो गये।


मोढेरा सूर्य मंदिर:


 मोढेरा सूर्य मंदिर उस समय मध्य भारत की प्रचलित गुर्जर-मारू शैली में बनाया गया था। मंदिर को बनाने में ग्रेनाइट के पत्थर का उपयोग है किंतु चूने का उपयोग इंठों को चिपकाने के लिए नहीं किया गया है।इस मंदिर का विमान आड़ा बनाया गया था और शिखर मेरु पर्वत जैसा जो काफी सदियों पहले गिर चुका था। मंदिर का आधार उलटे रखे कमल के आकार पर बना है। मंदिर के तीन भाग है, गर्भ-गृह, सभामंडप, और कुंड। गर्भ-गृह गूढ़ मंडप का भाग है।



 गर्भगृह की लंबाई अंदर से 51 फ़ीट 9 इंच और चौड़ाई 25 फीट 8 इंच है। यह तीनों, मंदिर संकुल का अक्षीय गठबंधन है। सभामंडप गूढ़मंडप के समककक्ष नहीं है बल्कि अलग बना है। इन दोनों को छत लंबे समय पहले गिर गयी थी, अब केवल नीचे का भाग बचा है। मंदिर के बाहर की तरफ की दीवारों पर कई देवी-देवताओं के शिल्प खंडित है। हिंदू परंपरा अनुसार एक खंडित मंदिर में पूजा कभी नहीं होती है।गूढ़मंडप की बाहरी दीवार पर तीन खिड़कियां बनी है। बगल में सूर्य देव की मूर्ति रथ में अश्वों द्वारा खींचते हुए बनी है। और तो और सूर्य की अलग-अलग मुद्राओं में मूर्तियाँ बनी है जो सूर्य की प्रति महीने रहने वाली स्तिथि को दर्शाती है। 


   सभामंडप में 52 स्तम्भ है जो एक वर्ष में बावन हफ़्तों का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। साल के 365 दिनों के प्रतिनिधित्त्व के लिए 365 हाथी बने हैं। स्तम्भों को देखने पर मंदिर नीचे की ओर से अष्टकोणाकर और ऊपर से देखने पर गोल दिखाई देता है। मंदिर के अंदर और बाहर मूर्तियों को बारीकी से तराशा गया है। इन मूर्तियों में समस्त हिंदु देवी-देवताओं को उनके वाहन के साथ बनाया गया है। जैसे अग्नि देव को भेड़ के साथ दिखाया गया है। आंठ दिशाओं के दिगपालों की मूर्तियों को उनकी दिशाओं के अनुसार स्थान पर शिल्पित किया गया है। भगवान सूर्य की एक मूर्ति गर्भगृह की बाहर की दीवार पर दोनों पत्नीयों, छाया और संध्या के साथ दिखाया है। सभामंडप के अंदर ध्यानाकर्षण करते है, रामायण, महाभारत के प्रसंगों को सटीकता उकेरा गया है।


मंदिर न केवल अभियांत्रिक पक्ष से उत्कृष्टता की निशानी है बल्कि धर्म और अध्यात्म के संगम को रोचकता से समझाने के लिये भी निर्मित है।इस समय मंदिर का रख रखाव भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा किया जा रहा है। मंदिर राष्ट्रीय स्मारकों की सूची में शामिल है और यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर की सूची में दिसम्बर 2022 में शामिल किया गया था।


सूर्य मंदिर विज्ञान और रहस्य:


मोढेरा के सूर्य मंदिर की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस मंदिर के गर्भगृह पर साल के दो दिन - 21 मार्च और 21 जून को सूर्य की किरणे सीधी गिरती है। साल का सबसे लंबा दिन 21 जून(Summer Solstice) है जिसे अंग्रेज़ी में समर सोलस्टिस कहते है। और 21 मार्च(Equinox) के दिन, दिन और रात्री समान अवधि की होती है। सूर्य देव का यह मंदिर कोई साधारण मंदिर नहीं अपितु वैदिक खगोलशास्त्र की वेदशाला होने का अनुमान है। कर्क रेखा पृथ्वी पर 23.6° अक्षांश पर गुजरती है और मंदिर बीबी ठीक इसी दायरे में बनाया गया है। इन दो दिनों पर कोई व्यक्ति दिन के उजाले में खड़ा रहे तो उसकी या किसी भी वस्तु की परछाई धरातल पर नहीं दिखती है।पर्यटक इस बात को आंखोंदेखी कर अनुभव कर सकते हैं।


हर वर्ष पृथ्वी का अक्षीय झुकाव बदलते रहता है। फिर भी इस झुकाव का एक सीमित दायरा है। मोढेरा का मंदिर कुछ वर्षों में इस दृश्य की अनुभूति करता रहता है। अनुसंधानकर्ताओं ने इस पर समग्र शोध किया है किंतु मंदिर का हजार वर्ष पहले बिना किसी आधुनिक तकनीक के कैसे निर्माण हुआ यह कल्पना से परेह है। 


गर्भगृह के नीचे कुछ अनुसंधानकर्ताओं द्वारा पता करने पर एक विशाल गढ़े के होने की जानकारी मिली थी जिसे अब बंद करके रखा गया है। उनके अनुसार इस गड्ढे में सूर्य देव की सोने की हीरों से जड़ित मूर्ति हुआ करती थी। यह मूर्ति हवा में किसी विद्युतीय उपकरण द्वारा मैग्नेटिक लेविटेशन प्रणाली से तैर सकती थी। सूर्यदेव की इस मूर्ति का क्या हाल हुआ इसकी कोई जानकारी नहीं है। हालांकि सोने की मूर्ति आदि बात केवल मिथ्या मनोरंजन के लिए गढ़ी गयी हो यह भी माना जा सकता है - वैसे ऐसी बात भारत के प्राचीन मंदिरों के संदर्भ में अगर कहि जा रही हो तो उसमें लेशमात्र सत्य तो होगा ही। 


कर्क रेखा को मंदिर के मध्य से गुजरता दर्शाने के लिये मंदिर की बाहरी दीवार पर दो लकीरें खींची दिखाई देती हैं।


राम कुंड


  मंदिर के प्रमुख आकर्षणों में से एक इस कुंड को श्री राम कुंड, सूर्य कुंड और 'सीता नी चोड़ी' भी कहा जाता है। कीर्ती तोरण से होते हुए कुंड की तरफ रास्ता है। इसे चारों तरफ से पत्थरों से बनाया गया है।पश्चिम दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार है। कुंड आयताकार आकर का बनाया गया है। उत्तर से दक्षिण की ओर 176 फ़ीट और पूर्व से पश्चिम की ओर 120 फ़ीट क्षेत्र में है। कुंड के जल तक पहुँचने के लिये चारों ओर से छत बनी है जिसके नीचे से सीढियां है।  इसमें 28 सीढियां हैं जो महीने के 28 दिनों का प्रतीक हैं। ब्रह्मांड में 27 नक्षत्रों को दिखाने के लिये राम कुंड में 27 छोटे-बड़े मंदिर भी बने है जिनमे वैष्णव देवों के विग्रह विराजीतहैं। कुंड के निर्माण के बाद इसमें सातों महाद्वीपों का जल एकत्रित कर मिलाया गया था।






मोढेरा नृत्य महोत्सव:


गुर्जरत पर्यटन विभाग द्वारा हर वर्ष मकर संक्रांति पर सूर्य देव के उत्तरायण होने पर मोढेरा सूर्य मंदिर के बाहर भव्य नृत्य कार्यक्रम किया प्रस्तुत किया जाता है। इसमें देश-विदेश के लोग भाग लेते हैं और देखने पहुँचते हैं।





मोढेरा सूर्य मंदिर कैसे पहुँचे:


मोढेरा सूर्य मंदिर से मेहसाणा रेलवे स्टेशन की दूरी तकरीबन 30 किमी है। यह दूरी 40 मिनट में प्राइवेट कैब या सरकारी बस द्वारा पूरी की जा सकती है। 


मेहसाणा से सबसे नजदीक गुजरात का अहमदाबाद शहर है। यह दूरी 76 किमी है और 2 घण्टे में चार पहिया द्वारा पूरी की जा सकती है। 


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

 

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