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रविवार, 18 जून 2023

श्री कालकाजी मंदिर, नई दिल्ली

कालकाजी मंदिर, दिल्ली शहर का एक प्राचीन् हिन्दू मंदिर माता काली को समर्पित है। इसीलिए कालकाजी का हिस्सा माता कालका के नाम पर रखा गया है। वैसे तोह इस सुंदर मंदिर के बारे में बहुत लोगों ने सुन रखा है पर अगर लोग कुछ नहीं जानते है तोह वह है इसका पौराणिक इतिहास, महत्व और अन्य कभी ना पढ़ी विशेषताएं। यहाँ पर बैठी माता काली की दिव्य मूर्ति जो भक्तों की चिन्ताएं और भय का अंत कर देती है। कालका महाकाली भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूरी करती है।  

 
Maa Kalkaji

पौराणिक इतिहास :


कालकाजी मंदिर के बारे में माना गया है के यह तकरीबन 3000 वर्ष पुराना है। यहां माता की मूर्ति स्वयंभू मानी जाती है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार दो दैत्य 'शुम्भ और निशुम्भ" ने दवताओं को बहुत परेशान कर रखा था। तोह एक दिन सारे देवता ब्रह्माजी के पास पहुँचे और प्रार्थना करने लगे जिससे ब्रह्म देव ने उनसे अनुरोध किया के इन दुष्टों का अंत केवल माता पार्वती ही कर सकती है। सो इस समस्या के हल हेतु वे सारे माता पार्वती के पास जाएं और उनसे प्रार्थना करें। 


माता पार्वती ने उन्हें निश्चिंत होने के लिए कहा और अपने आच्छद से देवी कौशिकी को प्रकट किया। माँ कौशिकी और शुम्भ-निशुम्भ में भीषण युद्ध हुआ जिसका अंत नहीँ हो पा रहा था क्योंकि जब भी माँ उन राक्षश का अंत करती तब उनका रक्त धरती पे गिर जाता जिससे और राक्षसों का जन्म हो जाता। यह सब देख माता ने अपनी भौओं से देवी महाकाली को उतपन्न किया; अब माता महाकाली उन राक्षसों को मारने के पश्चात उनका रक्त अपने खप्पर में लेकर पी जाती जिसे अतः उनका अंत हुआ और युद्ध विराम हो गया। सारे देवताओं ने उत्साह मनाते हुए माता की जयकार करने के पश्चात माता से विनंती की के वे यहां अपने भक्तों के लिए विराजे और उस समय से यह कालिका माँ के निवास नाम से जाना जाने लगा जिसे अब कालका जी के नाम से जाना जाता है।


इसके अतिरिक्त कालकाजी मंदिर में पांडवों ने भी माँ काली के दर्शन लिए थे। यह साफ नहीं के यह दर्शन, अज्ञात वास या तेरह वर्ष के वनवास के समय के समय का था। इतनी जानकारी है कि यहाँ उन्होंने माता से वर किसी भी युद्ध मे शक्ति, उत्साह, दृढ़ता और विजय का वरदान मांगा था। 


माँ पार्वती और माँ कौशिकी

 देवी और शुम्भ-निशुम्भ युद्ध

शुम्भ-निशुम्भ वध



इतिहास:

कालकाजी मंदिर 17वी सदी में मुगल तानाशाह औरंगज़ेब द्वारा तुड़वाया गया था क्योंकि उसे भारत और दिल्ली के हर कोने में इस्लामी साम्राज्य कायम करनी थी। पांच दशक सभी ज़्यादा लंबे क्रूरता भरे शासन के बाद उसकी मृत्यु हुई। फिर काफी समय पश्चात सन् 1764 के में मराठाओं की दिल्ली फतह के बाद कालकाजी मंदिर का पुनः निर्माण किया गया था। अकबर के पेशकर और मिर्ज़ा राजा किदार नाथ द्वारा सन् 1816 में कुछ और निर्माण कार्य करवाया था। 


महत्व:

मंदिर दर्शन पर मैंने जाना के यहां विराजी देवी महाकाली को "काल चक्र स्वामिनी" माना जाता है। कालकाजी "मनोकामना पीठ" और "जयंती पीठ" कहा जाता है। कालकाजी की महाकाली सारे मनोरथ पूरी करती है।


आज जो मंदिर का ढाँचा आप देख सकते है, इसका निर्माण मंदिर में 1900 के आरम्भ के वर्षों में यहां आनेवाले भक्तों ने दान से बनवाया गया था। आठ तरफा आधुनिक मंदिर का निर्माण काले झांवा पत्थरों और संगमरमर से किया गया है।





काली माता मंदिर:


मंदिर के निर्माण में लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर का उपयोग किया गया है। मंदिर का प्राथमिक मंदिर देवी काली को समर्पित है, जिन्हें कलश के रूप में एक अमृत कलश के रूप में चित्रित किया गया है। मंदिर परिसर में, भगवान शिव और भगवान हनुमान के लिए अलग-अलग मंदिर हैं। मंदिर में देवी देवी दुर्गा की पूजा करने वाला एक मंदिर भी है।


माँ कालकाजी



मंदिर के दैनिक पूजा अनुष्ठान:


  • हर दिन सुबह माता की पूजा दूध के स्नान के साथ शुरू होती है और सुबह की आरती के साथ समाप्त होती है।


  • हर दिन दो बार माता की आरती की जाती है। इसमें संध्या में होने वाली आरती को तांत्रिक आरती माना जाता है।


  • ग्रीष्म ऋतु और सर्दी के समय आरती का समय बदल जाता है।


  • पूजारी अपनी-अपनी बारी आने पर आरती करते है।


  • माता की एक झलक पाने हेतू भक्त आरती के समय बाहर खड़े रहकर प्रतीक्षा करते है। 


मंदिर में आने वाले भक्त गण भोग थाली लेकर आते हैं। जिसमे एक सब्जी, एक दाल, रोटी, चावल, मिष्ठान अर्पित करने का नियम है। बिना लहसुन-प्याज का सात्विक भोग ही स्वीकार किया जाता है।




                            



ग्रहण:


यह एक मात्र मंदिर है जो ग्रहण के समय बंद नहीं होता है। मंदिर के महंत सुरेन्द्रनाथ अवधूत बताते है के मंदिर के अंदर सारे नव ग्रह निवास करते है जो माता काली को बालक समान है। सारे ग्रह माता को नमन करते हैं। 


ग्रहण के समय बहुत सारे भक्त इस शक्तिशाली मंदिर में दर्शन करने चले आते हैं, जब बाकी मन्दिरों के कपाट पे ताले लग जाते है। यह इस मंदिर की विशेषता है।


मुंडन संस्कार:


श्री कालकाजी मंदिर में बच्चों का मुंडन संस्कार करवाने के लिए अक्सर भक्त आते है। मुंडन करवाने का समय सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक रहता है।


कालकाजी के नजदीकी मेट्रो स्टेशन :


नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से श्री कालकाजी मंदिर की दूरी 21किमी है और 45 मिनट का समय पहुँचने में लगता है। दिल्ली मेट्रो की वायलेट लाइन पर दौड़ने वाली मेट्रो से आप कालकाजी मेट्रो स्टेशन पहुँचते है। 


श्री कालकाजी मंदिर से कालकाजी मेट्रो स्टेशन की दूरी मात्र 500 मीटर है।


मेट्रो के अलावा कालकाजी आने के लिए दिल्ली शहर की बस सेवा भी उपलब्ध रहती है। 


मंदिर के खुलने का समय:


सुबह 04:00 AM से 11:30 AM दोपहर 12:00 से दोपहर 03:00 बजे तक शाम 4:00 बजे से 11:30 बजे तक खुला रहता है।

आरती का समय :


सुबह : 06:00 पूर्वाह्न से 07:30 पूर्वाह्न (सर्दी) प्रातः 05:00 से प्रातः 6:30 (ग्रीष्मकालीन) शाम : 06:30 अपराह्न से 08:00 अपराह्न (सर्दी) 07:00 अपराह्न से 08:30 अपराह्न (गर्मी)।


।। जय माता कालका ।। 

🙏🕉️🌷🌿🚩🔱


✒️स्वप्निल. अ




(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

कालकाजी मंदिर के बारे में और जानकारी के लिए इन लिंक्स पर क्लिक करें:-


  1. www.thedivineindia.com/amphi/kalkaji-mandir.html
  2. https://www.tourguidence.com/kalkaji-temple-delhi/
  3. https://www.bhaktibharat.com/mandir/shri-kalkaji-mandir

सोमवार, 12 जून 2023

जगन्नाथ मंदिर, जाजपुर, ओडिशा

हम सबने चार धामों में से एक, पुरी के विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर के बारे में तोह सुना ही होगा पर क्या आप जानते हैं ओडिसा एक और पुरातन जगन्नाथ मंदिर के बारे में? तो आइए जानते है छतिया बाटा के बारे में जिसे ओडिसा के छोटे जगन्नाथ धाम के रूप में भी पूजा जाता है।  इस बात की जानकारी अधिक लोगों को नहीं पता है। चाटिया जगन्नाथ मंदिर, पुरी के जगन्नाथ मंदिर जितना ही रहस्यमयी है। 

गुरुवार, 25 मई 2023

माँ बम्बलेश्वरी मंदिर, डोंगरगढ़ , छत्तीसगढ़

  डोंगरगढ़ के पर्वत पर बसा माँ बम्बलेश्वरी का मंदिर लगभग 2200 वर्ष पुरानी एक प्रेम कहानी की गाथा की गवाही दे रहा है। सोहला सौ फीट पर बना मंदिर जैसे डोंगरगढ़ पर्वत पर माता रानी के मुकुट की भांति सजा दिखता हो। इतनी ऊंचाई पर बना माता का धाम छतीसगढ़ राज्य में कहीं और नहीं हैं। इस प्राचीन मंदिर की अदिष्ठात्री देवी अष्टम महाविद्या माँ बगलामुखी हैं। 

प्राचीन समय मे डोंगरगढ़ को कामाख्या नगरी के नाम से जाना जाता था। कामाख्या नगरी से डोंगरगांव नाम पड़ना और माधवनल - कामकंदला प्रेमी जोड़े की कथा यहाँ आनेवाले तीर्थयात्री भी अनभिज्ञ हैं।

इतिहास:

बम्बलेश्वरी माता मंदिर के बनने की कथा के पीछे राजा वीरसेन और उनकी भगवान शिव और माता भक्ति की असीम श्रद्धा से जुड़ी है। राजा वीरसेन की कोई संतान नहीं थी। प्राचीन काल से यहाँ केवल माँ का पिंडी रूप ही था और सो राजा अपनी रानी के साथ यहां आकर माता से संतान के लिए प्रार्थना की और एक वर्ष के भीतर उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ती हुई। इस पुत्र का नाम उन्होंने मदनसेन रखा। 



 

राजा मदनसेन को एक पुत्र हुआ कामसेन जो अगले राजा बने। इनके राज दरबार एक कामकंदला नाम की एक सुंदर और कुशल नर्तकी थी जिसका नृत्य सारे दरबारियों को मोह लेता था। एक बार राजा ने अनजाने में कामकंदला के प्रतिभाशाली नृत्य की अपेक्षा करते हुए माधवानल(संगीतज्ञ) को पुरस्कृत कर दिया जो उसी समय कामकंदला के नृत्य को संगीत दे रहा था। अपनी प्रेयसी कि प्रतिभा की उपेक्षा होते देख माधवनल ने राजा के सामने वह पुरस्कार उसे ही दे दिया। राजा कामसेन को क्रोध आया और तुरंत माधवानल को राज्य से निकल जाने के लिए कहा।


माधवानल राज्य से बाहर जाने के बजाए डोंगरगढ़ की गुफाओं को अपना स्थाई निवास बना लिया। प्रेम में तड़पती कामकंदला चोरी-चोरी उससे मिलने आया करती थी। वहीं दूसरी ओर कामसेन का पुत्र मदनादित्य राजसी-तामसी प्रवृतियों वाला था और कामकंदला से मन-ही-मन प्रेम करता था। मदनादित्य को माधवानल - कामकंदला का चुपके से मिलना अच्छा नहीं लग रहा था। उसे समझ आ गया था कि वह कामकंदला को पा नहीं सकता इसीलिए उसने कामकंदला को राजद्रोह के आरोप में फंसवा कर माधवानल से अलग कर दिया। राज्य में अस्थिरता की स्थिति उतपन्न हो गयी। 


अपने समक्ष अन्याय होता देख माधवनल सीमा पार कर अवन्तिकापुरी जा पहुंचा और उस समय के भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ राजा; सम्राट विक्रमादित्य, अपनी न्यायप्रियता के लिए जाने जाते थे, उन्हें सारी व्यथा सुनाई। दयावान राजा विक्रमादित्य ने न्याय करने के लिए अपनी सेना लेकर कामाख्या नगरी पर हमला बोल दिया। कई दिनों के युद्ध के बाद राजा मदनादित्य की पराजय हुई। माधवानल ने मदनादित्य को मार डाला लेकिन इसके बाद कामख्या नगरी पूरी उजड़ गयी। नगर में केवल डोंगड़ पहाड़ियाँ बची और तब से इसे डोंगड़गढ़ कहा जाने शुरू हुआ।





 

कामकंदला को पता चला कि माधवानल युद्ध मे मारा गया है और इस वेदना को सेहन ना कर पायी। यह बात असत्य थी किंतु इसके पहले यह स्पष्टीकरण होता इससे पूर्व कामकंदला ने एक सरोवर में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए। इस सरोवर को कामकंदला सरोवर के नाम से भी जाना जाता है। अपनी प्रेमिका के प्राणोत्सर्ग का समाचार सुनकर माधवानल ने भी प्राण त्याग दिए।


भारी उथल - पुथल और कार्य सिद्ध ना होता देख, माता अपने जागृत रूप में पहाड़ी में विराजित होने के लिए राजा विक्रमादित्य ने आह्वाहन किया।तब से माता बम्बलेश्वरी मंदिर की अदिष्ठात्री देवी है।


रोपवे (उड़नखटोला)

छीरपानी तालाब


माँ बम्बलेश्वरी मंदिर:


मंदिर का ऐतिहासिक सम्बंध उज्जैन और राजा विक्रमादित्य से रहा है क्योंकि माँ बम्बलेश्वरी राजा विक्रमादित्य के वंश की कुलदेवी थी। उस समय के पूर्व का डोंगड़गढ़ के इतिहास के कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं है। सोलहवीं सदी से डोंगड़गढ़ मंदिर गोंड राजाओं के राज्य के अधीन आ गया। गोंड राजाओं के समृद्ध और कुशल शासन के अंदर मंदिर की महत्व आस पड़ोस के राज्यों में फैला। 


मंदिर के अन्य मंदिरों में नाग वासुकी मंदिर, शीतला माता मंदिर, दादी माँ मंदिर और बजरँगबली मंदिर है।


  • देवी मंदिर तक कुल 1100 सीढियां चढ़ने पर माता के दर्शन होते हैं। 

  • मंदिर पहाड़ी के नीचे छीरपानी तालाब है जिसमे बोटिंग की व्यवस्थता है। 

  • मंदिर में उड़नखटोला(रोपवे) की व्यवस्था हफ्ते के 6 दिन उपलब्ध रहती है।



राजनांदगांव से डोंगरगढ़ जाते समय राजनांदगांव में मां पाताल भैरवी(महाकाली) दस महाविद्या पीठ मंदिर है, जो अपनी भव्यता के चलते दर्शनीय है। जानकार बताते हैं कि विश्‍व के सबसे बडे शिवलिंग के आकार के मंदिर में मां पातालभैरवी विराजित हैं। तीन मंजिला इस मंदिर में पाताल में मां पाताल भैरवी, प्रथम तल में दस महाविद़़यापीठ और ऊपरी तल पर भगवान शंकर का मंदिर है।




मंदिर दर्शन का श्रेष्ठ समय:

 मंदिर का पट सुबह चार बजे से दोपहर एक बजे तक और फिर दोपहर दो बजे से रात 10 बजे तक खुला रहता है। रविवार को सुबह चार बजे से रात दस बजे तक मंदिर लगातार खुला रहता है। नवरात्रि के मौके पर मंदिर का पट चौबीसों घंटे खुला रहता है ।
साल भर श्रद्धालु मंदिर में जीवन से जुड़े जरूरी संस्कार जैसे यज्ञ या मुंडन संस्कार भी करवाते रहते है । 

कैसे पहुँचे:

राजनादगांव से 35 व राजधानी रायपुर से यह 105 किलोमीटर दूर है। हावड़ा-मुंबई रेलमार्ग से भी यह जुड़ा हुआ है। यहां रेल और सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
डोंगरगढ़ राजनांदगांव जिला मुख्यालय से 57 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। वहाँ जाने के लिए सबसे अच्छा साधन है ट्रेन, बस, और फिर खुद की ट्रांसपोर्ट व्यवस्था है। अगर आप ट्रेन से यात्रा करना चाहते है तो निकटतम रेल्वे स्टेशन है डोंगरगढ़।
फ्लाइट से: निकटतम हवाई अड्डा है रायपुर। जो घरेलु उड़ानों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है।

।। जय माँ बम्बलेश्वरी ।।

🙏🌷🙏

✒️स्वप्निल.अ

(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)

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शनिवार, 20 मई 2023

भेरूजी नाथ मंदिर, कोडमदेसर , बीकानेर, राजस्थान

 
"कुछ समय पहले जब मैं अपने ब्लॉग के विषय में ऐसे अद्धभुत किंतु अनजाने मंदिरों की सूची ढूंढ रहा था, तब एक भक्तिन मित्र की व्हाट्सएप स्टोरी में मुझे बाबा भेरूजी ने दर्शन दिए। इसे में एक दिव्य संयोग कहता हूँ। भक्त ने बाबा और बाबा ने भक्त ढूंढ लिए"।

 


यह मंदिर और इसमें स्थापित भगवान कालभैरव की मूर्ति मानों जैसे अपने भक्तों को पुकार रही हो, मैंने जब भैरुजी मंदिर के बारे में सुना तोह मानों मुझे ऐसा आभास हुआ मेरे गहरे मैन में। 

मंगलवार, 16 मई 2023

लिलोरी मैय्या मंदिर , धनबाद, झारखण्ड

 इतिहास:

माँ लिलोरी मंदिर कतरासगढ़ के का राजा की कुलदेवी थी।  बात उस समय की है जब कतरासगढ़ के राजा सुजान सिंह थे। राजा ने मध्य प्रदेश के रीवा के राजघराने के एक सदस्य की सहायता से 800 साल पहले कतरास के इस घने जंगल में माता की मूर्ति स्थापित की थी। यह इलाका कभी घने जंगल से आच्छादित था।

मां की मूर्ति की स्थापना के साथ ही यह मंदिर राजपरिवार के लिए कुल देवी मंदिर बन गया और तब से अब तक यहां सिर्फ राजपरिवार की प्रथम पूजा और दैनिक बलि दी जाती है। 

लिलोरी माता यश:

आठ सौ साल पहले  मूर्ति स्थापना के बाद से ही माँ का मंदिर प्रसिद्ध होने लगा। शाही परिवार माँ के बारे में अच्छी तरह जानता है; यदि कोई भक्त माँ के दरबार में हृदय से अपनी मनोकामना माँगता है, तो माँ निस्संदेह उसकी मनोकामना पूर्ण करती है; नतीजतन, बड़ी संख्या में श्रद्धालु झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल आते हैं और ओडिशा से आते हैं।

मां लिलोरी मंदिर में लोगों की इतनी आस्था है कि भारत ही नहीं बाहर से भी अपनी मन्नत मांगने और चुनरी की गांठ बांधने आते हैं; यदि उनकी मन्नतें पूरी हो जाती हैं, तो वे भेंट चढ़ाते हैं और लौट जाते हैं।

लिलोरी माँ के मंदिर में लोग कई प्रकार की मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए आते हैं, जैसे कि एक नया ऑटोमोबाइल खरीदना, अपने बच्चे का मुंडन कराना, या पवित्र जनेऊ संस्कार करना, कई अन्य प्रकार की मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए हर दिन कई भक्त आते हैं।

मां लिलोरी स्थान न केवल एक पवित्र स्थल है, बल्कि यह एक लोकप्रिय विवाह स्थल भी है, जहां लोग शादी समारोह करने के लिए लंबी दूरी की यात्रा करते हैं। शादी की कई सुविधाएं सुलभ हैं, साथ ही वाहनों के लिए पर्याप्त पार्किंग स्थान भी है।

लगन के दौरान इतने लोग आते हैं कि एक पैर रखने की भी जगह नहीं बचती। वातावरण उत्तम प्रतीत होता है। और धर्मशालाएं 1 से 2 महीने पहले से तय होनी चाहिए, तो सोचिए लगान में एक ही दिन में कितनी शादियां होंगी। 

अपने पवित्र क्षेत्र और माँ के विग्रह में अपार शक्ति होने के कारण यहां कमज़ोर दिलवालों को आने से बचना चाहिए।


मां मंदिर मार्केट - लिलोरी स्थान मार्केट:

लिलोरी मंदिर कतरास के आसपास कई बूथ हैं, जहां मेकअप से लेकर स्नैक्स और भोजन तक कुछ भी उपलब्ध है। मां मंदिर में कई अच्छी धर्मशालाएं हैं। इसके अलावा, किसी भी प्रकार की पार्टी या उत्सव के लिए सभी प्रकार की वस्तुएं सुलभ हैं।



नवमी के दिन लिलोरी स्थल:

लिलोरी माँ मंदिर कतरास, धनबाद, झारखंड मन्नतों के लिए बहुत प्रसिद्ध है, इसलिए नवमी के दिन आपको आश्चर्य होगा कि यहाँ लगभग 1000 यज्ञ किए जाते हैं। बहुत से लोग इस दिन का इंतजार करते हैं क्योंकि नवमी का दिन पूजा के लिए अच्छा दिन माना जाता है। जिसके चलते आपको लिलोरी मां के मंदिर में पहले से रजिस्ट्रेशन कराना होता है, तभी आप पूजा के लिए आहुति दे सकते हैं।

परंपरा के अनुसार राजपरिवार के सदस्य मां के मंदिर में पहली पूजा और पहला यज्ञ करते हैं, उसके बाद ही अन्य लोग पूजा करते हैं और बलि का कार्यक्रम शुरू होता है। इस दिन इतनी भीड़ होती है कि वहां का माहौल मेले जैसा लगता है।

झारखंड कई धार्मिक स्थलों का घर है। देवगढ़ बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के लिए प्रसिद्ध है, जबकि कतरास माता मंदिर झारखंड के बाहर कम जाना जाता है। जब आप झारखंड लौटते हैं, तो इस गूढ़ मंदिर में विराजमान देवी माँ को अपना सम्मान देना न भूलें।

मंदिर में प्रवेश से पहले:

  1. मंदिर में रोज़ बलि दी जाती हैं और बलि प्रसाद स्वरूप भक्तों में बांटा जाता है। 
  2. मंदिर के अंदर देवी की छवि, फ़ोटो लेना वर्जित है इसीलिए फोन या कैमरा ले जाना बिल्कुल मना है। 


मंदिर परिसर और मार्केट

कैसे पहुँचे:

कतरसगढ़ से धबद की दूरी 17 किमी की दूरी पर है और NH18 छताबाद रोड पर पड़ता है। धनबाद झारखंड की राजधानी रांची से पूरी तरह से रोड और रेल मार्ग से कनेक्टेड है। 

धनबाद से कतरसगढ़ मंदिर की दूरी आप टैक्सी और बस 35 मिनट में पूरी कर सकते हैं।


।। जय माता दी ।। 

🙏🕉️🌷🌿🚩🔱

✒️ स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


अधिक जनकारी के लिए नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें:-


www.burningjharia.com/2022/06/lilori-sthan-katras-dhanbad.html/amp


- https://www.prabhatkhabar.com/topic/katras-lilori-sthan


- https://www.manonmission.co/2023/01/lilori-dham-dhanbad-jharkhand.html

सोमवार, 15 मई 2023

प्रभु श्रीराम का ननिहाल, चंदखुरी, छत्तीसगढ़

छतीसगढ़ के आदिवासियों से भरे वन क्षेत्र के पास दुनिया से दूर है एक प्राचीन मंदिर। यह मंदिर प्रभु श्री राम की माता कौशल्या का है। वाल्मिकी रामायण और रामचरितमानस के अनुसार माता कौशल्या के पिता राज्य इसी क्षेत्र में था।छतीसगढ़ी आदिवासी आज भी इसे दक्षिण कौशल प्रदेश मानते हैं।

शुक्रवार, 5 मई 2023

बावे वाली माता मंदिर(Bagh-e-Bahu), जम्मू

इतिहास

 बावे वाली माता मंदिर के रूप में प्रसिद्ध महाकाली मंदिर एक ऊंचे मंच पर बनाया गया है और इसमें देवी महाकाली की एक काले पत्थर की मूर्ति है। काली माता मंदिर बहू किले के परिसर के भीतर बनाया गया है, जो शक्तिशाली तवी नदी को देखता है। आसपास के वन क्षेत्र को "बाग-ए-बहू" के रूप में जाना जाने वाला एक सुंदर पार्क में बदल दिया गया है। मुगल उद्यानों से प्रभावित, पार्क जम्मू शहर का शानदार दृश्य प्रदान करता है। एक नवनिर्मित मछलीघर भी एक अतिरिक्त पर्यटक आकर्षण है। किले का निर्माण लगभग 3000 साल पहले राजा बहुलोचन ने करवाया था।

मंदिर को माता वैष्णोदेवी मंदिर के बाद दूसरा माना जाता है। इस क्षेत्र की आध्यात्मिक आभा में डूबने के लिए हर साल बड़ी संख्या में भक्त जम्मू जाते हैं। लगभग 3.9 फीट ऊंचे मंच पर सफेद संगमरमर का उपयोग करके निर्मित, इस मंदिर में काले पत्थर में देवी महाकाली की मूर्ति है। यह अंदर से एक छोटा मंदिर है इसलिए समय पर कुछ ही भक्त प्रवेश कर सकते हैं।

बावे वाली माता काली


काली माता मंदिर की कथा और इतिहास (बावे वाली माता मंदिर)

माना जाता है कि महाराजा गुलाब सिंह के सत्ता में आने के कुछ समय बाद 1822 में 8वीं शताब्दी के दौरान मंदिर का निर्माण किया गया था। स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि लगभग 300 साल पहले, देवी महाकाली पंडित जगत राम शर्मा के सपने में प्रकट हुईं और उन्होंने पहाड़ी की चोटी पर एक पिंडी या पत्थर के रूप में अपनी उपस्थिति के बारे में बताया। उसके कुछ ही समय बाद एक पत्थर मिला और पहाड़ी पर एक मंदिर बनाया गया। कहा जाता है कि काला पत्थर जो देवी का प्रतीक है, अयोध्या से सौर वंश के राजाओं, राजा बहू लोचन और राजा जम्बू लोचन द्वारा मंदिर के निर्माण से बहुत पहले प्राप्त किया गया था।

मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था इसलिए यह एक नया मंदिर प्रतीत होता है। अतीत में पशु बलि का व्यापक रूप से अभ्यास किया जाता था, लेकिन आजकल मंदिर के पुजारी कुछ अनुष्ठान करते हैं और एक भेड़ या बकरी को बलि के प्रतीकात्मक प्रस्तुति के रूप में मुक्त करने से पहले उस पर पवित्र जल छिड़कते हैं। इस अनुष्ठान को शिल्ली चरण के नाम से जाना जाता है। अब मंदिर में बलि किये गए भेड़ को प्रसाद के रूप में नहीं बांटा जाता और इसके स्थान पर केवल मिठाई, फल या मुरमुरे का प्रसाद बांटा जाता है।

"मंदिर में विराजी माता काली के प्रति जम्मू वासियों की मान्यता है कि माता ही उन्हें पाकिस्तान द्वारा हवाई हमलों से बचाती आयी है "। 

भक्त अपनी मनोकामना पूरी होने के बाद देवी को कड़ाह के रूप में जाना जाने वाला एक मीठा हलवा चढ़ाते हैं। मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर के महीने में प्रत्येक नवरात्र के दौरान साल में दो बार काली माता मंदिर में बहू मेले का आयोजन किया जाता है। मंदिर बड़ी संख्या में भक्तों को आकर्षित करता है। सप्ताह में दो बार मंगलवार और रविवार को यहां विशेष पूजा भी की जाती है। 

हर सुबह कुंवारी कन्याएं यहां अपनी मनोकामनाएं पूरी करने माँ काली को लाल चुन्नी, चूड़ियाँ, मिठाई और कपड़े दान करती है ।

वैष्णोदेवी, सुधा देवी और शिव मंदिर आनेवाले भक्तों ने हाल ही में इस मंदिर में आना भी शुरू कर दिया है हाल ही के सालों में । बाहू किले के पास बाबा अंबू की एक समाधि भी इसके प्रशंसकों, विशेषकर खजुरिया ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई है।

नवरात्रों के बीच, आम लोगों को देवी महाकाली के दर्शन करने के लिए कम से कम 4 से 6 घंटे या उससे भी अधिक समय तक बैठना पड़ता है।


सावधनियाँ और नियम :


यहां पर्यटकों और भक्तों को रेसस प्रजाति के बंदरों की टोलियां भी दिखेंगी । यह बंदर बहुत उपद्रवी किस्म के हैं । अनाज, फल ओर मंदिर आनेवाले भक्तों के हाथों से कोई भी खाद्य वस्तु छीनकर भाग जाते हैं ।


मंदिर के भीतर काले चस्मे, टोपी और किसी भी प्रकार का इलेक्ट्रिक उपकरण लेके जाना निषेध है । यह सब बाहर जमा कराने की व्यवस्थता भी मंदिर ट्रस्ट द्वारा उपलब्ध है ।


इन्हें भी देखें:


- तिरुपति बालाजी मंदिर, जम्मू

कैसे पहुंचे :

मंदिर का निकटतम हवाई अड्डा जम्मू हवाई अड्डा है जो मंदिर से लगभग 13.5 किमी दूर है। लगभग सभी एयरलाइंस दिल्ली, श्रीनगर, चंडीगढ़ और लेह जैसे प्रमुख शहरों से जम्मू के लिए नियमित उड़ानें संचालित करती हैं। 

रेल द्वारा जम्मू तवी जम्मू का प्रमुख रेलवे स्टेशन है और मंदिर के सबसे नजदीक है। भारत के प्रमुख शहरों जैसे दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई और त्रिवेंद्रम से नियमित ट्रेन सेवाएं उपलब्ध हैं। मंदिर रेलवे स्टेशन से लगभग 5.5 किमी की दूरी पर स्थित है। 

सड़क द्वारा जम्मू एक व्यापक बस और टैक्सी नेटवर्क से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। निजी पर्यटक बसें जम्मू और दिल्ली, मनाली, अमृतसर, शिमला और लुधियाना जैसे प्रमुख भारतीय शहरों के बीच चलती हैं। मंदिर तक पहुँचने के लिए जम्मू शहर से टैक्सी किराए पर ली जा सकती है जो जम्मू शहर के केंद्र से 5 किमी की दूरी पर है ।

।। जय बावे वाली माता ।। 🙏🕉️🌷🌿🚩🔱

✒️ Swapnil. A


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)






 

तवी नदी

बाघ-ए-बहू मछली घर(aquarium) के ऊपर

बहू किला



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गुरुवार, 4 मई 2023

श्री गणेश टेकड़ी टेम्पल, नागपुर

इतिहास:

   गणेशटेकड़ी मंदिर कम से कम 250 साल पुराना माना जाता है। मंदिर समिति के सचिव श्री एस.बी. कुलकर्णी कहते हैं कि विग्रह (मूर्ति) एक स्वयंभू मूर्ति (लगभग 4 फीट) है, जिसका अर्थ है कि कोई प्राण प्रतिष्ठा संस्कार नहीं किया गया था क्योंकि इसे प्रतिष्ठित नहीं किया गया था। विग्रह को मूल रूप से बहुत छोटा कहा जाता था जब यह 1875 में ब्रिटिश भारत के दौरान रेलवे लाइन के निर्माण के लिए पहाड़ी की चट्टानों को नष्ट करने के बाद पाया गया था और तब से इसके आकार में वृद्धि हुई है।

                                   


मंदिर एक साधारण टिन झोंपड़ी के भीतर एक मूर्ति के साथ शुरू हुआ। 1970 के दशक में सेना ने इस संगठन को संभाला और विकसित किया, हालांकि 1978 में प्राथमिक संशोधन हुआ। मंदिर का निर्माण एक प्रमुख उपक्रम के रूप में किया गया था, और उपासकों ने उदारतापूर्वक इस कारण से योगदान दिया। 1984 में, वर्तमान ढांचे ने आकार लिया। दिवंगत श्री गणपतराव जोशी और कुछ अन्य भक्तों ने इसे किया। समय बीतने के साथ, यह स्पष्ट हो गया कि मंदिर परिसर तीर्थयात्रियों की विशाल संख्या को संभाल नहीं सकता था। मंदिर के न्यासियों ने रक्षा मंत्रालय को एक आवेदन दिया, तब रक्षा मंत्रालय ने अतिरिक्त 20,000 वर्ग फुट भूमि प्राप्त करने में सहायता की।


पुरानी दुर्लभ छवि



पुरानी इमारत


Ganesh Chaturthi day

वर्तमान मंदिर:

मूर्ति को माथे पर कई सोने और चांदी के आभूषणों से सजाया गया है। गहनों में मुकुट (मुकुट) नाम का एक विशेष टुकड़ा है जिसे केवल चतुर्थी और एकादशी के अवसर पर प्रदर्शित किया जाता है।

मंदिर का हाल ही के वर्षों में जीर्णोद्वार का कार्य पूर्ण हुआ है । पहले के मुकाबले, अब मंदिर में भक्तों की चहल-पहल और ज़्यादा बढ़ गयी है । श्री गणेश की मूर्ति मूर्ति के अलावा आप यहां भगवान शिव का लिंग, श्री राम परिवार, भगवान कालभैरव, श्री राधाकृष्ण की मूर्तियों के भे दर्शन कर सकते है ।

श्रीराधाकृष्ण

हर दिन, बड़ी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में आते हैं, विशेष रूप से महत्वपूर्ण त्योहारों और धार्मिक समारोहों में। हर साल पौष महीने में संकष्टी चतुर्थी के दिन एक बड़ी यात्रा निकाली जाती है जिसे टेकड़ी गणपति यात्रा के नाम से जाना जाता है। मंदिर की विशेषता आरती समारोह है, जो प्रतिदिन चार बार (सुबह 6.30 बजे, दोपहर 12.30 बजे, शाम 7. बजे, 11.30 बजे) किया जाता है और मोदक को दिव्य उपहार के रूप में आरती के बाद वितरित किया जाता है। मंदिर के ट्रस्टी टेकड़ी गणपति मंदिर का प्रबंधन करते हैं, जो सुबह 6 बजे खुलता है। 

श्रीराम दरबार

श्री बजरंगबली

संपूर्ण देश में मनाए जानेवाले गणेशोत्सव के दसों दिन मंदिर को बड़ी भव्यता से सजाया जाता है और मंदिर परिसर में मानो मेले जैसा माहौल बना होता है। गणेशोत्सव के नौवें दिन एक विशालकाय मोतीचूर के लड्डू का भोग भगवान को चढ़ाया जाता है और शाम के समय मंदिर आनेवाले भक्तों को वितरित किया जाता है । 

मंदिर में ठीक इसी समय भक्त अपने नए वाहन सबसे पहले मंदिर में पूजा करवाके शुभारंभ करते है।

श्री गणेश की स्वयम्भू मूर्ति की अलावा मंदिर के पूर्व(मुख्य) द्वार से दाईं तरफ शिव लिंग और शिव रूप भगवान कालभैरव विराजे हैं। वहीं दक्षिण दिशा में श्री कृष्ण और राधा रानी की सुंदर सफेद संगमरमर के विग्रह है। पश्चिम दिशा में भगवान श्री राम, लक्ष्मण माता सीता और बगल में श्री हनुमान जी के विग्रह है प्रतिष्ठित है। 

महालक्ष्मी मंदिर:



मंदिर के दाहिनी ओर एक माँ महालक्ष्मी मंदिर तीन मंजिला इमारत में स्थित है । मंदिर में महालक्ष्मी की भव्य मूर्ति है जिसे राजस्थानी कलाकारों द्वारा संगमरमर से बनाया गया था। यह नागपुर की चुनिंदा महालक्ष्मी मंदिरों में से एक है। मंदिर में मूर्ति समक्ष बहुत काफी मात्रा में जगह होने के कारण यहां भक्तगण यहां ध्यान लगाते है ।

दुनिया भर के कई प्रमुख लोग अपनी परियोजनाओं और साहसिक कार्यों को शुरू करने से पहले मंदिर में आए और पूजा की। यदि आप नागपुर की यात्रा की योजना बना रहे हैं, तो टेकडी मंदिर में वृघ्नहर्ता के आशीर्वाद के साथ अपने दिन की शुरुआत करने का प्रयास करें।

कैसे पहुंचे :

श्री गणेशटेकड़ी मंदिर मध्य नागपुर रेलवे स्टेशन के बिल्कुल समीप स्थित है और अन्य रेलवे स्टेशन जैसे अजनी और इतवारी रेलवे स्टेशन से 5 और  3 किमी की दूरी पर है जहाँ से आपको 10 से बीस मिनट का समय लगेगा टैक्सी, ऑटो रिक्शा या बस द्वारा ।

नागपुर के बाबासाहब अम्बेडकर एयरपोर्ट से तकरीबन 20 किमी की दूरी आपको नागपुर मेट्रो से लगबग आधा घण्टे में श्री गणेश टेकड़ी से सबसे निकटम मेट्रो स्टेशन आधा घण्टे में पहुंचा देती है ।

तो जयकारा लगाइए -

 "गणपति बप्पा मोरया" 

🙏🕉️🌿🌷🚩🔱

✒️ Swapnil. A


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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गिरजाबंध हनुमान मंदिर, बिलासपुर, छतीसगढ़

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