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गुरुवार, 18 जनवरी 2024

ममलेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग, खंडवा, मध्यप्रदेश

ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग को महादेव का चौथा ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है। किंतु इस मंदिर के प्राकट्य की कथा ओंकारेश्वर मंदिर के प्राकट्य के साथ कि है। 

पौराणिक कथा:


शिव पुराण के अनुसार सत्युग में विंध्याचल पर्वत ने लंबे काल तक तप कर महादेव को प्रसन्न कर लिया था। महादेव तपस्या से खुश हो कर विंध्याचल को मनोवान्छित वर माँगने के लिए कहा। भगवान शंकर के साथ साथ अन्य ऋषि और मुनि पधारे थे। वरदान में वरदान में विंध्याचल ने  भगवान से उस स्थान पर दो लिंग स्वरूप में जन् कल्याण हेतु रहने का वरदान मांगा। भगवान ने इस स्थान और ओंकारेश्वर और ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग रूप में विराजे। दोनों शिवलिंग में भगवान की एक ही रूप और दिव्यता बस्ती है। दोनों में से किसी भी एक के दर्शन कर लेने से एक प्रकार का पुण्य और आशीर्वाद प्राप्त होता है। 

 


ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग गर्भ-गृह

                  

एक और कथा अनुसार राजा मांधाता ने कड़ी भगवान शिव की कड़ी तपस्या करके भगवान को यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजने का वर मांगा था। पुराणों में ममलेश्वर महादेव को अमलेश्वर या अमरेश्वर भी बोला गया है। 


➡️ भोजपुर शिव मंदिर, रायसेन, मध्यप्रदेश

इतिहास:


ममलेश्वर ज्योतिर्लिग मांधाता पर्वत पर बसा है। मांधाता पर्वत नर्मदा नदी के मध्य में है। यहां पर नर्मदा दो धाराओं में बहती है। उत्तर और दकहिं किंतु दक्षिण की धारा को ही असली धारा माना गया है। मध्यप्रदेश और भारत के अन्य ज्योतिर्लिंग और धर्म नगरों के मंदिरों की तरह आज दिख रहे ममलेश्वर मंदिर को इंदौर की रानी अहिल्याबाई होलकर द्वारा बनवाया गया था। 





 

वी अहिल्या बाई के समय से यहाँ शिव पार्थिव पूजन होता रहा है, २२ ब्राह्मण प्रतिदिन सवा लाख पार्थिव शिव लिंगों द्वारा ममलेश्वर महादेव का पूजन किया जाता था | इसका भुगतान ब्राह्मणों को दान पारिश्रमिक भुगतान होलकर राज्य द्वारा किया जाता था |वर्तमान में यह संख्या घटकर ११ और फिर ५ ब्राम्हणों तक सिमित हो गई है | 


ममलेश्वर महादेव मंदिर


ममलेश्वर मंदिर 500 मीटर की ऊंचाई पर सिथत है। मंदिर पूरे पांच मंजिला है और हर मंदिर में एक देवालय है। मंदिर ग्रेनाइट के बड़े बड़े पत्थरों से बना है। नागर और मराठा वास्तुकला में बनाया गया है। गर्भ-गृह में विराजित ममलेश्वर महादेव का शिवलिंग ओंकारेश्वर शिवलिंग की तरह हूबहू स्वयम्भू है। ज्योतिर्लिंग के दूसरी और नन्दी विराजे है। मंदिर की दीवारों पर शिव महिमा स्तोत्र सन् 1063 से अंकित है। 


ममलेश्वर की महिमा ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के बराबर ही मानी गयी है। एक मान्यता और भी है, जिसके अनुसार ज्योर्तिलिंग ओंकारेश्वर में और पार्थिव लिंग ममलेश्वर में विराजित है। ओंकारेश्वर मंदिर और ममलेश्वर मंदिर के बीच  1000 मीटर की दूरी है। अधिकतर आगंतुक ओंकारेश्वर और फिर ममलेश्वर के दर्शन के करते हैं।


       


ममलेश्वर के प्रांगण में अन्य मंदिर भी है। शिव के ममलेश्वर रूप के अलावा वृद्धकालेश्वर, बाणेश्वर, मुक्तेश्वर, कर्दमेश्वर और तिलभांडेश्वर मंदिर में भी।  दो से तीन मंदिररों के अलावा बाकी मंदिरों में दर्शन नहीं किये जा सकते हैं। इस ज्योतिलिंग में गायकवाड़ राजाओं के समय के ब्राह्मणों द्वारा पूजा, अनुष्ठान किये जा रहे है। पहले इनकी संख्या 22 थी और वर्तमान समय में5 ब्राह्मण सेवारत हैं। 


          



ओंकारेश्वर की तरह ममलेश्वर में भी साल के बारह महीने भीड़ रहती है। मंदिर खुलने कक समय सुबह 6 बजे और बंद रात्रि 9 बजे का है। 


ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग कैसे पहुँचे:


ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग पहुँचने के लिए ओंकारेश्वर के लिए खंडवा रेलवे स्टेशन की दूरी 70 किमी है। खंडवा देश के सारे शहरों से समर्पक में है।

ओंकारेश्वर से ओंकारेश्वर बस अड्डे तक कि दूरी 650 मीटर है। 


हवाई मार्ग से इंदौर के देवी अहिल्याबाई हवाई अड्डा और भोपाल का राजा भोज अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा सबसे निकटतम हवाई अड्डा है।


ममलेश्वर में पूजा सामग्री और होटल रात 8 से 9 बजे के के बीवः बंद हो जाते है। 


✒️स्वप्निल. अ



(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई)


रविवार, 14 जनवरी 2024

आघोरी बामाखेपा

"अघोर साधना में तीन प्रकार के साधक होते हैं। पहले पशु जो अपनी पशुओं वाली मूल इच्छाओं को पूरा करने के लिए साधना करते हैं, दूसरे वीर जो मूल इच्छाओं को त्याग ऊपर उठने के लिए साधना करते है और तीसरे वे दिव्य आत्माएं जो इन सारे सांसारिक इकच्छाओं से भी आगे ईश्वर में लीन होना चाहते हैं। अघोरी बामाखेपा उन्हीं दिव्य अवधूतों की प्रजाति में आते थे।"

बुधवार, 10 जनवरी 2024

हरसिद्धि माता मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

अवन्तिकापुरी उज्जैन में स्तिथ माँ हरसिद्धि मंदिर में माँ पार्वती का रूप विराजित है। उज्जैन नगरवासी उज्जैन में महाकाल को अपने पिता और माँ हरिसद्धि को नगर की रखवाली और पोषण करनेवाली मानते है।

सोमवार, 8 जनवरी 2024

श्री कालभैरव मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

पौराणिक इतिहास:

कालभैरव मंदिर की पौराणिक कथा ब्रह्माजी के हठ्ठ से जुड़ी है। सत्युग के समय सृष्टि निर्माण और चार वेदों की रचना पश्चात्, ब्रह्माजी वेदों से भी विशाल ग्रँथ की रचना करने का मन बनाया है। भगवान शिव को ज्ञान हुआ और वे इस ग्रँथ की रचना का फल भलीभांति जानते थे। इस ग्रँथ के बनने से कलयुग अपने निर्धारित समय से पहले आ जाता। सो भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र के मध्य भौओं से बटुक भैरव को उतपन्न कर भगवान ब्रह्मा के इस कर्म को रोकने का कार्यभार सौंपा। बटुक भैरव ब्रह्माजी के पास जा कर बार-बार निवेदन किये। किंतु ब्रह्माजी उनको बालक समझ कर अपमान करते हैं। तब बटुकनाथ भैरव मदिरा का सेवन कर बड़े हो जाते हैं, काल भैरव रूप में आ जाते हैं। अपने एक उंगली के नख से ब्रह्माजी के 5 वे मुख का छेदन कर देते हैं। ब्रह्माजी का वह सिर बटुक भैरव के उंगली में फंस कर कट जाता है। बटुकनाथ ब्रह्म हत्या के दोषी हो जाते हैं और इस दोष के निवारण के लिए महादेव के पास जाते हैं। महादेव उन्हें संपूर्ण भारत के भ्रमण के लिए जाते है। ब्रह्माजी के मस्तक बटुक भैरव के हाथ से छूटकर जिस स्थान पर गिरता है वह स्थान फिर ब्रह्मकपालिक तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। उस स्थान पर ब्रह्मकपालिक क्रिया संपन्न हो जाती है किंतु ब्रह्म हत्या के पाप का निवारण नहीं होता और तब बटुक नाथ महाकाल वन(उज्जैन नगरी) आते हैं। यहां संकटमोचन घाट पर बैठकर स्नान करते हैं और शिव की आराधना कर दोष का निवारण होता है।


बाबा कालभैरव
पिंडी रूप में कालभैरव

             

मंदिर प्रवेश द्वार


 इतिहास:


कालभैरव मंदिर पुरातात्त्विक और लिखित इतिहास के अनुसार 2500 ईसा पूर्व का है। राजा भद्रसेन, इस स्थान के पास से युद्ध के लिए गुजरते समय रुके और भगवान कालभैरव से युद्ध में विजय प्राप्ति की मन्नत मांगी और विजयी होने पर भैरव जी के मंदिर का निर्माण करवाया। आगे चलकर राजा विक्रमादित्य के वंश में राजा भोज ने यहाँ पुनरुथान करवाया था। पेशवा-मराठों के युग मे मंदिर में कई सारे निर्माण और बदलाव किए गए थे। 



                  

कालभैरव मंदिर और रहस्य:


उज्जैन में भैरवगढ़ की पहाड़ी पर कालभैरव जी का रहस्यमय मंदिर बसा है। मंदिर पृथ्वी से 6 फ़ीट की ऊंचाई पर बना है। गर्भ गृह मे विराजे कालभैरव के एक गुंबदनुमा छत के नीचे है। भगवान पिंडी रूप में सिंदूर और कुमकुम से रंगी बड़ी-बड़ी आंखों के साथ और जीभ बाहर किये हुए हैं। भगवान पर मराठाओं द्वारा मुग़लों पर विजय प्राप्ति पश्चात लाल पगड़ी चढ़ाई गयी थी। तब से यह परंपरा आज भी कायम है।


 यहीं से क्षिप्रा नदी मंदिर को छूते हुए गुजरती है। यह मंदिर मराठा और परमार वंश की नागर शैली का मिश्रित रूप में बनाया गया है। मंदिर में पाताल भैरव और गुरु दत्तात्रेय का मंदिर भी है। इसकी वास्तुकला परमार नागर और मराठा शैली में बनी है। मराठों के शासन काल के चरम पर पहुँचने पर मंदिर के दाएं ओर एक दीप स्तम का निर्माण मंदिर मे करवाया गया था। इसे संध्या होते ही प्रज्वल्लित किया जाता है। इच्छाओं की पूर्ती के लिए इस दीप स्तम्भ में भक्त सरसो के तेल का दिया जलाते हैं। 

 

अवन्तिकापुरी के इस कालभैरव मंदिर को अत्यंत गुप्त मंदिरों में से एक माना गया है। ऐसा इसीलिए क्योंकि यह उन चंद मंदिरों म् से हैं जहां वाम मार्ग के नियमगत पूजा होती है। प्राचीन समय मे यहाँ विशुद्ध परंपरागत तरिके से तांत्रिक अनुष्ठानों में पंच मक्कारों (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा और मैथुन) में उपयोग किये जानेवली सामग्री होती थी। इसमें शव साधना जैसी भयभीत कर देनेवाली क्रियाएं भी की जाती थी। कुछ दशक पहले आम जनता के दर्शन के लिए 5 अनुष्ठानों में से केवल मदिरा का सतत भोग लगाया जा रहा है।

       
             



यहां आनेवाला हर श्रद्धालूँ कालभैरव को मदिरा का भोग चढ़ाता है। अचंभित कर देने वाली बात है की (उग्रता के प्रतीक) भैरवजी सारी शराब पी जाते है। इस पर अमरीकी, की स्पेस एजेंसी, नासा द्वारा भी फ़िजूल का शोध किया गया था जिसके कोई ठोस कारण उन्हें नहीं मिल पाए। सनातन धर्म के हर विषय को वैज्ञानिकता की कसौटी पर खड़ा रखकर तौलना पश्चिम का रवैय्या सदैव से मात्र सनातन को इस देश और इसकी संस्कृती को समाप्त करने के उद्देश्य से ही रहा है।

              
दीप स्तम्भ




पुराने समय मे मंदिर में देसी मदिरा का भोग लगाया जाता था और अब विदेशी ब्रांडेड मदिरा का भोग लगाया जाता है। मदिरा के अलावा कालभैरव को लड्डू और चूरमे का सात्विक भोग भी चढ़ाया जाता है।

कालभैरव एक मात्र ऐसे देवता है जिनकी हर महीने की अष्टमी को प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। इनका मंदिर जिस शहर गांव में होता है वे उस नगर के कोतवाल कहलाये जाते हैं। 


कालभैरव मंदिर के अलावा यहां पाताल भैरवी का भी मंदिर है। यह गुफा एक तरफा है और इसका महत्त्व तंत्र से जुड़ा है।


हर वर्ष मध्यप्रदेश सरकार वार्षिक पूजा अनुष्ठान भी करवाती है।


ज्ञातव्य: कालभैरव मंदिर कुल मिलाकर एक तांत्रिक सिद्धपीठ है। महाकाल की नगरी में महाकाल के दर्शन के साथ-साथ कालभैरव के दर्शन त्वरित फल देने वाले होते है। यहां मदिरा की बोतल का मूल्य

बाजार में मिलनेवाली बोतल से दुगने मूल्य पर मिलता है।

✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

पावागढ़ महाकाली मंदिर, चंपानेर, गुजरात

गुजरात राज्य के चंपानेर जिले में माँ काली एक दिव्य शक्तिपीठ पावागढ़ स्तिथ है। पश्चिम भारत में पावागढ़ महाकाली मंदिर एक मात्र देवी मंदिर है जो सर्वाधिक ऊंचाई पर बसा माँ का दिव्य दरबार है।

पौराणिक इतिहास:

पावागढ़ मंदिर का पौराणिक इतिहास सतयुग के आरंभ के काल का है। इस धाम की उत्तपत्ति माता सती के देह से कट के गिरे अंगों में से निर्मित हुई थी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं कि यहाँ माता के शरीर का कौन सा अंश गिरा था। पुराणों में कहीं माँ के किसी एक पैर की 5 उंगलियाँ तो कहीं वक्ष स्थल कहा गया है। इस मंदिर के नाम करण के पीछे का सत्य स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं है। क्योंकि पावागढ़ का नाम तो माता के पांव से गिरी उंगलियों के कारण या तो गुजरात के इस भूभाग में पवन के अति वेग से चलने की वजह से पड़ा हो सकता है। 

                  



                



माँ सति के पुनीत अंगों से बनी इस भूमि पर माँ काली के विग्रह को ऋषि विश्वामित्र ने स्थापित किया था। विश्वमित्र के नाम पर चंपानेर क्षेत्र की नदी विश्वमित्री नाम से जानी जाती है। इस धाम में भगवान श्री राम का भी आगमन रावण के वध पश्चात हुआ था। रावण वध के ब्राह्मण हत्या के दोष के निवारण हेतु प्रभू ने यहीं प्राश्चित किया था। भगवान के दोनों पुत्र लव-कुश के भी याँ आने की बात यहाँ के निवासी मानते हैं।


मध्यकालीन इतिहास:


पावागढ़ के उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार काली मंदिर का इतिहास 1000 वर्षों का माना गया है। उस समय मंदिर में माँ के दर्शन बहुत दुर्लभ हुआ करते थे। घने जंगलों के मध्य पहाड़ी पर बने मंदिर पर अधिकांश सौराष्ट्र वासी नहीं चल पाते थे। 

 मुग़ल काल के भारत में सत्ता लेने के बाद सन् 1484 में क्रूर इस्लामी हमलावर महमूद बेगड़ा ने पावागढ़ पहाड़ीपर सेना के साथ चढ़ाई कर मंदिर क्षतिग्रस्त कर दिया और पीर सदन शाह की दरगाह बनवा दी। 


पावागढ़ मंदिर:


पावागढ़ मंदिर को प्राचीन समय में शत्रुंजय मंदिर कहा जाता था। माँ महाकाली के इस भव्य और अद्धभुत मंदिर कुल 1525 फ़ीट(550मीटर) की ऊंचाई पर है। इसकी चढ़ाई में 2500 से ज़्यादा सीढियां चढ़नी पढ़ती है। सन् 2017 से 2022 के बीच मंदिर से पीर सदन शाह की दरगाह हटाकर पहाड़ी के अन्य स्थान पर करवाया गया है। माँ काली दक्षिण मुख किये हुई हैं। माँ की पूजन विधि तंत्र परम्परा के नियमों के अंतर्गत होती है। जैसे के अन्य शक्तिपीठों और देवी मंदिरों में देखने को मिलता है, पावागढ़ मंदिर में माता काली के साथ माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती विराजी हैं। 

            



मंदिर पूरे 500 वर्षों के बाद माँ के विग्रह के ऊपर शिखर बनवाई गई है और ध्वजारोहण भी किया गया है। यह प्रशंसनीय कार्य माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य सरकार के भरपूर प्रयास से संभव हो पाया है। एक और कारण, पावागढ़ गुजरात के प्रमुख तीर्थो में से एक है। वर्ष 2017 से पहाड़ी के शिखर से दरगाह हटाने का कार्य 2022 मे निष्पादित हुआ जिसके बाद दरगाह पहाड़ी के अन्य कोने में स्थानांतरित करवा दि गयी।


माँ काली के दुर्लभ से सुलभ दर्शन की यात्रा का इतिहास पावागढ़ मंदिर ने रचा है।


पहाड़ पर चढ़ाई करते समय आगंतुक मध्य में दुधिया और तलइया तालाब देख सकते हैं। रोपवे से ऊपर-नीचे जाते समय नज़ारा और भी विहंगम दिखाई देता है।  सीढ़ियों की शुरुआत से लेके रोपवे के अंत स्टेशन तक यहाँ भक्तों के उपयोग की हर खाद्य और दूसरी वस्तुएं यहाँ बनी दुकानों में उपलब्ध रहती है।






नवरात्र में माता काली यह प्राचीन मंदिर भक्तों को पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और बाकी राज्यो से खींच लाता है। दूर से पावागढ़ की पहाड़ी पर मंदिर मानों माँ का मुकुट जैसा प्रतीत होता है।


पावागढ़ माँ काली गरबा:


गुजरात पावागढ़ की महाकाली को समर्पित एक प्रेम और भक्ति से परिपूर्ण गरबा लिखा गया है जिसे गुजरात मे हर वर्ष नवरात्रों और अन्य उत्सवों में गाया और मनाया जाता है। गरबे की पंक्तियां यह रही- 


पावली लई ने हूँ तो पावागढ़ गयी थी,

पावली लई ने हूँ तो पावागढ़ गयी थी,

पावागढ़ वाली मने दर्शन दे, दर्शन दे। 


नई तो मारी पावली पाछी दे, 

नई तो मारी पावली पाछी दे।


अर्थ: भक्त माँ से नटखट और प्रेममय भाव से कह रहा है "पावागढ़ वाली माँ के लिए मैं 5 पैसे लेके गई थी, पावागढ़ वाली मुझे दर्शन दो, नहीं तो मेरे 5 पैसे वापिस दो। 


पावागढ़ मंदिर समयसारिणी:


पावागढ़ मंदिर खुलने का समय सुबह 5 बजे और बंद होने का समय संध्या 7 बजे का है। माँ काली की आरती का समय सुबह 5 बजे और संध्या 6:30 बजे का है।


पावागढ़ मंदिर कैसे पहुँचे:


पावागढ़ पहुँचने के लिए रास्ता दो भागों में बंटा है। 

पावागढ़ के सबसे निकट पहले वडोदरा और दूसरा अहमदाबाद शहर है। दोनों की दूरी 46 और 150 किमी है। 


चंपानेर से अहमदाबाद और वडोदरा सड़क मार्ग से अच्छे से समर्पक में है तथा रेल और हवाई मार्ग से देश के अन्य कोनों से भी जुड़े हुए हैं। चंपानेर के बस स्टैंड से बस दिन के हर समय चलती है। 


चंपानेर पहुंचकर ऑटो या टैक्सी में पहले 5 किमी अंदर का सफर कर मंदिर के पहाड़ के नीचे पहुंचना होता है। और पश्चात रोपवे(उड़नखटोला) से कुछ ही मिनट में मंदिर के नीचे पहुंचा जा सकता है। 

यहां से 250 सीढियां और चढ़कर मा काली के दर्शन किये जाते हैं।


✒️स्वप्निल.अ

शनिवार, 30 दिसंबर 2023

गढ़कालिका मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

माँ गढ़कालिका मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धपीठ है। इस अलौकिक मंदिर के अनसुलझे रहस्यों के बारे में आम जनता को अधिक जानकारी नहीं हैं। 


पौराणिक इतिहास:


उज्जैन की प्रचलित मान्यता अनुसार सत्ययुग में माता सति द्वारा प्रजापति दक्ष के यज्ञ में माता सति के प्राण त्यागने के पश्चात जब भगवान हरि द्वारा उनकी देह के टुकड़े करने पर माँ का एक ओष्ठ यहां के भैरव पर्वत पर गिरा था। हरसिद्धि माता मंदिर अवन्तिकापुरी का एक और शक्ति और सिद्धपीठ है जो उसी भैरव पर्वत है। इसी क्षेत्र में माता गढ़कालिका का धाम भी जाना जाने लगा। लिंग पुराण की कथा अनुसार जब प्रभू श्री रामचंद्र जब लंका पर दिग्विजय कर वापिस अयोध्या लौट रहे थे तब रास्ते मे रुद्र सागर तट के निकट रुके थे। उस रात्री माता कालिका भूख से व्याकुल नर भक्षण करने निकल पड़ी, तब उन्हें राम भक्त हनुमान दिखे और उन्हें पकड़ने माँ झपटी तो हनुमान जी ने भीम काय रूप धारण कर लिया और माता वहाँ से चली गयी। जाने के पश्चात जो अंश गालित हो कर गिर गया उस अंश से पिंडी प्रकट हुई।  ज्ञातव्य हो, इस स्थान को गढ़ नाम से जाना जाता था इसी से मंदिर का नाम गढ़कालिका कहा जाने लगा।


माँ गढ़कालिका

  

इतिहास:


मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्ष द्वारा 606 ईसवी में करवाया गया था और मध्यकाल में राजा हर्षवर्धन ने भी अन्य कई कार्य करवाकर मंदिर की शोभा बढ़ाई। ग्वालियर के सिंधियाओं ने मंदिर का पुनःनिर्माण कार्य करवाया गया था। 



महामूर्ख कवि कालिदास:


उज्जैन नगरी को कालिदास की नगरी भी कहा जाता है। अपने जीवनकाल में कालिदास महानतम कवि के पहले महामूर्ख माने गए थे। उदाहरण के तौर पर एक बार वे एक वृक्ष की डाल पर बैठ वही डाल काटते देखे गए थे। इससे उनकी पत्नी विद्योत्तमा इस बात से चिंतित थी। फिर कालिदास माँ गढ़कालिका की आराधना में मग्न हो गए। फल स्वरूप माँ गढ़कालिका ने उन्हें इसी मंदिर स्थलीय पर दर्शन दे कर अभिभूत किया। माँ के वरदान के कारण वे "शामला दण्डक" महाकाली स्तोत्र और अन्य 6 संस्कृत महाकाव्यों की रचना कर पाए। यह स्तोत्र कालिदास की सबसे उत्तम और कालजयी रचनाओं में से एक है। उज्जैन या किसी भी स्थान पर कवि कालिदास के नाम पर किये जाने वाले कार्यक्रमों में माँ गढ़कालिका का आवाह्न अवश्य किया जाता है। माँ कालिका की कृपा से कालिदास परम् मूर्ख से महान कवि बन गए। 


    


गढ़कालिका मंदिर:


माँ गढ़कालिका के जीवंत से दिखनेवाले चेहरे पर सिंदूर गढ़ा है। सिर से मस्तक तक चांदी का मुकुट माँ की प्रतिमा में चार चांद लगाता है। मूर्ति की अनूठी बात है माँ के चांदी के दांत जो किसी और शक्तिपीठों में देखने को नहीं मिलते। माँ कालिका के दाएं ओर माँ लक्ष्मी और बाएं ओर माँ सरस्वती विराजी हैं। माँ को पुष्पों की माला और पुष्पों के स्थान पर तंत्र पूजन के नियमित नींबू से बनी माला चढ़ाई जाती है। तथा नींबू का प्रसाद भक्त लेके जाते हैं। इन नींबुओं को घर में रखने पर माँ उस घर की रक्षा करती हैं।


माँ गढ़कालिका शक्तिपीठ


वैसे साल के 12 मास इस मंदिर में तांत्रिकों का जमावड़ा बना रहता है किंतु नवरात्र और गुप्त नवरात्र में तांत्रिक इस मंदिर में विशेष साधना करने आते हैं। मंदिर के समक्ष एक प्राचीन दीप स्तम्भ भी खड़ा है जिसे नवरात्र में प्रज्वलित किया जाता है।


माँ गढ़कालिका मंदिर का सम्पूर्ण क्षेत्र अलग-अलग देवो के मंदिरों से अक्षरसः घेराव किये हुए हैं। मंदिर एक किमी दूर भैरव मंदिर है वहीं बगल में भगवान नारायण का चतुर्मुख मंदिर, गणेश मंदिर, हनुमान मंदिर और गोरे भैरव का मंदिर है।


इस देवी मंदिर के पास 52 स्नान कुंड है। इन कुंडों म् एक कुंड के नीचे एक शिवलिंग विराजमान है। इस कुंड की प्रसिद्धि इसके सिद्धि प्रदान करने के लिए मान्यता है। साधक हो या तांत्रिक, जिसे भी अपनी सिद्धि को सिद्ध करना हो तो उसे इस कुंड में जाना आवश्यक होता है। मंदिर के निकट क्षिप्रा नदी के घाट पर माता सती की मूर्तियां है और उज्जैन में हुई सारी सतियों की स्मृति में खड़ा किया हुआ स्मारक भी बना है

  

     


मंदिर आरती:


देश के अन्य तीर्थो या प्रसिद्ध मंदिरों की तुलना में गढ़कालिका मंदिर में आरती का समय बिल्कुल भिन्न है। यहां माँ की आरती सुबह 10 बजे और संध्या सूर्यास्त के समय होती है। कवक हफ्ते में शुक्रवार के दिन में दोपहर 12 बजे का समय आरती के लिए होता है। 

आरती में उपयोग किये जाने वाले छोटे और बड़े वाद्य यंत्र होते हैं जो बड़े उत्साह और हर्ष के साथ बजाए जाते हैं।


 ✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



बुधवार, 27 दिसंबर 2023

टपकेश्वर महादेव, देहरादून, उत्तराखंड

पौराणिक कथा:

टपकेश्वर महादेव में स्वयम्भू शिव लिंग रूप में विराजमान हुआ था। इसकी कथा कुछ भी स्पष्ट अनुमान नहीं है। केवल इतनी जानकारी मिलती है कि सबसे पहले देवता और फिर ऋषि मुनियों ने बारी-बारी लंबे अंतराल पर यहाँ आकर तपस्या की और भोले को प्रसन्न किया। द्वापरयुग के आगमन पर गुरु द्रोण ने महादेव की कठोर साधना की और महादेव ने दर्शन दे कर गुरु द्रोण को धनुर्धर बनने का वरदान दिया। इसी के साथ ही भगवन जगत कल्याण के उद्देश्य से इस स्थान पर पिंडी रूप में विराजित हो गए। तब से इस गुफा को द्रोण गुफा कहा जाता है।


कई वर्षों की अवधि बीत जाने पर भी जब द्रोणाचार्य को संतान प्राप्त न हुई तो एक आकाशवाणी में उन्हें पुत्र प्राप्ति का आशिर्वाद भगवान ने दिया। यह शिशु बाकी शिशुओं की तरह रोया नहीं बल्कि अश्व की भांति  निन-निहाया सो नामकरण अश्वत्थामा रखा गया। 

अश्वत्थामा ने बालपन में दूध नहीं चखा पर एक दिन किसी ऋषि के घर से दूध का सेवन कर वापिस आने के पश्चात अपनी माता से दूध पीने का हट करने लगे तो माता ने कहा जा शिव से ले ले। हटी अश्वत्थामा ने भी माँ की गुस्से भरी बात को गम्भीरता पूर्वक लिया। अपने पिता की आराधना स्थली पर आकर तपस्या की। भोले शंकर ने दर्शन देकर अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने और इस स्थान पर दूध की प्राकृतिक उत्तपत्ति का वरदान दिया।


           
टपकेश्वर महादेव


टपकेश्वर मंदिर: 


मंदिर प्रवेश के पहले फूल पूजा सामग्री की दुकानों के पास ही एक प्राचीन दुर्गा मंदिर है जिसके दर्शन् किये बगैर आगंतुक महादेव मंदिर में नहीं जाते। मंदिर के गेट के बाद भगवान कालभैरव का मंदिर आता है। मंदिर भवन के बाहर भगवान हनुमान की विशाल मूर्ति खड़ी मुद्रा में विराजित है। टपकेश्वर महादेव शिवलिंग इस गुफा के अंदर विराजित है। 

  मंदिर की गुफा में शिवलिंग पर प्राकृतिक रूप से गुफा के पत्थरों से पानी टपकता रहता है जैसे स्वयं इंद्र आदि देवता प्रभू का जलाभिषेक करते हों। 


टपकेश्वर महादेव के पौराणिक महत्त्व के कारण इसे दूधेश्वर, देवेश्वर और तपेश्वर भी कहा गया है। 


गढ़ी कैंट क्षेत्र में मौसमी छोटी तोमसू/देवधारा नदी की अविरल धारा बहती है। मॉनसून आने पर यह नदी उफान पर होती है। यह नदी मसूरी से प्रकट होती है। और देहरादून के प्रेम नगर में लुप्त हो जाती है। 

                          

 

टपकेश्वर महादेव मंदिर के भीतर कुल मिलाकर कालभैरव, राधेकृष्ण, माँ दुर्गा और वैष्णोदेवी मंदिर के विग्रह प्रतिष्ठित हैं। वहीं मंदिर के बाहर पवनपुत्र हनुमान की विशाल खड़ी प्रितमा तोमसू नदी को ऊपर से देखते हुए सुसज्जित है।


त्यौहार:


श्रावण के महीने में मंदिर पूजा उत्सव का आयोजन मंदिर के सहयोग दलों द्वारा आयोजित कीट जाता है। मंदिर के देवी देवताओं को हरिद्वार ल् जाकर स्नान कराया जाता है और वापिस मंदिर लेकर शोभायात्रा देहरादून में निकाली जाती है। 




महाशिवरात्रि पर महाप्रसाद किया जाता है। इस मबदिर में मनाई जानेवाली महाशिवरात्रि की सबसे अद्धभुत बात यह है कि यहाँ भांग के पकौड़े और जूस का प्रसाद वितरित किया जाता है। 


होली पँचमी पर "हमारी पहचान" नामक एक ड्रामा ग्रुप द्वारा मंदिर परिसर में नाटक का आयोजन किया जाता है। 


तोमसू नदी

बजरँगबली मूर्ति


टपकेश्वर मंदिर कैसे पहुँचे:


 टपकेश्वर मंदिर तक पहुंचने के लिए रास्ता बहुत आसान है। मंदिर गढ़ी इलाके के टपकेश्वर कॉलोनी के निकट है।

ट्रेन से टपकेश्वर महादेव पहुँचने के लिए देहरादून तक कई एक्सप्रेस ट्रेनें उपलब्ध है। बाय रोड पहुंचने के लिए प्राइवेट वॉल्वो बस सेवा और प्राइवेट टैक्सी भी उपलब्ध रहती है।  देहरादून का जॉलीग्रांट हवाई अड्डा मंदिर से 27 किमी की दूरी पर है।



✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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