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अत्थि वरदराज पेरुमल मंदिर प्रवेश |
पौराणिक कथा:
पुराणों के अनुसार सत्युग में एक समय ब्रह्माजी इस नगर में यज्ञ करने पधारे किंतु माँ सरस्वती के उनसे रुष्ट हो जाने के कारण उन्हें अपने संग नहीं लाये। यज्ञ करने के लिए ब्रह्याजी अपनी अन्य पत्नी माँ गायत्री के साथ यज्ञ करने लगे तो माँ सरस्वती क्रोधित हो यज्ञ को बाधित-नष्ट करने की ठानी। सरस्वती वेगवती नदी के रूप में प्रकट हो तीव्र वेग से बहने लगी। ब्रह्माजी ने विष्णु जी की प्रार्थना कर उपाय पूछा तो भगवान विष्णु कांचीपुरम में शयन मुद्रा में यज्ञ और वेगवती नदी के बीच विराज गए। भगवान ब्रह्मा के यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने वर दिया और कांचीपुरम में स्थापित होकर वरदराज के रूप में पूजे जाने लगे। (तमिल 'वरद'=वरम)
दूसरी कथा:
एक दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार एक बार जब भृंगी ऋषि के दो पुत्र गौतम ऋषि के गुरुकुल में पढ़ रहे थे तब अनजाने में उन्होंने पूजा अनुष्ठान के लिए जो जल लाया उसमें छिपकली गिर गई थी। गौतम ऋषि ये देख क्रोधित हो उठे और दोनों भाइयों को छिपकली बन जाने का श्राप दिया। क्षमा मांगने पर ऋषि ने शांत हो कर इसका उपाय कांचीपुरम नगरी में केवल भगवान विष्णु कर सकते है। भगवान ने उन दोनों भाइयों का यहां उद्धार कर शाप मुक्त किया। ऐसी पुरानी मान्यता है, जो कोई भी इस मंदिर में सच्चे मन से यहां दीवार पर उत्कीर्णन कर बनाई गई चांदी और सोने की छिपकलियों को छू कर प्रार्थना करता है उसकी सारी बीमारियों दूर हो जाती हैं।
वरदान देने के कारण भगवान विष्णु को वरदराज यानी वर देने वाले राजा के रूप में यहां पूजा जाता है।
इतिहास:
कांचीपुरम एक प्राचीन नगरी है। दक्षिण भारत के इस मनोहारी नगरी में लगभग 1000 मंदिरों का भूल-भुलैय्या हैं, इसीलिए इसे दक्षिण का बनारस भी कहा जाता है। इन मंदिरों में सन्यासी-कवि जिन्हें अलवर कहते है, भजन किया करते थे। वरदराज पेरुमल मंदिर सबसे पुराना उल्लेख तीसरी शताब्दी(AD) का मिलता है किंतु आज जो मंदिर का ढांचा हम देख रहे हैं इसका निर्माण चोला राजाओं द्वारा 9वी सदी में बनकर पूरा हुआ। सन् 1053 में मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। यहां तमिल भाषा मे 350 श्लोक उकेरे गए है जिसमें
चोल, पांड्य, कंदवराय, चेरा, काकतीय, सांबुवराय, होयसल और विजयनगर साम्राज्यों की छाप साफ देखी जाती हैं। इन राजवंशों ने समय-समय पर मंदिर की वास्तुकला में अपना योगदान प्रदान किया था।
विशिष्टाद्वैत वैष्णव मत के परम्पूज्य संत रामानुज ने इस मंदिर में अपने जीवन के कुछ वर्ष व्यतीत किये थे। वरदराज पेरुमल मंदिर वैष्णवों के पवित्रतम धामों में से एक है और वैष्णव साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता हैं।
सन् 1688 में मुग़लों के दक्षिण की तरफ आक्रमण की वजह से मंदिर में भगवान की प्रमुख तस्वीर को उदयारपालयम , तिरुचिरापल्ली में भिजवा दिया गया था। जनरल टोडरमल के अंदर काम करनेवाले कुछ लोगों की सहायता से से भगवान की उस तस्वीर को वापिस लाया गया था। अंग्रेजी उपनिवेश की शुरुआत में भारत के पहले गवर्नर रोबर्ट क्लाइव ने यहां मनाए जानेवाले गरुड़ सेवा उत्सव पर एक बहु मूल्य हार (क्लाइव महारकांडी) मंदिर में भेंट की थी। विशेष उत्सवों पर आज भी उस हार से भगवान को सजाया जाता है।
मंदिर:
अत्ति वरदराज पेरुमल मंदिर 23 एकड़ में बनवाया गया है। लगभग 1800 वर्ष पुराने इस मंदिर की भव्यता इसकी जटिल वास्तुकला के लिए जानी जाती है। कांचीपुरम के अन्य मंदिरों की तरह ही विश्वकर्मा स्थापथियों के कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण है।
भगवान पेरुमल स्वामी की मूर्ति के दर्शन को जानेवाले रास्ते में 24 सीढ़ियां आती है। वह 24 सीढ़ियां गायत्री मंत्र में 24 अक्षरों को चिन्हित करते है। मंदिर के भीतर के गर्भ गृह को ही अत्तिगेरी मंदिर बोला जाता हूं क्योंकि यही मंदिर के प्रमुख देवता है। मंदिर भगवान नरसिंह एक बनाई गई पहाड़ी पर विराजे हैं।
यहां आने वाले भक्त अक्सर मंदिर के 100 स्तम्भों के रहस्य को नजरअंदाज कर देते हैं। यह स्तम्भ अपनी जगह पर रहते हुए घूमते हैं और इनसे ध्वनि सुनाई देती है। मंदिर में रामायण और महाभारत की कहानियाँ को सुंदरता के साथ शिल्पकारों ने उकेरा है। मंदिर के हॉल के बाहर के चारों कोनों पे लटकती लोहे की मोटी सनकलें दर्शनार्थियों का ध्यानाकर्षण करती हैं।
40 वर्ष दर्शन अंतराल:
अथि वरदराज मंदिर से जड़ा विस्मय कर देने वाला एक सबसे अनूठा सत्य है; यहां भगवान विष्णु की 10 फ़ीट लंबी अंजीर(अत्ति/Fig) की लकड़ी से बनी मूर्ती हर 40 वर्ष में दर्शन के लिए "अंनत तीर्थम सरोवर" के अंदर से बाहर निकाली जाती है। इसे मंदिर के वसंता मण्डपम भाग में दक्षिण-पश्चिम दिशा में अड़तालीस दिन यह इस मूर्ति की पूजा की जाती है। मूर्ति 24 दिन खड़ी और 24 दिन शयन मुद्रा में विराजित रहती है। इसके पश्चात भगवन को पुनः "अनंत तीर्थम" सरोवर के एक गुप्त कक्ष में जलमग्न कर दिया जाता है। रहस्यमय बात ये है कि 4 दशक अंदर रहने के बाद भी आज तक मूर्ति का मूल स्वरूप में रत्ती भर बदलाव नहीं आया और ना ही मूर्ति की लकड़ी सड़ी है।
इन 48 दिनों के बाद चालीस वर्षों तक वरदराज की पत्थर के विग्रह की पूजा की जाती है। इतिहास को देखें तो पता चलता है यह परंपरा को शरुआत मुगलों के दक्षिण में आक्रमण को देखते हुए शुरू को गयी थी। उसके पहले केवल अंजीर की मूर्ति को पूजा में किया जाती थी। आक्रमण के समय नुलसान से बचाने के लिए मूर्ति को अंनत सरोवर में छुपा दिया गया और फिर काफी दशकों तक लुप्त मान ली गयी। एक दिन 1709 में मूर्ति अंनत सरोवर की सफाई करते समय खाली करने पर अचानक प्रकट हुई और फिर इस परंपरा का पालन किया जाना शरू हुआ।
आखरी बार 1 जुलाई से 17 अगस्त 2019 में वरदराज ने दर्शन दिए थे और अब पुनः दर्शन 2059 में देंगे।
छिपकली मंदिर:
भगवान वरदराज पेरुमल के गर्भ गृह के प्रवेश के लिए जाने वाले रास्ते के पहले, बाहर मंदिर की छत पर दो छिपकलियां, सोने और चांदी में गढ़ी हुई है। साथ ही सूर्य और चंद्रमा भी गढ़े हुए हैं। इन्हें छू कर भक्त भगवान के दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं।
भारत में सनातन के मंदिरों में छिपकली की मूर्तियों के दर्शन करवाने वाला केवल यही एक मात्र मंदिर नहीं है। कर्नाटक में बल्लिगवी नाम से एक और मंदिर अपनी छिपकली की मूर्ति के लिए कर्नाटक वासियों में प्रसिद्ध है।
छिपकलियों का हिंदू सनातन मंदिरों और पुराणों से कड़ियाँ आज की दुनिया से सम्बंध में यूट्यूब पर पाठक प्रवीन् मोहन जो एक हिन्दू मंदिर अध्ययन करता है, इनके वीडियो से इस रहस्य के बारे में गहराई से जानकारी ले सकते है।
मेर अपना अध्ययन प्रवीन मोहन के मत से काफी मिलता है। यह छिपकलियां बास्तव में प्राचीन भारत में मनुष्यों के साथ आधे सरीसृप-आधे मनुष्य रूप में रहा करती थी। हम श्रीमद्भागवत, रामायण और कितने सारे पुराणों में नागों के बारे में सुनते और पढ़ते हैं, वास्तव में यह नाग आकार और शरीर बदलने में बहुत सक्षम थे। यह मनुष्यों को उनके व्यवहार के अनुकूल लाभ और हानी पहुँचा सकते थे।
थिरुक्काची नंबीगल:
मंदिर से जुड़े एक महान विष्णु भक्त थिरुक्काची नंबीगल (दूसरा नाम कांची पूर्णार) हुए थे। उनकी विष्णु भक्ति से वैष्णव सम्प्रदाय के रामानुज भी प्रभावित थे। नंबी ने एक संस्कृत कविता देवराजाष्टकम् का सृजन किया था। इनकी भक्ति और काव्य से रामानुज को वरदराज से जुड़े छः प्रश्नों के उत्तर भी मिल गए थे।
नंबी ने पूवीरूंधवल्ली में एक बगीचा बनाया था। प्रतिदिन वहीं से पुष्प लाते थे। प्रभु की सेवा के समय हाथों के पंखे से अलवत्ता कंगारियम किया करते थे। इस परंपरा का आज भी पालन किया जाता हैं। सेवा करते समय भगवान वरदराज नंबी से वार्तालाप किया करते थे।
त्यौहार:
वरदराज मंदिर में भ्रमोत्सवम एक बड़ा और विशेष पर्व है जो हर वर्ष मई/जून महीने में हज़ारों भक्तों द्वारा मनाया जाता है। इस उत्सव में विशाल छत्रियाँ प्रयोग में लायी जाती है। त्यौहार का आनंद गरुड़ वाहनं और थेर थिरुविल्ला रथ यात्रा निकलने पर चौगुना हो जाता है।
सड़क के रास्ते 2.5 घण्टे का समय लगता है। प्राइवेट कैब और टैक्सी सेवा के लिए सेवाएं 24*7 रहती है ।
चेन्नई हवाई अड्डे से देश और विदेश के लिए उड़ाने दिन रात भर्ती हैं।
✒️Swapnil. A
(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)
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