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मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

जागेश्वर महादेव, अल्मोड़ा, उत्तराखंड

उत्तराखंड के सांस्कृतिक केंद्र और राजधानी कहे जाने वाले अल्मोड़ा में बसा भगवान शिव का वो तीर्थ जिसे कुछ पुराणों में 12 में से एक ज्योतिर्लिंग बताया गया है और अन्य ग्रँथ में शिव के शिशिन(लिंग) रूप में पूजा की उत्तपत्ति वाला स्थान। यह धाम है जागेश्वर महादेव जो देवदार के घने वृक्षों के मध्य बसा है। अनोखी बात इस धाम की यह बी है कि यहाँ देवादिदेव पूरे 125 लिंगों के समूह में विराजे हैं। इतने सारे मंदिरों को एकत्रित कर एक स्थान और देखने पर आगंतुक भूल जाते हैं किस मंदिर के प्रथम दर्शन करें। 

 यह धाम अनगिनत विशेषताओं सर परिपूर्ण है।

जो कोई भी जागेश्वर धाम के दर्शन कर वापिस जाता है, इस अलौकिक स्थली की भव्यता देखकर मौन व्याख्यान ही कर पाता है। 


पौराणिक इतिहास:


जागेश्वर महादेव का विवरण स्कंद पुराण, लिंग पुराण और शिव महापुराण में मिलता है। इसी स्थान पर महादेव ने सप्तऋषियों के साथ मिलके तपस्या की थी। महादेव जागृत रूप में विराजे थे सो यहीं से लिंग और जागृत इन दोनों रूपों की पूजा शुरू हुई थी। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि मंदिर में माँ पार्वती और महादेव दोनों विराजे है जो तीर्थों में इसे दुर्लभ स्थान बनाता है। अल्मोड़ा के जंगलों में पाए जाने वाले देवदार के वृक्षों को शिवशक्ति का अर्धनारीश्वर रूप माना गया है। रामायण काल मे लव-कुश ने यहां पर कई दिनों तक यज्ञ कर महादेव को प्रसन्न किया था। अपने पिता से अश्वमेध यज्ञ पश्चात जो युद्ध हुआ उसका प्रायश्चित करने लवकुश यहां आए थे। महाभारत काल मे पांडवो का आगमन इस पवित्र स्थली पर हुआ था। 


यहाँ के निवासी सदियों से अपने पूर्वजों की कहि सुनी मानते आए हैं। 


जागेश्वर मंदिर समूह

इतिहास:


जागेश्वर मंदिर समूह के बनने के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। हालांकि मंदिर के अंदर की नक्काशियां कत्यूरी राजाओं ने बनवाई थी तथा भीतर चन्द्रवँश के राजाओं दीपचंद, निर्मलचंद और पवंनचंद की मूर्तियां भी बने है। राजा शालिवन ने अपने काल मे मंदिर में कुछ नवीनीकरण का कार्य भी करवाया।  पिछले दो से तीन हज़ार वर्ष के काल मे यहां अलग-अलग शासकों ने मंदिर में अपने काल की वास्तुकला की छाप छोड़ी है। 




जागेश्वर धाम मंदिर:


जागेश्वर मंदिर नागर शैली में बनाया गया है। मंदिर का निर्माण 10 वी से 13 वी सदी ईसवी के मध्य संपूर्ण हुआ था। भगवान भोले और अन्य देवता सतयुग और द्वापरयुग के समय से प्रतिष्ठित हैं। जागेश्वर मंदिर के बाहर द्वार पर शिव के गन, नंदी और भृंगी द्वारपाल रूपी मूर्तियाँ हैं। ज्योतिर्लिंग की छवि अभी तक उपलब्ध नहीं है। आदि गुरु शंकराचार्य इस स्थान पर केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की तरफ जाने के पूर्व आकर यहां पूजा और साधना की थी। इस अनूप धाम को उस समय आदि गुरु ने संपुटित कर दिया। यहाँ पर बाबा जागेश्वर जागृत रूप में त्वरित फल दे देते थे तथा इसका आभास होने पर गुरु ने यहां विराजे महादेव के लिंग की शक्तियों का अनुचित लाभ कोई अधर्मी, षठ मनुष्य ना ले सके तो इसे मंत्रो से ढंक दिया। 


जागेश्वर प्रवेश द्वार 


इस युक्ति के विपरित अगर कोई यहां आकर महादेव की कठिन साधना जैसे 2.5 - 4 लाख माला का जप करे तो उसे महादेव तुरंत फल देते हैं।


आदिगुरु ने कैदारनाथ ज्योतिर्लिंग आने के पहले यहाँ समय व्यतीत किया था। उस समय केदारनाथ की अति कठिन डगर को पार कर पाना बहुत कठिन था इसीलिए जागेश्वर धाम को ही ज्योतिर्लिग का स्थान प्राप्त था। 


पुराणों में वर्णित एक श्लोक में जागेश्वर धाम की महिमा इस प्रकार लिखी गयी है -


 " मा वैद्यनाथ मनुषा वजंतु,

काशीपुरी शंकर बल्लभावां।

मायानगयां मनुजा न् यान्तु, 

जागीश्वराख्यं तू हरं व्रजंतु"।


 अर्थ:मनुष्य वैद्यनाथ न जा सके शंकर प्रिय काशी, हरिद्वार भी ना जा सके किंतु जागेश्वर अवश्य जाकर महादेव के दर्शन करे।


किंवदंती अनुसार जागेश्वर धाम के मंदिरों के बारे में यह बताया जाता है की यहाँ सारे मंदिर केवल एक रात में बनाये गए थे। हर मंदिर की ऊंचाई एक दूसरे से भिन्न है। अधिकतर मंदिर एक रात में बन गए और कुछ मंदिर एक ऊंचाई पर बनकर रुक गए। 

जागेश्वर मंदिर(नागेश्वर दारुका), पुष्टि माता मंदिर, मृत्युंजय मंदिर, हनुमान मंदिर, बटुक भैरव मंदिर, नव ग्रह मंदिर, नौ दुर्गा मंदिर, सूर्य मंदिर, नीलकंठ मंदिर, कालिका देवी, कुबेर मंदिर, केदारनाथ मंदिर, लकुलिश मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर और कमल कुंड मंदिर। 


★ मृत्युंजय मंदिर देश का इकलौता मृत्युंजय मंदिर है। इस मंदिर में भगवान शिव महामृत्युंजय रूप में विराजे है। इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी। मंदिर स्थापना के पहले महामृत्युंजय मंदिर के स्थान पर लोग प्राणोत्सर्ग किया करते थे तो आदि गुरु ने मंदिर बनवाकर कील कर दिया। इस मंदिर के दर्शन करने पर अकाल मृत्यु का डर समाप्त हो जाता है। 


★ बटुक भैरव मंदिर के दर्शन अगर आगंतुक ना करे तो बटुकनाथ तरह-तरह से दंड देते है।


★ पुष्टि भगवती 51 भगवतियों में से एक है। इनके दर्शन से ही इस तीर्थ में आने का फल प्राप्त अथवा यात्रा संपूर्ण होती है। 


         


ज्योतिर्लिंग विवाद:


स्कंद और लिंग पुराण अनुसार जागेश्वर धाम को आंठवा ज्योतिर्लिंग भी कहा गया है इसीलिए अल्मोड़ा वासी जागेश्वर को असली नागेश्वर ज्योतिलिंग के रूप में पूजते हैं। पुराणों में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग को दारुक वन के समीप बताया गया है किंतु आदि काल में ना जाने किस भ्रांति के कारण दारुक वन द्वारका वन मान लिया गया और नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थान हिन्दू जन मानस में सदा के लिए द्वारका जो गुजरात मे स्थित है स्वीकार कर लिया गया। 


सारे देवों के गर्भ-गृह में कोई भी फ़िल्म फ़ोटो खींचने वाले या रिकॉर्ड करने वाले उपकरण ले जाना प्रतिबंधित है। 

जागेश्वर धाम कैसे पहुँचे:


 जागेश्वर धाम अल्मोड़ा से 36 किमी दूरी पर स्तिथ है। इस दूरी को सवा 1 घण्टे में पूरा किया जा सकता है।  ट्रेन से जागेश्वर पहुँचने के लिए काठगोदाम आना पड़ता है। काठगोदाम से प्राइवेट टैक्सी की सेवा उपलब्ध है। 


सबसे करीबी हवाई अड्डा देहरादून का जॉली ग्रांट हवाई अड्डा 328 किमी है। इस दूरी को 7.30 घण्टे के समय में पूरा किया जाता है। 


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


शनिवार, 16 दिसंबर 2023

तारापीठ शक्तिपीठ, बीरभूम, पश्चिम बंगाल

बंगाली हिंदुओं के प्रमुख हिन्दू देवी तीर्थों में कालीघाट, तारापीठ शक्तिपीठ और नबद्वीप विशेष स्थान रखते हैं। 


पौराणिक इतिहास:


तारापीठ शक्तिपीठ के स्थापना की कथा मुख्यतः सतयुग की ही मानी गयी है। जब माता सति दक्षयज्ञविनाशिनी हो कर आत्मदाह कर लिया,  दुख में डूबे भगवान शिव सारे संसार मे उनकी मृत देह लिए घूमने लगे, इस पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस देह के टुकड़े किये। उन टुकड़ों में माता सती के नेत्र की पुतली जिसे तारा कहा जाता है बीरभूम की इस भूमि पर आ गिरी। आज यही मंदिर तारापीठ धाम के नाम से विख्यात है। बीरभूमि का पूरा अर्थ है वन से घिरी हुई भूमि है।


शिव को स्तनपान कराती माँ तारा



तारापीठ मंदिर(ऊपर से लिया गया)

तारापीठ मंदिर इमारत


दूसरी कथा अनुसार जब भगवान भोलेशंकर नीलकंठ हो गए तो उनके गले मे जलती ज्वाला को  द्वितीय महाविद्या माँ तारा ने शांत किया। जिसके लिए प्रभू ने बाल रूप धर लिया। फिर माँ ने उन्हें स्तनपान करवा कर शीतलता प्रदान की। तीसरी कथा वशिष्ठ ऋषि से जुड़ी है। इसी स्थल पर वशिष्ठ ऋषि को माँ तारा ने दर्शन दे कर सिद्धियां वरदान स्वरूप दी थी।


उत्तर भारत की सभी नदियों में यहाँ बहने वाली द्वारका नदी एक मात्र नदी है जो दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है। 


अघोरी बामाखेपा:


अघोरी बामाखेपा बंगाल के बीरभूम जिले के आटला गाँव मे जन्मे एक अघोरी थे जिन्हें कई सारे चमत्कारों के लिए जाना जाता है। बामाखेपा माँ तारा के परम भक्त थे। एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे बामा को बचपन से ही ईश्वर के बारे में चिंतन करते रहने में बीतता था। फिर जब उन्हें तारापीठ का बुलावा आया तो उन्होंने यहां रहकर घोर साधना की। माँ तारा प्रसन्न होकर उन्हें अपने दुर्लभ दर्शन दे सिद्धियों से प्राप्त की। बामाखेपा बंगाल के ही संत रामकृष्ण परमहंस के समय के थे। जगजाहिर है, कैसे माँ काली परमहंस को स्वयं भोजन खिलाने आती थी और बामाखेपा को भी माँ तारा का स्नेह प्राप्त था। 



अघोरी बामाखेपा

अघोरी बामाखेपा के रहस्य


तारापीठ मंदिर:


रामपुरहाट उपप्रभाग में तारापीठ नगर का प्राचीन नाम चंडीपुर ग्राम था। माता तारा का मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धिपीठ दोनों होने के कारण इसकी प्रसिद्धि बढ़ती गयी और चंडीपुर(माँ दुर्गा का प्रचलित उग्र रूप) ग्राम तारा पीठ बन गया। 


माँ तारा मूर्ति



तारापीठ नगर की परिसीमा में यह मंदिर मध्यम आकार का है। मंदिर लाल इटों से बना है। इसकी नींव भी मोटी और ठोस है। मंदिर भवन एक गलियारे द्वारा जुड़ा हुआ है जो मंदिर शिखर से जा मिलता है। माँ तारा की मूर्ति गर्भ गृह में छज्जे के नीचे सटीक विराजमान है। अपने दो चरित्र के दर्शन माँ दो मूर्तियों में देती है। एक तीन फीट ऊंची मूर्ति उग्र भाव में ज़िव्हा बाहर, मुंड माला धारण किये भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई। दूसरी सौम्य मातृत्व रूप लिए हुए विषपान किये त्रिपुरारी को स्तन से दूध पिलाति हुई। माँ पर चढ़ा हुए लाल कुमकुम के तिलक का पंडित जी मंदिर आनेवाले श्रद्धालुओं पर लगाते हैं। पंडित गेंदा, गुड़हल और गुलाब इत्यादि फूलों से सजी हुई माँ की प्रतिमाओं से दृष्टि नहीं हटती। देवी तारा को न केवल मिष्ठान, फल और नारियल का भोग अर्पित किया जाता है अपितु साथ ही मदिरा का भोग भी चढ़ाया जाता है। 


तारा माँ, मुण्डमालिनी मंदिर

माँ तारा के साथ महादेव मंदिर और माँ तारा का मुण्डमालिनी मंदिर भी स्थापित है।


तारापीठ मंदिर रहस्य:


मंदिर में बकरों की बलि भी दी जाती है। माँ तारा बगैर बलि के प्रसन्न नहीं होती। बकरों की बलि देनेवाला पहले स्वयं स्नान कर बकरों को अच्छी तरफ स्नान कर कर स्वच्छ करके एक तीखी तलवार से माँ तारा का नाम उच्चारण कर काट देते हैं। इसमें से एक कटोरा रक्त मा को मंदिर में माँ के विग्रह समक्ष अर्पित किया जाता है। 


प्रभू श्री रामचंद्र ने यहां राजा दशरथ का पिंड दान किया था। इसी के चलते मंदिर में मान्यता अनुसार पितरों का पिंड दान भी होता है।


श्मशान भूमी:


माँ तारा दूसरी महाविद्या है। उग्र महाविद्याओं में होने के कारण माँ श्मशान में निवास करती है। बीरभूमि में तारापीठ मंदिर एक श्मशान भूमि के मध्य स्तिथ है। श्मशान भी शक्तिपीठ का हिस्सा है। प्रतिदिन तारा माँ की पूजा अनुष्ठान बिना किसी चिता के हविष्य से आरम्भ नहीं होती। तारापीठ श्मशान में अघोरी साधु तपस्या में देखने को मिलते हैं। कई अघोरी साधुओं के परिवार यहां पीढ़ियों से विचरण कर रहे हैं। अत्यंत पुराने घने पीपल, बरगद आदि के वृक्षों के बीच अघोरी साधुओं की कुटिया झोपड़ी जिनपे मानव और जंगली और पालतू जानवरों की खोपड़ी रखी हुई दिखती हैं। इन खोपडियों में प्राणोत्सर्ग किये हुए लोगो की और कुंवारी कन्याओं के अवशेष मिलते हैं जिन्हें तंत्र क्रियाओं में अधिक प्रयोग में लाया जाता है। आसपास में सांप, बिच्छू रेंगते हुए और गीदड़, कुत्ते और दूसरे पशु रोते-चिल्लाते हुए दिखेंगे। देवी की तंत्र साधना में लीन ये साधू कोई सिद्धि पाने या सांसारिक माया से सम्पूर्ण छुटकारा पाने के उद्देश्यों में लगे हुए होते हैं। 


        
तारापीठ श्मशान भूमि


यहां दो श्मशान है जिसमे से एक तांत्रिक श्मशान और दूसरा सर्वजन श्मशान है। तांत्रिक श्मशान में तांत्रिक क्रिया यहाँ बसे अघोरी और तांत्रिक साधु उपयोग में लाते हैं। वहीं सर्वजन श्मशान आम जनता के उपयोग में है। 


मित्र हिमांशु श्रीवास्तव द्वारा बनाई


जीवित कुंड: 


रोग दोष निवारण हेतु मंदिर में अंदर प्रवेश करने पर जीवित कुंड स्थित है। माँ के मंदिर के बाहर इस कुंड में स्नान करने पर बीमारियों का समाधान होता हैं।


प्रसाद और भोग


मंदिर में भक्तों के लिए शुल्क और ननिशुल्क प्रसाद की भी व्यवस्था मंदिर ट्रस्ट द्वारा की गई है। इस भोग में माँ को मछली प्रसाद रूप में जो चढ़ाई जाता है उसी के साथ स्वादिष्ठ दाल-भात, रसगुल्ला और सब्जी- पूरी के साथ परोसा जाता है।


श्मशान तारा


मंदिर दर्शन:


माँ तारा के दर्शन के लिए वी.ऑय.पी. और साधारण दर्शन दोनों उपलब्ध हैं। वी.आई.पी दर्शन दो तरह के हैं और शुल्क भी। इसका मंदिर ट्रस्ट के दफ्तर में पता लगाया जा सकता है। 

साधारण दर्शन करने के लिए एक लंबी लाइन लगानी पड़ती है। देवी माँ के बेहतर दर्शन के लिए रात 7 से 10 बजे के बीच का समय उत्तम होता है। 


जो भक्त मंदिर में कार्य सफल करवाने के लिए यज्ञ हवन करवाना चाहते है उसका प्रबंध भी मंदिर के पुजारियों द्वारा किया जाता है। 


तारापीठ मंदिर कैसे पहुँचे:


 तारापीठ शक्तिपीठ मंदिर, बीरभूम जिले से कोलकाता के हावड़ा रेलवे स्टेशन तक कि दूरी 290 किमी है तथा यह दूरी NH12 और NH19 से 6 घण्टो में सड़क या रेल सर पूरी की जा सकती है। 


कोलकाता हवाई अड्डे से मंदिर की दूरी 260 किमी दूर है और 6 घण्टो में पूरी की जा सकती है। कोलकाता के डम डम हवाई अड्डे से भारत के हर कोने से हवाई सेवा शुरू रहती है।

 
तारापीठ मार्ग की द्वार


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

मुंडेश्वरी मंदिर,कैमूर,बिहार

पौराणिक इतिहास:

बिहार के मुंडेश्वरी देवी मंदिर का इतिहास सतयुग के समय का है और यहां सबसे पहले महादेव का शिवलिंग था और इसके पश्चात माता पार्वती का मुंडेश्वरी रूप में विराजमान हुई। मुंडेश्वरी मंदिर स्थान का सबसे पहले विवरण स्कंद पुराण में मिलता है। इसके अलावा मार्कण्डेय पुराण अनुसार यही वह स्थल है जहां माँ दुर्गा ने काली रूप धर, चंड-मुंड नामक राक्षस का वध किया था। राक्षस मुंड का सिर कैमूर को इस पहाड़ी पर गिरने की वजह से यह मंदिर मुंडेश्वरी मंदिर कहलाया।




प्राचीन इतिहास: 


मंदिर का सबसे पहला शिलालेख साल 389 ईसवी का बताया जाता है। इस बात का दावा यहां मिले शिलालेख में मिलता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के बीच कई अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस क्षेत्र का दौरा कर मंदिर की जानकारी जुटाई। मुंडेश्वरी माता का यह स्वर्ग से धाम भी देश के लाखों मंदिरों की  ही तरह मुग़लों और दिल्ली सलतनत के हमलों से बच ना पाया। देवी मुंडेश्वरी वराही रूप में है। वराही को काशी की रक्षिका देवी भी माना जाता है। 



         

कुल मिलाकर पौराणिक और प्राचीन इतिहास को मिलाकर देखें तो यह देवी मंदिरों में और भगवान शिव, विष्णु आदि देवों से भी अधिक पुराना है। 

मुंडेश्वरी मंदिर:


पँवरा पहाड़ी पर बसे मुंडेश्वरी मंदिर 608 फ़ीट की ऊंचाई पर स्तिथ है। मंदिर काले पत्थर से बना अष्टकोणीय आकर में है और दोनों बगल में बहुत सारे टूटे हुए अवशेष बिखरे पड़े है। मंदिर के पश्चिम में विशाल नंदी कि मूर्ति है और पूर्व मुख् किये हुए आज भी उसी तरह तटस्थ बैठे है। माता की मूर्ति में इतनी शक्ति होने के कारण मूर्ति को ज़्यादा समय ना देखने की हिदायत यहां के पुजारी आनेवाले भक्तों को दे देते हैं। माँ मुंडेश्वरी मंदिर में वराही रूप में विराजी है।



माता मुंडेश्वरी मूर्ति


देश के अनेकों मंदिर मुग़ल और इस्लामी शासन काल में  तहस-नहस कर दिए गए थे उनमें से एक माँ मुंडेश्वरी का यह मंदिर भी है। मात्र इतना फर्क है कि जहाँ अनेकों मंदिरों पर दरगाह और मस्जिदें बना दी गयी वहीं मुंडेश्वरी धाम मेन मंदिर ईश्वर की विशेष कृपा से बचा रहा। काफी सदियों तक आम जनता की दृष्टि से दूर रहने के कारण मंदिर 


ऐसी बलि और कहीं नहीं:


मंदिर में किसी भक्त की मनोकामना पूरी होने के पूर्व बलि देने का संकल्प लेके मनोकामना पूरी होने पर बकरे की बलि माता को समर्पित करते हैं। मुंडेश्वरी मंदिर में दी जाने वाली पशु बली में पशु के शरीर से रक्त की एक बूंद भी नहीं निकलती क्योंकि पशु को केवल माता की मूर्ति के नीचे रख कर कुछ चावल चढ़ा कर मंत्र बोले जाते हैं। कुछ ही क्षण में बकरा बेशुद्ध हो कर वापिस होश में आ जाता है मानो जैसे परलोक से लौटकर आया हो। 



यह केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज़्यादा एक आध्यात्मिक रीति है जो 1700 वर्ष से मंदिर में निर्बाधित चली आ रही है। 


 पँवरा पहाड़ी के नीचे बने संग्रहालय में पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित मंदिर के अनेक अवशेष जैसे खंडित मूर्तियाँ, स्तम्भ इत्यादि संग्रहित है। इन मूर्तियों में भगवान, गणेश, कालभैरव, विष्णु, सरस्वती और महालक्ष्मी है। 


पंचमुखी शिवलिंग:


मंदिर महादेव का पंचमुखी शिवलिंग विराजमान है जो दिन के तीन पहर में तीन बार रूप बदलता है। जिस पत्थर से यह पंचमुखी शिवलिंग निर्मित किया गया है उसमे सूर्य की स्थिति के साथ साथ पत्थर का रंग भी बदलता रहता है।


  बलि की यह सात्विक परंपरा पुरे भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं नहीं है I एक तरफ मंदिर तक पहुँचने के लिए  524 फीट तक सड़क मार्ग की सुविधा है जहाँ हल्की गाड़ियाँ जा सकती है I राजधानी पटना से प्रतिदिन कई वातानुकूलित एवं सामान्य गाड़ियाँ भभुआ के लिए प्रस्थान करती है। वाराणसी तथा पटना से रेल द्वारा  आने के लिए गया -मुगलसराय रेलखंड पर  स्थित भभुआ रोड (मोहनियाँ) स्टेशन उतरना होता है


पंचमुखी शिवलिंग




मुंडेश्वरी माता मंदिर सुबह 6 से 7 बजे तक दर्शन के लिये खुला रहता है।


बौद्ध मंदिर?

हाल ही के दशकों में मुंडेश्वरी मंदिर को एक बौद्ध मंदिर साबित करने की काफी कोशिशें नव-बौद्धों द्वारा मार्क्सवादी और वामपंथी विचारधारा और षड्यंत्र के चलते करने की कोशिश की गई है। अनर्गल तथ्य बिना किसी ईतिहासिक प्रमाण के चलते यह दिव्य रचना नव बौद्धों के हाथों में जाने से बची है। 


यहाँ मिली लगभग हर मूर्ति को भगवान का रूप बताने का प्रयास किया गया है। किंतु यह प्रामाणित नहीं हो पाया क्योंकि मंदिर पक्ष के पास इसके कुछ लिखित साक्ष्य संरक्षित मिले हैं। जैसे बौद्ध मंदिरों में जो शिलालेख मिलते है वह केवल पाली लिपी में होते हैं जबकि प्राचीन मंदिरों में ब्राह्मी लिपी, संस्कृत या तमिल भाषा का उपयोग होता है। 


यहां देवियों की मूर्ति जिनपे स्त्री संकेत स्पष्ट दिखाई देते हैं, नव बौद्ध इसे भी भगवान बुद्ध की कहकर मूर्खता करते है।


मुंडेश्वरी मंदिर कैसे पहुँचे:


कैमूर से निकटतम शहर वाराणसी और पटना है। वाराणसी से कैमूर 101 किमी है और साढ़े 3 घण्टे में पहुँचा जा सकता है। पटना से कैमूर की दूरी 223 किमी है। यह दूरी 6 घण्टे में पूरी की जा सकती है। 

पटना और वाराणसी रेलवे स्टेशन देश के बाकी शहरों अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। 

वाराणसी का लालबहादुर शास्त्री हवाई अड्डा और पटना हवाई अड्डा से देश के अन्य राज्यों के लिए विमान सर्व उपलब्ध रहती है।


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)



रविवार, 3 दिसंबर 2023

ओ. पी बाबा मंदिर, सियाचीन

बाबा हरभजन सिंह के नाम की कहानी और  गुरुद्वारे के बारे में सब परिचित थे पर देवतुल्य हो चुके ओ. पी. बाबा के बारे बहुत कम हिन्दू परिचित थे।


ओ.पी. बाबा

भारत वर्ष और सनातन धर्म इतिहास मैं सदैव से ऐसे पुरुषार्थी वीर हुए हैं जो दुश्मनो से लड़कर वीरगती को प्राप्त हो संत और ईश्वर जैसा स्थान प्राप्त किया हो। इसका उदाहरण छत्रपती शिवाजी महाराज, वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप, गुरु गोबिंद सिंह, वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई हैं। 


पूज्य मातृभूमि की स्वतंत्रता के बाद कुछ वीर ऐसे भी हुए जिन्हें उतनी ख्याती और सत्कार नहीं मिल पाया या इतिहास के पन्नों में खो गये। भारतीय थल सेना में ऐसे वीर हुए हैं जिन्होंने हिमालय की चोटियों पर विषम परिस्थितियों में अपने प्राण गंवा दिए। 





एक ऐसे ही वीर थे जिनका नाम था ओम प्रकाश सिंह। इन्हें अब बाबा ओम प्रकाश कहा जाता है। इनका एक मंदिर सियाचीन में लगभग 20000 फ़ीट की ऊंचाई पर है। भारतीय सेना की 62 टुकड़ियाँ तैनात है और तकरीबन 10000 से ज्यादा सैनिक यहां पहरा देते है। यहां सेना के जवान हर पल दुश्मन पर कड़ी नजर रखे हुए खड़े रहते हैं। किंतु दुश्मन से कहीं अधिक, यहां मौसम से सैनिकों की जान जाती है। सन् 1980 के शुरुआती सालों में ओ.पी. सिंह नाम के एक सैनिक सियाचीन के इस बर्फीले रेगिस्तान में पहरा दे रहे थे फिर उसके बाद वे लापता हो गए।  उनकी मौत की कभी कोई आधिकारिक पुष्टि आज तक नहीं हो पाई और नाहीं मृत देह की प्राप्त हुई।


मंदिर गेट


किंतु कुछ वक्त बाद यहां तैनात बाकी सिपाहियों को वे सपने में दिखाई देने लगे। सपनों के जरिये वे आनेवाले बर्फीले तूफान का हाल और मौसम का मिजाज पहले ही बता देते। और तो और अगर भूल चूक से कोई सैनिक रास्ता भूल जाये तो उसे सही रास्ता भी बता देते। सेना के उच्च अधिकारियों को पहले यह यकीन नहीं हुआ किंतु जब एक बाद ऐसी घटनाएं होने लगी तो एक अलौकिक शक्ति का विश्वास उन्हें भी होने लगा। 


मंदिर आरती




1996 में ओम् प्रकाश बाबा का मंदिर एक कुटिया में बना दिया गया और 2003 आते-आते पक्के मंदिर स्वरूप भी पूर्ण हुआ।। 


बाबा की मूर्ति



बाबा के प्रति आभार का आलम ऐसा है कि सियाचीन में पोस्ट होने वाला जवान जब यहां आता है और जाता है, दोनों ही बार बाबा का आशिर्वाद लिए बगैर आगे नहीं बढ़ता है। भारतीय सेना सियाचीन में सीमा पर हो रही किसी भी निर्णय के पहले बाबा को रक औपचारिक रिपोर्ट भेजती है वैसे ही जैसे सेना के किसी जीवित अधिकारी को करती हो। 


इस मंदिर में हिन्दू धर्म के देवी देवताओं भी ओ. पी. बाबा के साथ विराजे हैं। किंतु भारतीय सेना और राष्ट्र के सेकुलरवाद को देखते हुए इस्लाम, ईसाई, सिख और बौद्ध, जैन धर्मों के भी चिन्ह आदर के साथ रखे गए हैं। 


बाबा द्वारा पहनी वरदी


ओ.पी. की यहां दोनो वक़्त आरती और पूजा की जाती है। मंदिर भारतीय सेना के नियंत्रण में होने और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर होने की वजह से इसे आम जनता के लिए नहीं खोला गया है। 



।। जय हिंद ।। 

🙏🇮🇳🚩🙏


✒️ स्वप्निल. अ

 


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)







 

गिरजाबंध हनुमान मंदिर, बिलासपुर, छतीसगढ़

  यूं तो भगवान श्रीराम भक्त हनुमान के देश में कई और विदेशों में कुछ मंदिर है, किंतु भारत के गांवों दराजों में ऐसे मंदिर है जिनकी खबर किसी को...