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शनिवार, 9 सितंबर 2023

औंध नागनाथ मंदिर, हिंगोली

हिंगोली, मराठवाड़ा में धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान शिव को समर्पित एक महत्वपूर्ण पांडव कालीन मंदिर हैं जिसे औंध नागनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर ज्योतिर्लिंग के रूप में भी कुछ विद्वानों के मतानुसार माना गया है।





औंध नागनाथ मंदिर



पौराणिक इतिहास:


सबसे पहला औंधा नागनाथ मंदिर राजा युधिष्ठिर और बाकी पांडवों द्वारा उनके 12 साल के वनवास के समय बनवाया गया था। दारूका वन में पांडवों ने कुछ समय बिताया था। पांडवो के पास कपिला नामक गौ थी। एक दिन अचानक कपिला ने दूध देना बंद कर दिया। कारण पता चलने पर ज्ञात हुआ कि वहां एक तेजोमय शिवलिंग था जिस पर कपिला अपना दूध छोड़ देती थी। महाबली भीम ने उस शिवलिंग को उठाकर झील से बाहर लाया और पांचों पांडवों ने मिलकर उसकी स्थापना की। 




इतिहास:


दूसरा मंदिर सिओना यादव वंश ने बनवाया था 13वी सदी में बनवाया था। मंदिर उस समय सात मंजिला बनाया गया था। मुग़ल वंश के क्रूर शासक औरंगज़ेब ने शिवलिंग भंग करने और मंदिर तोड़ने के लिए आक्रमण किया। औरंगज़ेब ने तलवार उठाई जिससे शिवलिंग वहीं धरती में धंस गया सो आज भी भक्त गर्भ ग्रह में उतरकर दर्शन करते हैं। 


कई दशकों बाद मंदिर का जीर्णोद्धार इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने कराया था। मंदिर का ऊपरी भाग का निर्माण उनके बाद पेशवाओं के शासन में करवाया गया था हेमदपंती शैली में बनाया गए इस मंदिर में काला पत्थर और चुना पत्थर का उपयोग किया गया है। 


 मंदिर 670 वर्ग मीटर में फैला है और ऊंचाई है 18.29 मीटर जबकि मंदिर का कुल क्षेत्रफल 60,000 वर्ग फ़ीट है। मंदिर में 12 अन्य छोटे मंदिर 12 ज्योतिर्लिंग के लिए हैं और 108 मंदिर, 68 छोटे तीर्थ औंधा नागनाथ मंदिर परिसर में स्थापित हैं। 


भारत की आजादी के बाद मंदिर को पुरातत्त्व विभाग के हाथों में सौंप दिया गया था।


"अन्य शिवालयों की तरह मंदिर का मुख उत्तर या पूर्व दिशा में ना हो कर पश्चिम की तरफ है।"





तीन नागेश्वर ज्योतिर्लिंग विवाद:


यह विवाद काफी लंबे समय से अनसुलझा है। मूल नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के सम्भ्रम की जड़ शिव महापुराण में मिलती है। इस विवाद में महादेव के तीन बड़े-मंदिरों की सूची है। इसमें नागेश्वर मंदिर, (पहला)द्वारका(ज्योतिर्लिंग), (दूसरा)जागेश्वर महादेव मंदिर, अल्मोड़ा और (तीसरा) औंधा नागनाथ मंदिर, हिंगोली है। शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता के 29वें अध्याय में नागर्श्वर ज्योतिलिंग का स्थान का केवल एक मात्र संकेत मिलता हैं। पुराण बताते है, नागेश्वर ज्योतिलिंग विंध्याचल के दक्षिण-पश्चिम में समुद्र के पास स्थित है था वहाँ देवधर के वन है, अब देवधर वन द्वारका क्षेत्र में कहीं भी पाए नहीं जाते हैं। इसीलिए इन तीनों में कौन सा नागेश्वर ज्योतिर्लिंग है, संदेह का विषय बना हुआ है।


दारूका वन एक रानी जो राक्षसों की रानी दारूका से भी सम्बंधित है।

शिव महापुराण में दारूका वन के बारे में बताया गया है जो समय के साथ लेखन में द्वारका हो गया। दारूका वन यानी देवधर के वृक्ष जिसके नीचे ऋषि-मुनि, महादेव की आराधना किया करते थे और यह विवरण उत्तरखण्ड देवभूमि के जागेश्वर महादेव मंदिर पर सबसे सटीक प्रमाणित होता है। किंतु प्रचलित मान्यता में द्वारका स्थित नागेश्वर मंदिर ही ज्योतिर्लिंग के रूप में सदैव माना गया है। 


दारुक-दारूका वध कथा:


सतयुग में इस क्षेत्र में दारुक और दारूका नाम के राक्षस-राक्षसी रहा करते थे। दारूका माँ पार्वती की आराधना किया करती थी। एक बार एक ब्राह्मण जिसका नाम सुप्रिया था इस क्षेत्र में आया और दारुक ने दारूका से कहकर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया। इस राक्षस जोड़ी का हर समय यहाँ आनेवाले हर प्राणी को सताना और डराना रहता था। उसी दिन मौके का लाभ उठाते हुए दारुक ने सुप्रिया और इस क्षेत्र के सारे प्राणियों को समुद्र के भीतर बंधक बना लिया। 


सुप्रिया ने दारूका वन वासियों को इक्कठा कर महादेव की आराधना शुरू की। राक्षस दम्पति से परेशान हुए भक्तों को तुरंत मुक्ति दिलाने के लिए महादेव ने दर्शन दे कर दोनों का वध किया। सुप्रिया की सूझ-बूझ और भक्ति के परिणाम स्वरूप उस ज्योतिर्लिंग को नागेश्वर ज्योतिलिंग कहा गया। यहां महादेव नागेश्वर और माता पार्वती नागेश्वरी के रूप में विराजित है। 


समस्त ज्योतिर्लिंगों में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग दसवां ज्योतिर्लिंग है।

 प्रमुख आकर्षण:


औंधा नागनाथ मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई पांच भव्य मूर्तियां देखने को मिलती है। यह मंदिर की अद्धभुत कलाकृति का उदाहरण है।


कैलाश पर्वत पर विराजे महादेव पार्वती और रावण पर्वत हिलाने के प्रयत्न करता हुआ।


भगवान विष्णु का दशावतार रूप।


महादेव का अर्धनारीश्वर रूप।


नटराज नृत्य करते भगवान शिव।


विकराल रूप में वीर भद्र।



त्यौहार और आवश्यक पूजा:


◆ माघ महीने से शरू हो कर फाल्गुन महीने की शरुआती दिनों तक औंध नागनाथ मंदिर में सुंदर मेला लगता है।


दशहरे पर हर वर्ष बड़े उल्ल्हास के साथ भगवान नागनाथ की पालखी पूरे गाँव मे निकाली जाती है। 


◆ कोजागिरी पूर्णिमा पर सवेरे 5 से 7 के बीच ककड़ी से विशेष पूजा-आरती और भजन किये जाते है। 


◆ महाशिवरात्रि पर लाखों की संख्या में भक्तों का सैलाब उमड़ता है और रथोत्सवम का आयोजन होता है जिससे पर्वतों के बीच औंध गांव खिल उठता है। 




संत नामदेव और गुरु नानक:


औंधा नागनाथ मंदिर महाराष्ट्र के विख्यात भगवान के विठ्ठल भक्त नामदेव और वारकरी सम्प्रदाय के लिए भी प्रसिद्ध है। संत नामदेव के समकालीन संत दन्यानेश्वर और विसोबा केचरा का इस शिव धाम से विशेष जुड़ाव है। 


नामदेव का उल्लेख सिख पंथ के धर्म ग्रँथ श्री गुरु ग्रँथ साहब में भगत नामदेव के नाम से वर्णन है। गौरतलब है कि सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने नामदेव के जन्म स्थान नरसी बामनी होते हुए औंध नागनाथ मंदिर आये थे।

 


मंदिर महत्त्व:


पूरे देश में कालसर्प दोष निवारण के लिए केवल दो मंदिर जाने जाते हैं। पहला मंदिर है हर शिवभक्त का प्रिय शिवधाम त्रियंबकेश्वर जो नासिक में स्थित है और दोसरा कम जाना जानेवाला औंधा नागनाथ मंदिर, हिंगोली में। 




कैसे पहुँचे:


  हिंगोली जिले के लिए महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों से भली भांति जुड़ा हुआ है। 


औंधा नागनाथ मंदिर से हिंगोली डेक्कन रेलवे स्टेशन 25 किमी की दूरी पर है। हिंगोली का पड़ोसी शहर परभणी है जिसके रेलवे स्टेशन से मंदिर की दूरी सड़क मार्ग से 51 किमी है। 


औरंगाबाद की औंध से दूरी 210 किमी और मुंबई से 580 किमी है। हवाई मार्ग से भी आसानी से पहुँचा जा सकता हैं। 


नागपुर से शहर से हिंगोली 360 किमी है जिसे सड़क और रेल मार्ग से आसानी से पूरा किया जा सकता हैं। 


महाराष्ट्र राज्य सरकार बस परिवहन, प्राइवेट बस औंधनाथ मंदिर के लिये अपनी सेवाएं देने सदैव उपलब्ध रहती है। 


✒️Swapnil. A


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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बुधवार, 30 अगस्त 2023

अथि वरदराज पेरुमल मंदिर, काँचीपुरम

 


अत्थि वरदराज पेरुमल मंदिर प्रवेश

पौराणिक कथा:


पहली कथा:

पुराणों के अनुसार सत्युग में एक समय ब्रह्माजी इस नगर में यज्ञ करने पधारे किंतु माँ सरस्वती के उनसे रुष्ट हो जाने के कारण उन्हें अपने संग नहीं लाये। यज्ञ करने के लिए ब्रह्याजी अपनी अन्य पत्नी माँ गायत्री के साथ यज्ञ करने लगे तो माँ सरस्वती क्रोधित हो यज्ञ को बाधित-नष्ट करने की ठानी। सरस्वती वेगवती नदी के रूप में प्रकट हो तीव्र वेग से बहने लगी। ब्रह्माजी ने विष्णु जी की प्रार्थना कर उपाय पूछा तो भगवान विष्णु कांचीपुरम में शयन मुद्रा में यज्ञ और वेगवती नदी के बीच विराज गए। भगवान ब्रह्मा के यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने वर दिया और कांचीपुरम में स्थापित होकर वरदराज के रूप में पूजे जाने लगे। (तमिल 'वरद'=वरम)


दूसरी कथा: 


एक दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार एक बार जब भृंगी ऋषि के दो पुत्र गौतम ऋषि के गुरुकुल में पढ़ रहे थे तब अनजाने में उन्होंने पूजा अनुष्ठान के लिए जो जल लाया उसमें छिपकली गिर गई थी। गौतम ऋषि ये देख क्रोधित हो उठे और दोनों भाइयों को छिपकली बन जाने का श्राप दिया। क्षमा मांगने पर ऋषि ने शांत हो कर इसका उपाय कांचीपुरम नगरी में केवल भगवान विष्णु कर सकते है। भगवान ने उन दोनों भाइयों का यहां उद्धार कर शाप मुक्त किया। ऐसी पुरानी मान्यता है, जो कोई भी इस मंदिर में सच्चे मन से यहां दीवार पर उत्कीर्णन कर बनाई गई चांदी और सोने की छिपकलियों को छू कर प्रार्थना करता है उसकी सारी बीमारियों दूर हो जाती हैं। 


वरदान देने के कारण भगवान विष्णु को वरदराज यानी वर देने वाले राजा के रूप में यहां पूजा जाता है। 


इतिहास:


कांचीपुरम एक प्राचीन नगरी है। दक्षिण भारत के इस मनोहारी नगरी में लगभग 1000 मंदिरों का भूल-भुलैय्या हैं, इसीलिए इसे दक्षिण का बनारस भी कहा जाता है। इन मंदिरों में सन्यासी-कवि जिन्हें अलवर कहते है, भजन किया करते थे। वरदराज पेरुमल मंदिर सबसे पुराना उल्लेख तीसरी शताब्दी(AD) का मिलता है किंतु आज जो मंदिर का ढांचा हम देख रहे हैं इसका निर्माण चोला राजाओं द्वारा 9वी सदी में बनकर पूरा हुआ। सन् 1053 में मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।  यहां तमिल भाषा मे 350 श्लोक उकेरे गए है जिसमें       

चोल, पांड्य, कंदवराय, चेरा, काकतीय, सांबुवराय, होयसल और विजयनगर साम्राज्यों की छाप साफ देखी जाती हैं। इन राजवंशों ने समय-समय पर मंदिर की वास्तुकला में अपना योगदान प्रदान किया था।


विशिष्टाद्वैत वैष्णव मत के परम्पूज्य संत रामानुज ने इस मंदिर में अपने जीवन के कुछ वर्ष व्यतीत किये थे। वरदराज पेरुमल मंदिर वैष्णवों के पवित्रतम धामों में से एक है और वैष्णव साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता हैं।


सन् 1688 में मुग़लों के दक्षिण की तरफ आक्रमण की वजह से मंदिर में भगवान की प्रमुख तस्वीर को उदयारपालयम , तिरुचिरापल्ली में भिजवा दिया गया था। जनरल टोडरमल के अंदर काम करनेवाले कुछ लोगों की सहायता से से भगवान की उस तस्वीर को वापिस लाया गया था। अंग्रेजी उपनिवेश की शुरुआत में भारत के पहले गवर्नर रोबर्ट क्लाइव ने यहां मनाए जानेवाले गरुड़ सेवा उत्सव पर एक बहु मूल्य हार (क्लाइव महारकांडी) मंदिर में भेंट की थी। विशेष उत्सवों पर आज भी उस हार से भगवान को सजाया जाता है।

 


मंदिर:


अत्ति वरदराज पेरुमल मंदिर 23 एकड़ में बनवाया गया है। लगभग 1800 वर्ष पुराने इस मंदिर की भव्यता इसकी जटिल वास्तुकला के लिए जानी जाती है। कांचीपुरम के अन्य मंदिरों की तरह ही विश्वकर्मा स्थापथियों के कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण है। 


भगवान पेरुमल स्वामी की मूर्ति के दर्शन को जानेवाले रास्ते में 24 सीढ़ियां आती है। वह 24 सीढ़ियां गायत्री मंत्र में 24 अक्षरों को चिन्हित करते है। मंदिर के भीतर के गर्भ गृह को ही अत्तिगेरी मंदिर बोला जाता हूं क्योंकि यही मंदिर के प्रमुख देवता है। मंदिर भगवान नरसिंह एक बनाई गई पहाड़ी पर विराजे हैं।


यहां आने वाले भक्त अक्सर मंदिर के 100 स्तम्भों के रहस्य को नजरअंदाज कर देते हैं। यह स्तम्भ अपनी जगह पर रहते हुए घूमते हैं और इनसे ध्वनि सुनाई देती है। मंदिर में रामायण और महाभारत की कहानियाँ को सुंदरता के साथ शिल्पकारों ने उकेरा है। मंदिर के हॉल के बाहर के चारों कोनों पे लटकती लोहे की मोटी सनकलें दर्शनार्थियों का ध्यानाकर्षण करती हैं।




40 वर्ष दर्शन अंतराल:


अथि वरदराज मंदिर से जड़ा विस्मय कर देने वाला एक सबसे अनूठा सत्य है; यहां भगवान विष्णु की 10 फ़ीट लंबी अंजीर(अत्ति/Fig) की लकड़ी से बनी मूर्ती हर 40 वर्ष में दर्शन के लिए "अंनत तीर्थम सरोवर" के अंदर से बाहर निकाली जाती है। इसे मंदिर के वसंता मण्डपम भाग में दक्षिण-पश्चिम दिशा में अड़तालीस दिन यह इस मूर्ति की पूजा की जाती है। मूर्ति 24 दिन खड़ी और 24 दिन शयन मुद्रा में विराजित रहती है। इसके पश्चात भगवन को पुनः "अनंत तीर्थम" सरोवर के एक गुप्त कक्ष में जलमग्न कर दिया जाता है। रहस्यमय बात ये है कि 4 दशक अंदर रहने के बाद भी आज तक मूर्ति का मूल स्वरूप में रत्ती भर बदलाव नहीं आया और ना ही मूर्ति की लकड़ी सड़ी है। 


इन 48 दिनों के बाद चालीस वर्षों तक वरदराज की पत्थर के विग्रह की पूजा की जाती है। इतिहास को देखें तो पता चलता है यह परंपरा को शरुआत मुगलों के दक्षिण में आक्रमण को देखते हुए शुरू को गयी थी। उसके पहले केवल अंजीर की मूर्ति को पूजा में किया जाती थी। आक्रमण के समय नुलसान से बचाने के लिए मूर्ति को अंनत सरोवर में छुपा दिया गया और फिर काफी दशकों तक लुप्त मान ली गयी। एक दिन 1709 में मूर्ति अंनत सरोवर की सफाई करते समय खाली करने पर अचानक प्रकट हुई और फिर इस परंपरा का पालन किया जाना शरू हुआ।


आखरी बार 1 जुलाई से 17 अगस्त 2019 में वरदराज ने दर्शन दिए थे और अब पुनः दर्शन 2059 में देंगे। 









छिपकली मंदिर:


भगवान वरदराज पेरुमल के गर्भ गृह के प्रवेश के लिए जाने वाले रास्ते के पहले, बाहर मंदिर की छत पर दो छिपकलियां, सोने और चांदी में गढ़ी हुई है। साथ ही सूर्य और चंद्रमा भी गढ़े हुए हैं। इन्हें छू कर भक्त भगवान के दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं। 




भारत में सनातन के मंदिरों में छिपकली की मूर्तियों के दर्शन करवाने वाला केवल यही एक मात्र मंदिर नहीं है। कर्नाटक में बल्लिगवी नाम से एक और मंदिर अपनी छिपकली की मूर्ति के लिए कर्नाटक वासियों में प्रसिद्ध है। 


छिपकलियों का हिंदू सनातन मंदिरों और पुराणों से कड़ियाँ आज की दुनिया से सम्बंध में यूट्यूब पर पाठक प्रवीन् मोहन जो एक हिन्दू मंदिर अध्ययन करता है, इनके वीडियो से इस रहस्य के बारे में गहराई से जानकारी ले सकते है। 


मेर अपना अध्ययन प्रवीन मोहन के मत से काफी मिलता है। यह छिपकलियां बास्तव में प्राचीन भारत में मनुष्यों के साथ आधे सरीसृप-आधे मनुष्य रूप में रहा करती थी। हम श्रीमद्भागवत, रामायण और कितने सारे पुराणों में नागों के बारे में सुनते और पढ़ते हैं, वास्तव में यह नाग आकार और शरीर बदलने में बहुत सक्षम थे। यह मनुष्यों को उनके व्यवहार के अनुकूल लाभ और हानी पहुँचा सकते थे। 


थिरुक्काची नंबीगल:


मंदिर से जुड़े एक महान विष्णु भक्त थिरुक्काची नंबीगल (दूसरा नाम कांची पूर्णार) हुए थे। उनकी विष्णु भक्ति से वैष्णव सम्प्रदाय के  रामानुज भी प्रभावित थे। नंबी ने एक संस्कृत कविता देवराजाष्टकम् का सृजन किया था। इनकी भक्ति और काव्य से रामानुज को वरदराज से जुड़े छः प्रश्नों के उत्तर भी मिल गए थे। 


नंबी ने पूवीरूंधवल्ली में एक बगीचा बनाया था। प्रतिदिन वहीं से पुष्प लाते थे। प्रभु की सेवा के समय हाथों के पंखे से अलवत्ता कंगारियम किया करते थे। इस परंपरा का आज भी पालन किया जाता हैं। सेवा करते समय भगवान वरदराज नंबी से वार्तालाप किया करते थे। 


त्यौहार:


वरदराज मंदिर में भ्रमोत्सवम एक बड़ा और विशेष पर्व है जो हर वर्ष मई/जून महीने में हज़ारों भक्तों द्वारा मनाया जाता है। इस उत्सव में विशाल छत्रियाँ प्रयोग में लायी जाती है। त्यौहार का आनंद गरुड़ वाहनं और थेर थिरुविल्ला रथ यात्रा निकलने पर चौगुना हो जाता है।



कैसे पहुँचे:

तमिल नाडू की राजधानी चेन्नई, कांचीपुरम से 75 किमी दूर है। चेन्नई बस अड्डे से तमिल नाडु राज्य परिवहन की बसे कांचीपुरम के लिए सूर्योदय के पश्चात 7 बजे से उपलब्ध रहती है। 

सड़क के रास्ते 2.5 घण्टे का समय लगता है। प्राइवेट कैब और टैक्सी सेवा के लिए सेवाएं 24*7 रहती है । 


चेन्नई हवाई अड्डे से देश और विदेश के लिए उड़ाने दिन रात भर्ती हैं।


✒️Swapnil. A


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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मंगलवार, 22 अगस्त 2023

उनाकोटी, कैलासहर, त्रिपुरा

उनाकोटी कैलासहार तहसील में है। यहाँ पर रघुनन्दन पहाड़ियों के पत्थरों पर उकेरी गई देवी देवताओं की मूर्तियों अपने में अजीब रहस्य ली हुई दिखाई देती हैं। 


उनाकोटी जिसका तिब्बत-बर्मा की भाषा कोकबोरक में 'सुब्राई खुंग' (Subrai Khung) कहा जाता है। इसका अर्थ है एक करोड़ में एक कम। यहां 99 लाख, 99 हज़ार, नौ सौ निन्यानवे 999 मूर्तियां है। 



 इतिहास:


 मूर्तियों 6-7वी सदी (AD) में बनाई गई हैं। उस समय यहां किसी शाही परिवार का शासन नहीं था। पन्द्रवीं सदी के अंत मे यहां त्रिपुरा में चन्द्रवंश के माणिक्य राजाओं का शासन आरम्भ हुआ।  पत्थरों पर देव प्रतिमाएं और भित्ति चित्र हरे-भरे पर्वतों के छाया में स्वर्ग सा अनुभव कराते हैं। सबसे विशाल प्रतिमाओं में भगवान शिव, भगवान गणेश और कालभैरव की मूर्तियां है जो यहां पहुंचने वालों का हृदय मोह लेती हैं। भगवान कालभैरव की प्रतिमा तकरीबन 30 फ़ीट ऊंचाई में है। शिव प्रतिमा के पास ही माँ दुर्गा की प्रतिमा सिंह पर बैठे दिखाई देती है। भगवान शिव के वाहन नंदी की मूर्तियां है जो धरती के अंदर आधी समाई हुई हैं। अनेक दूसरे देवी देवताओं की प्रतिमाएं रघुनन्दन पर्वत में दर्शनीय है। 


 सदियों से उपेक्षा झेलने के पश्चात हाल के वर्षों में पुरातत्व विभाग द्वारा उनाकोटी को अपने अंदर लिया गया है। इसके जीर्णोद्धार के लिए सरकार द्वारा कार्य प्रारंभ हुआ है। दिसंबर, 2022 में उनाकोटी को UNESCO ने विश्व धरोहर की सूची में स्थान दिया है। 



माँ दुर्गा और कालभैरव

➡️ पाताल भुवनेश्वर, पिथौरागढ़, उत्तराखंड

किंवदन्तियाँ:


पहली किंवदंती:

 

पहली किवदंती का कोई पौराणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। किसी भी शास्त्र या पुराण में विवरण नहीं मिलता है। 

एक प्रचलित मान्यता है कि प्राचीन् समय मे भगवान शिव अपने साथी देवताओं के साथ काशी की ओर जाने के लिए निकले तो रास्ते में एक रात बाकी देवता निद्रा करने के लिए रुके और भोर होते ही जब निकलने का समय आया तब यह देवी-देवता नहीं उठे तो भगवान शिव ने उन्हें श्राप दे कर पत्थर की मूर्तियां बना दी। तब  ही से यह सारे देव शिला रूप लिए हुए हैं। 


भगवान शिव



दूसरी किंवदंती:


कल्लू कुम्हार नाम का एक लोहर रहता था। जिसने भगवान महादेव से जिद्द पकड़ ली, कैलाश पर्वत साथ चलने की। इस पर पर महादेव ने अपनी तरफ से एक शर्त रखी, की अगर वह एक रात में एक करोड़ मूर्तियां बना देगा तब वह अगली सुबह कैलाश के लिए उनके साथ आ सकता है। अगली सुबह उससे एक करोड़ से एक कम मूर्ति ही बन पाई फिर महादेव अकेले कैलाश प्रस्थान कर गए। कल्लू कुम्हार वहीं रह गया अपनी बनाई मूर्तियों के बीच।


उक्त किंवदंतियों के अलावा और कोई लिखित या ठोस पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध नहीं है जो इन मूर्तियों के रहस्य से पर्दा उठा पाए। 


त्यौहार:


उनाकोटी में हर वर्ष अप्रैल में अशोकष्टमी मेला लगता है जिसमे हज़ारों श्रद्धालू मेला देखने और मूर्तियों के दर्शन करने आते हैं। इस मेले के अलावा और दूसरे त्योहार भी मनाए जाते किंतु कम हर्षोल्लास से। 


कैसे पहुँचे:


उनाकोटी का सबसे निकटतम हवाई अड्डा राजधानी अगरतला का सिंगरभिल हवाई अड्डा है। यहां से कोलकाता और अन्य शहरों से जुड़ी हुई उड़ाने चलती है। दूसरा निकटतम शहर है सिलचर जहां से अगरतला की दूरी 295 किमी है। लुमडिंग-सबरूम खंड पर धर्मनगर रेलवे स्टेशन उनकोटी से 19 किमी दूर है। धर्मनगर रेलवे स्टेशन से उनकोटी का सफर 50 मिनट में पूरा किया जाता है। 


✒️Swapnil. A


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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शनिवार, 19 अगस्त 2023

मंगलनाथ मंदिर, उज्जैन, मध्यप्रदेश

महाकाल की नगरी मानी जानेवाली उज्जैन में वैसे तो मंदिरों और तीर्थों का भरमार है किंतु इनमें कुछ मंदिर ऐसे है जिनके बारे में सनातन धर्मावलंबियों को शायद ही कोई जानकारी होगी। शिप्रा नदी के तट पर थोड़ी दूरी पे आपको कोई ना कोई मंदिर अवश्य दर्शन करने मिल जाएगा। 


इस सूची में मंगलनाथ मंदिर एक ऐसा मंदिर है जहाँ दिन की 365 दिन लोग आते हैं। मंगलनाथ मंदिर को ही मंगल ग्रह का जन्म स्थान पुराणों के अनुसार माना जाता है।




पौराणिक कथा:


अंधकासुर वध


मंगल ग्रह के जन्म से जुड़ी सर्व मान्य कथा अंधकासुर नामक असुर से जुड़ी हुई है। यह कथा

स्कंद, मत्स्य और लिंग पुराण में मिलती है। इन सभी पुराणों में भिन्न-भिन्न विवरण है। 


सत्युग में एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव के दोनों नेत्र बंद कर दिए थे, जिससे संसार में अंधकार हो गया। सो महादेव अपना तीसरा नेत्र खोल देते है जिससे वातावरण ग्रीष्म हो गया। माता पार्वती को पसीना आने लगता और फिर अंधकासुर का जन्म हुआ। माँ पार्वती ने त्रिपुरारी शिव से पूछा के यह बालक किसका है तो भोले ने उसे अपना बालक बता दिया। अंधकासुर का जन्म अंधकार में होने के कारण नाम अंधकासुर पड़ा। 


फिर, इस बालक को असुरों के राजा हिरण्याक्ष को भगवान शिव ने सौंप दिया। असुरों के बीच अंधकासुर पला बड़ा सो इसके कारण उसने सारे लोकों पर आधिपत्य करने की सोची और महादेव ने उसे उसकी तपस्या स्वरूप वर दिया। वर में उसने 1000 भुजाएं, 1000 पैर और 1000 नेत्र मांगे। इसके पश्चात उसका वध करना सारे देवों के लिए कठिन हो गया।


स्कंदपुराण के अवंतिका खण्ड के अनुसार, इतने शक्तिशाली वर मांगने पर अंधकासुर ने अवंतिका नगरी में विनाश करना शुरू किया सो देवादिदेव महादेव ने उसके वध का दायित्व उठाया। 


अवंतिका नगरी में भगवान शिव ने उसका वध किया और उस वध से महादेव को पसीना छूटा और उस पसीने से धरती फट गई जिससे मंगल ग्रह का जन्म हुआ। मंगल देवता ने असुर के शरीर से प्रवाहित रक्त को अपने भीतर समा लिया। इसीलिए मंगल ग्रह का रंग लाल है।  भगवान शिव ने मंगल ग्रह को आदेश देकर दूर सौर्य मण्डल में स्थान दिया। 






मंगलनाथ मंदिर:


मंगल देवता यहां शिव लिंग रूप में स्थापित है। मंदिर काफी प्रचीन है किंतु आज जो मंदिर का ढांचा दिखता है इसे सिन्धिया राज घराने ने बनावाया था। 

आज मंदिर लाल रंग में दिखाई देता है पर इससे पहले मंदिर का रंग सफेद संगमरमर में था। मंगलवार के दिन यहां भक्तों का समुंदर निश्चित रूप से दिखता है।


मंदिर और खगोल:


मंगलनाथ मंदिर महाकाल मंदिर की तरह खगोलशास्त्र में बहुत महत्त्व रखता है। कर्क रेखा पृथ्वी पर उज्जैन से हो कर गुजरती है, जिसमे यह दोनों मंदिर आते हैं।  इसीलिए इनका न केवल खगोल पर इसके साथ साथ ज्योतिष और आधात्मिक दृष्टि से 


मंदिर महत्त्व:


मंगलनाथ मंदिर संसार के उन चुनिंदा मंगल ग्रह मंदिरों में से एक है। यहां भक्त अपने मंगल दोष निवारण की पूजा करवाने आते है। मंगल ग्रह के उग्र स्वभाव होने के कारण शिवलिंग पर दही-भात और पंचामृत मिश्रित कर लेप लगाया जाता है। जिनके कुंडली में चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादश भाव में मंगल देवता उग्र रूप लिए बैठे हैं वे यहाँ पूजा करवाते हैं। मंगल देवता शांत होकर उनके सर्व कार्य सिद्ध करते है। नवविवाहित जोड़े भी मंदिर के दर्शन से लाभान्वित होते हैं। 


मार्च महीने में आनेवाली अंगारक चतुर्थी पर यहां विशेष पूजा, यज्ञ और हवन करवाये जाते है। मंगल ग्रह मेष और वृश्चिक राशी के स्वामी ग्रह है।


मंदिर में जो एक विचित्र दृश्य दिखता है वो है यहां सुबह की आरती के समय मंडराने वाले मिठ्ठू जिन्हें प्प्रसाद का दाना ना देने पर शोर मचाने लगते है। यहाँ के पंडित बताते है कि यह स्वयं मंगल देवता प्रतिदिन आकर सेवा करने का अवसर देते हैं।


।। ॐ नमः शिवाय ।। 


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✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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