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शनिवार, 16 दिसंबर 2023

तारापीठ शक्तिपीठ, बीरभूम, पश्चिम बंगाल

बंगाली हिंदुओं के प्रमुख हिन्दू देवी तीर्थों में कालीघाट, तारापीठ शक्तिपीठ और नबद्वीप विशेष स्थान रखते हैं। 


पौराणिक इतिहास:


तारापीठ शक्तिपीठ के स्थापना की कथा मुख्यतः सतयुग की ही मानी गयी है। जब माता सति दक्षयज्ञविनाशिनी हो कर आत्मदाह कर लिया,  दुख में डूबे भगवान शिव सारे संसार मे उनकी मृत देह लिए घूमने लगे, इस पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस देह के टुकड़े किये। उन टुकड़ों में माता सती के नेत्र की पुतली जिसे तारा कहा जाता है बीरभूम की इस भूमि पर आ गिरी। आज यही मंदिर तारापीठ धाम के नाम से विख्यात है। बीरभूमि का पूरा अर्थ है वन से घिरी हुई भूमि है।


शिव को स्तनपान कराती माँ तारा



तारापीठ मंदिर(ऊपर से लिया गया)

तारापीठ मंदिर इमारत


दूसरी कथा अनुसार जब भगवान भोलेशंकर नीलकंठ हो गए तो उनके गले मे जलती ज्वाला को  द्वितीय महाविद्या माँ तारा ने शांत किया। जिसके लिए प्रभू ने बाल रूप धर लिया। फिर माँ ने उन्हें स्तनपान करवा कर शीतलता प्रदान की। तीसरी कथा वशिष्ठ ऋषि से जुड़ी है। इसी स्थल पर वशिष्ठ ऋषि को माँ तारा ने दर्शन दे कर सिद्धियां वरदान स्वरूप दी थी।


उत्तर भारत की सभी नदियों में यहाँ बहने वाली द्वारका नदी एक मात्र नदी है जो दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है। 


अघोरी बामाखेपा:


अघोरी बामाखेपा बंगाल के बीरभूम जिले के आटला गाँव मे जन्मे एक अघोरी थे जिन्हें कई सारे चमत्कारों के लिए जाना जाता है। बामाखेपा माँ तारा के परम भक्त थे। एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे बामा को बचपन से ही ईश्वर के बारे में चिंतन करते रहने में बीतता था। फिर जब उन्हें तारापीठ का बुलावा आया तो उन्होंने यहां रहकर घोर साधना की। माँ तारा प्रसन्न होकर उन्हें अपने दुर्लभ दर्शन दे सिद्धियों से प्राप्त की। बामाखेपा बंगाल के ही संत रामकृष्ण परमहंस के समय के थे। जगजाहिर है, कैसे माँ काली परमहंस को स्वयं भोजन खिलाने आती थी और बामाखेपा को भी माँ तारा का स्नेह प्राप्त था। 



अघोरी बामाखेपा

अघोरी बामाखेपा के रहस्य


तारापीठ मंदिर:


रामपुरहाट उपप्रभाग में तारापीठ नगर का प्राचीन नाम चंडीपुर ग्राम था। माता तारा का मंदिर एक शक्तिपीठ और सिद्धिपीठ दोनों होने के कारण इसकी प्रसिद्धि बढ़ती गयी और चंडीपुर(माँ दुर्गा का प्रचलित उग्र रूप) ग्राम तारा पीठ बन गया। 


माँ तारा मूर्ति



तारापीठ नगर की परिसीमा में यह मंदिर मध्यम आकार का है। मंदिर लाल इटों से बना है। इसकी नींव भी मोटी और ठोस है। मंदिर भवन एक गलियारे द्वारा जुड़ा हुआ है जो मंदिर शिखर से जा मिलता है। माँ तारा की मूर्ति गर्भ गृह में छज्जे के नीचे सटीक विराजमान है। अपने दो चरित्र के दर्शन माँ दो मूर्तियों में देती है। एक तीन फीट ऊंची मूर्ति उग्र भाव में ज़िव्हा बाहर, मुंड माला धारण किये भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई। दूसरी सौम्य मातृत्व रूप लिए हुए विषपान किये त्रिपुरारी को स्तन से दूध पिलाति हुई। माँ पर चढ़ा हुए लाल कुमकुम के तिलक का पंडित जी मंदिर आनेवाले श्रद्धालुओं पर लगाते हैं। पंडित गेंदा, गुड़हल और गुलाब इत्यादि फूलों से सजी हुई माँ की प्रतिमाओं से दृष्टि नहीं हटती। देवी तारा को न केवल मिष्ठान, फल और नारियल का भोग अर्पित किया जाता है अपितु साथ ही मदिरा का भोग भी चढ़ाया जाता है। 


तारा माँ, मुण्डमालिनी मंदिर

माँ तारा के साथ महादेव मंदिर और माँ तारा का मुण्डमालिनी मंदिर भी स्थापित है।


तारापीठ मंदिर रहस्य:


मंदिर में बकरों की बलि भी दी जाती है। माँ तारा बगैर बलि के प्रसन्न नहीं होती। बकरों की बलि देनेवाला पहले स्वयं स्नान कर बकरों को अच्छी तरफ स्नान कर कर स्वच्छ करके एक तीखी तलवार से माँ तारा का नाम उच्चारण कर काट देते हैं। इसमें से एक कटोरा रक्त मा को मंदिर में माँ के विग्रह समक्ष अर्पित किया जाता है। 


प्रभू श्री रामचंद्र ने यहां राजा दशरथ का पिंड दान किया था। इसी के चलते मंदिर में मान्यता अनुसार पितरों का पिंड दान भी होता है।


श्मशान भूमी:


माँ तारा दूसरी महाविद्या है। उग्र महाविद्याओं में होने के कारण माँ श्मशान में निवास करती है। बीरभूमि में तारापीठ मंदिर एक श्मशान भूमि के मध्य स्तिथ है। श्मशान भी शक्तिपीठ का हिस्सा है। प्रतिदिन तारा माँ की पूजा अनुष्ठान बिना किसी चिता के हविष्य से आरम्भ नहीं होती। तारापीठ श्मशान में अघोरी साधु तपस्या में देखने को मिलते हैं। कई अघोरी साधुओं के परिवार यहां पीढ़ियों से विचरण कर रहे हैं। अत्यंत पुराने घने पीपल, बरगद आदि के वृक्षों के बीच अघोरी साधुओं की कुटिया झोपड़ी जिनपे मानव और जंगली और पालतू जानवरों की खोपड़ी रखी हुई दिखती हैं। इन खोपडियों में प्राणोत्सर्ग किये हुए लोगो की और कुंवारी कन्याओं के अवशेष मिलते हैं जिन्हें तंत्र क्रियाओं में अधिक प्रयोग में लाया जाता है। आसपास में सांप, बिच्छू रेंगते हुए और गीदड़, कुत्ते और दूसरे पशु रोते-चिल्लाते हुए दिखेंगे। देवी की तंत्र साधना में लीन ये साधू कोई सिद्धि पाने या सांसारिक माया से सम्पूर्ण छुटकारा पाने के उद्देश्यों में लगे हुए होते हैं। 


        
तारापीठ श्मशान भूमि


यहां दो श्मशान है जिसमे से एक तांत्रिक श्मशान और दूसरा सर्वजन श्मशान है। तांत्रिक श्मशान में तांत्रिक क्रिया यहाँ बसे अघोरी और तांत्रिक साधु उपयोग में लाते हैं। वहीं सर्वजन श्मशान आम जनता के उपयोग में है। 


मित्र हिमांशु श्रीवास्तव द्वारा बनाई


जीवित कुंड: 


रोग दोष निवारण हेतु मंदिर में अंदर प्रवेश करने पर जीवित कुंड स्थित है। माँ के मंदिर के बाहर इस कुंड में स्नान करने पर बीमारियों का समाधान होता हैं।


प्रसाद और भोग


मंदिर में भक्तों के लिए शुल्क और ननिशुल्क प्रसाद की भी व्यवस्था मंदिर ट्रस्ट द्वारा की गई है। इस भोग में माँ को मछली प्रसाद रूप में जो चढ़ाई जाता है उसी के साथ स्वादिष्ठ दाल-भात, रसगुल्ला और सब्जी- पूरी के साथ परोसा जाता है।


श्मशान तारा


मंदिर दर्शन:


माँ तारा के दर्शन के लिए वी.ऑय.पी. और साधारण दर्शन दोनों उपलब्ध हैं। वी.आई.पी दर्शन दो तरह के हैं और शुल्क भी। इसका मंदिर ट्रस्ट के दफ्तर में पता लगाया जा सकता है। 

साधारण दर्शन करने के लिए एक लंबी लाइन लगानी पड़ती है। देवी माँ के बेहतर दर्शन के लिए रात 7 से 10 बजे के बीच का समय उत्तम होता है। 


जो भक्त मंदिर में कार्य सफल करवाने के लिए यज्ञ हवन करवाना चाहते है उसका प्रबंध भी मंदिर के पुजारियों द्वारा किया जाता है। 


तारापीठ मंदिर कैसे पहुँचे:


 तारापीठ शक्तिपीठ मंदिर, बीरभूम जिले से कोलकाता के हावड़ा रेलवे स्टेशन तक कि दूरी 290 किमी है तथा यह दूरी NH12 और NH19 से 6 घण्टो में सड़क या रेल सर पूरी की जा सकती है। 


कोलकाता हवाई अड्डे से मंदिर की दूरी 260 किमी दूर है और 6 घण्टो में पूरी की जा सकती है। कोलकाता के डम डम हवाई अड्डे से भारत के हर कोने से हवाई सेवा शुरू रहती है।

 
तारापीठ मार्ग की द्वार


✒️स्वप्निल. अ


(नोट:- ब्लॉग में अधिकतर तस्वीरें गूगल से निकाली गई हैं।)


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